जिस प्रकार प्रत्येक साहित्य व भाषा का इतिहास होता है उसी प्रकार उसके व्यकारण का भी इतिहास होता है, चाहे वह हिंदी भाषा हो या दुनिया की कोई और अन्य भाषा। हिंदी साहित्य, भाषा व व्याकरण का इतिहास तो है, परन्तु इसके आरंभिक लेखक या प्रथम लेखक का विवाद सर्वत्र बना हुआ है। हिंदी साहित्य का आरम्भ कुछ विद्वान् चंदबरदाई (पृथ्वीराज रासो) से मानते हैं; तो कुछ मुनि शालिभद्र्सूरी (भरतेश्वर बाहुबली रास), सरहप्पा, गोरखनाथ, स्वम्भू आदि से। ठीक इसी प्रकार हिंदी व्याकरण के सन्दर्भ में भी है। कुछ विद्वान जान जोशुआ केटेलर (हिन्दुस्तानी ग्रामर) को हिंदी का प्रथम वैयाकरण मानते हैं तो कुछ लोग मिर्ज़ा खाँ (ब्रजभाषा-व्याकरण) को। कुछ-एक विद्वान तो दामोदर पंडित (उक्ति-व्यक्ति-प्रकरण) को मानते हैं। साथ ही कुछ एक व्याकरणाचार्यों ने तो इसे अँधेरे में ही छोड़ दिया। इनमें मुख्य रूप से कामताप्रसाद गुरु का नाम लिया जाता है। इनके शब्दों में- “हिंदी व्याकरण का प्रारंभिक इतिहास अन्धकार में पड़ा हुआ है। हिंदी भाषा के पूर्वरूप अपभ्रंश का व्याकरण हेमचन्द्र ने 12वीं सदी में लिखा, पर हिंदी व्याकरण के प्रथम आचार्य का पता नहीं लगता।” [1]
हिंदी व्याकरण का इतिहास लिखने की कोशिश कुछ विद्वानों ने की और उसमें उनको सफलता भी मिली है। परन्तु हिंदी के आदि वैयाकरण का रास्ता अभी तक स्पष्ट नहीं हो पाया। चाहे वह व्याकरण –इतिहास लेखक अनंत चौधरी (हिंदी व्याकरण का इतिहास) हों, पं. रामदेव त्रिवेदी (व्याकरण का इतिहास) हों या अन्य। पं. रामदेव त्रिवेदी जी ने तो कामता प्रसाद गुरु जी की तुलना नागेश भट्ट से करते हुए हिंदी का आदि वैयाकरण ही मान लिया है। [2] प्रश्न चाहे जो भी हो परन्तु हिंदी साहित्य का आरंभ लगभग 10वीं सदी के आस-पास माना गया है और उसका व्याकरण लगभग 17वीं सदी के आस पास माना गया है। अधिकांश व्याकरण लेखकों ने इसी पर सहमती भी जताई है। खुद अनंत चौधरी लिखते हैं- “ हिंदी व्याकरण का निर्माण-कार्य, हिंदी भाषा के उद्भव के लगभग 7 सौ वर्ष बाद, सतरहवीं सदी के अंतिम चरण में, हिंदी गद्य के सूत्रपात के साथ ही हुआ।” [3]
यह तथ्य बिलकुल सही है कि व्याकरण भाषा का अनुगामी होता है। पर किसी भाषा के विकसित होने के 700 सौ वर्ष बाद उसका व्याकरण विकसित हो, यह तथ्यात्मक जानकारी भाषा के लिए फिट नहीं बैठती। इसके मुख्य रूप से दो कारण हो सकते हैं – पहला ये कि भाषा के साथ ही व्याकरण लेखन का कार्य तो चल रहा होगा परन्तु उसका साक्ष्य हमारे पास मौज़ुद नहीं है। और दूसरा हिंदी भाषा बिखरी पड़ी थी जैसे कि ब्रज, अवधी, मगही, राजस्थानी आदि इन सबका अलग-अलग अस्तित्व भी था। इसीलिए व्याकरण-लेखन इन सभी साहित्यों का अलग-अलग लिखा जाने के कारण हिंदी का कोई प्रमाणिक व्याकरण नज़र नहीं आ रहा था।
आरंभिक हिंदी वैयाकरणों में ज्यादातर विदेशी विद्वान् हैं जैसे कि जॉन जोशुआ केटेलर (Hindustani Grammar), बेंजामिन शुल्जे (Grammatica Hindostanika), जार्ज हाडले (A Grammar of the Hindustani Language), जॉन फर्गुसन (A Dictionary of English Hindustani), जॉन वार्थविक गिलक्रिस्ट (A Grammar of Pure and Mixed East Indian Dialects), हेरासिम लेवडेफ़ (A Grammar of the Hindustani Language), जॉन शेक्सपियर (Hindustanee Grammar), विलियम येट्स (Introduction to the Hindustane language), ऍम.टी.आदम (A Hindi Grammar), गार्सा दी तासी (Rudimets the law Langui Hinsostani) आदि हैं।
