विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, भारत सरकार की एक महत्त्वाकांक्षी योजना के तहत देश की संकट-ग्रस्त भाषाओं के संरक्षण एवं संवर्धन का काम विश्वभारती शांतिनिकेतन स्थित ‘संकट-ग्रस्त भाषाई अध्ययन केंद्र’ के संयोजन में आयोजित प्रथम बैठक (6/10/15) के साथ ही शुरू हो चुका है। ज्ञात हो कि देश के कुल 9 केंद्रीय विश्वविद्यालयों में इस महत्त्वपूर्ण कार्य की ज़िम्मेदारी दी गई है, जिनका नोडल केंद्र ‘विश्वभारती शांतिनिकेतन’ है। इसके अलावा झारखंड केंद्रीय विश्वविद्यालय (झारखंड), केरल केंद्रीय विश्वविद्यालय (केरल), कर्नाटक केंद्रीय विश्वविद्यालय (कर्नाटक), इंदिरा गांधी राष्ट्रीय जनजातीय विश्वविद्यालय (मध्य प्रदेश), गुरू घासी दास विश्वविद्यालय (छत्तीसगढ़), तेजपुर विश्वविद्यालय (असम), राजीव गांधी विश्वविद्यालय, (अरुणाचल प्रदेश) एवं सिक्किम विश्वविद्यालय (सिक्किम) हैं।
इस बैठक में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की योजना की रूपरेखा तय की गई साथ ही इस बात पर भी ज़ोर दिया गया कि भाषाओं को उनकी समग्रता में देखने की आवश्यकता है, जिसमें जातीय अस्मिता, रोजगार, शिक्षा एवं आधुनिक तकनीकी के साथ संकट-ग्रस्त भाषाओं को कैसे जोड़ा जाय। इसके साथ ही कोश, व्याकरण और प्रचुर साहित्य की उपलब्धता को कैसे बढ़ाया जाय। इस पूरी योजना की प्रस्तावना रखते हुए देश के प्रमुख भाषाविद एवं विश्वभारती शांतिनिकेतन स्थित ‘संकट-ग्रस्त भाषाई अध्ययन केंद्र’ के प्रमुख ने इस बात की तरफ आगाह किया कि “युनेस्को द्वारा घोषित देश की 197 संकट-ग्रस्त भाषाओं अलावा भी अनेक भाषाएँ हैं, जो निकट भविष्य में अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करेंगी। इसलिए समय रहते उनके समक्ष आने वाले खतरों से निपटना होगा। इस प्रक्रिया में हमारी मुख्य लड़ाई बाजार से है और जनजातीय या अल्पसंख्यक भाषाओं में उन सभी सुविधाओं को उपलब्ध करना चाहिए, जो मुख्य धारा की भाषाओं में उपलब्ध है।” इस बैठक में देश के विभिन्न केंद्रों से जुड़े लोगों ने अपने विचार रखे, जिनमें प्रो. महेश्वरैया, प्रो. पी॰के॰ वाजपेयी, प्रो॰ मधुमिता बरबोरा, प्रो॰ गौतम बोरा, साइमन जॉन, लिजा लोमडक, बसवराजा, तुलसी दास मांझी, बिदिशा भट्टाचार्या, राजीब चक्रवर्ती, अरिमर्दन कुमार त्रिपाठी, आर के ओझा सहित शांतिनिकेतन के अनेक अधिकारी एवं कर्मी शामिल थे।