हिंदी के आरंभिक व्याकरण के सम्बन्ध में प्रसिद्ध भाषाविद् सुनीति कुमार चटर्जी (द्विवेदी अभिनन्दन-ग्रंथ’ एवं हिंदुस्तान का सबसे प्राचीन इतिहास) तथा जार्ज ग्रियर्सन (भारत का भाषा सर्वेक्षण) के प्रमाण के आधार पर जॉन जोशुआ केटेलर के ‘हिंदी ग्रामर’(1698 ई.) को हिंदी का प्रथम वैयाकरण एवं व्याकरण के रूप में तरजीह दिया जा सकता है। परन्तु मिर्जा खाँ ने भी सन् 1676 में ‘ब्रजभाषा-व्याकरण’ की रचना की थी; जिसको देखने से निश्चित अनुमान होता है कि हिंदी व्याकरण के निर्माण की परम्परा केटेलर के भारत आगमन के बहुत पूर्व शुरू हो गई होगी। आज केटेलर के पूर्व का कोई हिंदी-व्याकरण उपलब्ध नहीं है ; किन्तु यह इस बात का निश्चित प्रमाण नहीं माना जायेगा कि उसके पूर्व किसी अन्य व्याकरण की रचना ही नहीं हुई होगी। [4] अगर मिर्ज़ा खाँ के ब्रजभाषा-व्याकरण को छोड़कर देखें तो केटेलर से लेकर लगभग 170-175 वर्षों तक केवल विदेशियों के द्वारा हिंदी-व्याकरण लिखा जाता रहा। परन्तु इसके मूल में हम गहराई से विचार करें तो पता चलता है कि 12वीं सदी के आस-पास पं. दामोदर दास द्वारा उक्त-व्यक्ति-प्रकरण भी लिखा जा चुका था। जिसको मूल रूप से हिंदी-व्याकरण का पहला ग्रंथ कह सकते हैं। सुनीति कुमार चटर्जी ने इसका रचना काल 12वीं शती का पूर्वार्ध माना है। [5]
इन्टरनेट पर उपलब्ध श्रोत के अनुसार- “उक्ति-व्यक्ति-प्रकरण दामोदर पंडित द्वारा रचित हिंदी व्याकरण का पहला ग्रंथ है। हिन्दी व्याकरण के इतिहास में इसका महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसका रचना काल १२वीं शती का पूर्वार्द्ध माना जाता है। प्राचीनतम हिन्दी-व्याकरण सत्रहवीं शताब्दी का है, जबकि साहित्य का आदिकाल लगभग दशवीं-ग्यारहवीं शताब्दी से माना जाता है। ऐसी स्थिति में हिन्दी भाषा के क्रमिक विकास एवं इतिहास के विचार से बारहवीं शती के प्रारम्भ में बनारस के दामोदर पंडित द्वारा रचित द्विभाषिक ग्रंथ 'उक्ति-व्यक्ति-प्रकरण' का विशेष महत्त्व है। यह ग्रंथ हिन्दी की पुरानी कोशली या अवधी बोली बोलने वालों के लिए संस्कृत सिखाने वाला एक मैनुअल है, जिसमें पुरानी अवधी के व्याकरणिक रूपों के समानान्तर संस्कृत रूपों के साथ पुरानी कोशली एवं संस्कृत दोनों में उदाहरणात्मक वाक्य दिये गये हैं। [6] ” जाहिर है इन तथ्यों के आधार पर कह सकते हैं कि ‘उक्ति-व्यक्ति-प्रकरण’ अवधी भाषा का व्याकरण-ग्रन्थ है। कुछ इसी तरह उस दौरान और भी व्याकरण लिखे जाते रहे होंगे, जिसका प्रमाण न होने के कारण हमारे संज्ञान में नहीं है। पर यह बात दावे के साथ कही जा सकती है कि निश्चित रूप से हिंदी व्याकरण के परम्परा के निर्माण में अवधी, ब्रज, राजस्थानी, कन्नौजी, मैथिली, भोजपुरी आदि सभी बोलियों के व्याकरण-ग्रंथों का महत्वपूर्ण योगदान है। डॉ. राम विलास शर्मा ने तो दामोदर पंडित और उनके ग्रन्थ ‘उक्ति-व्यक्त-प्रकरण’ के बारे में लिखा है कि- “दामोदार पंडित ने जब अवधी के माध्यम से बालकों को संस्कृत पढ़ाने का कार्य किया, तब उन्होंने संस्कृत से समकालीन जनपदीय भाषा अवधी की एक नयी कड़ी जोड़ दी। संस्कृत के रूप परिवर्तित होकर अवधी के रूप बने हैं, यह तुलनात्मक ऐतिहासिक दृष्टि उनके उक्ति-व्यक्ति-प्रकरण में निहित है। उनके बाद हेमचन्द्र ने प्राकृत अपभ्रंश का व्याकरण लिखते समय देशी शब्दों की जो सूची बनाई, वह उन्ही जनपदीय भाषाओँ के क्रम में है।” [7]
अगर हिंदी भाषा के विकास की परम्परा संस्कृत से मान भी लें तो यह किस बात का प्रमाण है कि जॉन जोशुआ केटेलर भारत के विभिन्न क्षेत्रीय भाषाओँ की जानकारी अन्य किसी भारतीय विद्वान् से ज्यादा थी। जबकि ऐसा नहीं है कि कुछ विद्वान् अन्य क्षेत्रीय भाषाओँ के मध्यमम से वंचित रहें होंगे। इसलिए उक्ति-व्यक्ति-प्रकरण को ही हिंदी भाषा का प्रथम व्याकरण व इसके लेखक पंडित दामोदरदास को प्रथम वैयाकरण माना जाना चाहिए।
जॉन जोशुआ केटेलर कृत ‘हिन्दुस्तानी ग्रामर’ (Hindustanee Grammar) का अगर हम अध्ययन करें तो यह मूल रूप से डच भाषा में लिखा गया है। तत्पश्चात लैटिन भाषा में अनुवाद किया गया। बाद में सुनीति कुमार चटर्जी द्वारा लन्दन विश्वविद्यालय में अध्ययन के दौरान अंग्रेजी में अनुवाद करके प्रकाशित करवाया गया और इसके काफी लम्बे समय बाद हिंदी में श्री मैथ्यूवेच्चर ने ‘हिंदी के तीन प्रारंभिक व्याकरण’ नाम से सम्पादित किया गया जिसमे यह लिखा गया है कि- “केटेलर हालैंड की ईस्ट इंडियन कम्पनी के एल.ची. थे और उनको सूरत से दिल्ली, आगरा और लाहौर आना पड़ता था। ग्रियर्सन साहब का अनुमान है कि सन 1715 ई. के करीब केटेलर ने रचा होगा ” [8]
एक दूसरी दृष्टि से भी विचार करें तो आचार्य कामता प्रसाद गुरु ने ‘हिंदी व्याकरण’ की भूमिका में लिखा है- “हिंदी भाषा के लिए वह दिन सचमुच बड़े गौरव का होगा, जब इसका व्याकरण अष्टाध्यायी और महाभाष्य के मिश्रित रूप में लिखा जायेगा।” [9] क्या इस तथ्य का मतलब ये निकाला जाय कि अब तक के सभी व्याकरण अधूरे हैं और हिंदी का व्याकरण अभी तक तैयार नहीं हुआ; इसलिए हिंदी के आदि वैयाकरण की चर्चा करना तर्कसंगत नहीं है? या फिर ये कहें कि हिंदी अब संस्कृत से बहुत दूर हो चुकी है इसलिए अष्टाध्यायी और महाभाष्य के आधार पर कम से कम ‘हिंदी-व्याकरण’ लेखन संभव नहीं है ? आज के इस दुनिया में नामुमकिन नाम की कोई चीज़ नहीं होती। इसलिए हम यह मानकर चलें कि अब तक के हिंदी-व्याकरण लेखन ने अपनी परम्परा और स्रोत के साथ-साथ भाषिक-परिवर्तन के आधार पर अब तक के व्याकरण लिखे जाते रहे पर इन सभी व्याकरणों में एक कमी जो बार-बार महसूस की जाती रही वह है- हिंदी की अब तक की सम्पूर्ण साहित्यिक परम्परा को किसी एक व्याकरण की नज़र से देखना। यानी चंदबरदाई के ‘पृथ्वीराज रासो’ से लेकर 21वीं सदी के रचनाकारों के रचनाओं को संक्षेप में ही एक वृहत दृष्टिकोण से देखा जा सके। जिससे न सिर्फ उस भाषा का व्याकरणिक पक्ष मजबूत होगा बल्कि साहित्य, भाषा व व्याकरण आदि में समानता का स्वर भी एक नए नज़र से दिखाई पड़ेगा। कुछ इसी तरह का चिंतन आचार्य रामदेव त्रिपाठी ने भी दिया है, उनके शब्दों में- “प्रायः सभी प्राप्त हिंदी व्याकरण केवल केन्द्रीय खड़ी बोली के व्याकरण हैं, उनमे मैथिली, भोजपुरी, मगही, ब्रज, राजस्थानी आदि से तुलना नहीं है। नसफिल्ड ने भी ने भी अपने व्याकरण में अंग्रेजी के पुरातन तथा क्षेत्रीय सभी रूपों का नहीं, केवल केन्द्रीय, टकसाली, राजकीय अंग्रेजी का ही विवरण दिया है। ऐसे हिंदी व्याकरण की आवश्यकता है, जिसमे विद्यापति, खुसरो, चंदवरदाई, कबीर, अथवा कम से कम सदल मिश्र, लल्लू जी लाल, इंशा अल्ला खाँ प्रभृति तक के काल से लेकर आज तक के तथा पंजाब से लेकर बिहार और हिमालय के पहाड़ी के प्रदेशों से लेकर राजस्थान तक की सभी क्षेत्रिय भाषाओँ के अंतरों की भी संक्षिप्त चर्चा हो। उदाहरण के लिए पहड़ी हिंदी में- ‘हमने ज ना है’, को केन्द्रीय हिंदी में- ‘हमको जाना है’। राजस्थानी, पंजाबी हिंदी में बोलते हैं तेरे को, मेरे को, केंद्रीय हिन्दी में तुझको, मुझ को’। ........... .... ...... ये सब अंतर हिंदी के अनेक भागों में विभक्त विस्तृत व्याकरण ग्रन्थ में दिखाए जाने चाहिए , जिसका प्रणयन कोई एक व्यक्ति नहीं, एक लेखक मंडल करे , जिसमे हिंदी के प्रत्येक अंचल के एक-एक वैयाकरण सदस्य हों।” [10]
जाहिर है समय की परिवर्तनशीलता के साथ विचारों में बदलाव स्वाभाविक हो जाता है। इसलिए ‘सूचना-क्रांति’ के इस दौर में वैश्वीकरण का झंडा बुलंदी पर है और ऐसे समय में वैश्वीकरण के इस दौर में उपजे भाषाई घाल-मेल न सिर्फ व्याकरण पक्ष पर एक नये सिरे से विचार करने का मौका प्रदान कर रहे हैं बल्कि भाषा, साहित्य, कोश आदि के प्रति पुनर्जागरण का भाव भी पैदा कर दिया है। परन्तु यह भाव भी साहित्य, भाषा आदि कि अस्मिता को लेकर नहीं है बल्कि ज्ञान-विज्ञान आदि किसी भी क्षेत्र में पूरे विश्व में किसी तरह का कोई बंधन न हो।
अभी हाल में जापान से तेज के. भाटिया व के. मैकिदा के सम्पादन में छपी पुस्तक The Oldest Grammar of Hindustani (3 part) में भी जॉन जोशुआ केटेलर को ही हिंदी का प्रथम वैयाकरण घोषित किया गया है। इससे पहले सं 1935 ई. में जे.पी. वागेल ने एक लेख लिखा था- ‘Ketelar of Elbing : Author of First Hindustani Grammar’ शीर्षक से, जो लन्दन विश्वविद्यालय से प्रकाशित हुई थी इसमें भी ‘केटेलर’ को ही हिंदी भषा का प्रथम वैयाकरण सिद्ध किया गया। सन 1000ई. – 1700ई. के बीच भारत में हिंदी भाषा में एकरूपता का अभाव था, अलग-अलग कोटि में साहित्य की रचनाएं हो रही थी; इसलिए व्याकरण-लेखन भी अलग-अलग रूपों में चल रहा होगा और शायद इसीलिए ‘उक्ति-व्यक्ति-प्रकरण’ को हिंदी व्याकरण परम्परा का आदि-ग्रन्थ मानना ज्यादा तर्कसंगत लगता है।
संदर्भ
[1] कामता प्रसाद गुरु – हिंदी व्याकरण पृष्ठ सं. 7, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली प्रथम संस्करण 2010
[2] पं. रामदेव त्रिवेदी – व्याकरण का इतिहास पृष्ठ सं.(स्रोत अनंत चौधरी – हिंदी व्याकरण का इतिहास )
[3] डॉ. अनंत चौधरी – हिंदी व्याकरण का इतिहास पृष्ठ सं. 151, बिहार हिंदी ग्रन्थ अकादमी, पटना
[4] डॉ. अनंत चौधरी – हिंदी व्याकरण का इतिहास पृष्ठ सं. 159 बिहार हिंदी ग्रन्थ अकादमी, पटना
[5] सुनीति कुमार चटर्जी (जनवरी 2002), सिन्धी जैन ग्रंथमाला, ग्रंथांक 39, लेख का शीर्षक- पंडित दामोदर विरचित ‘उक्ति-व्यक्ति-प्रकरण’, भारतीय विद्या भवन मुंबई पृष्ठ सं. 6
[6] hi.wikipedia.org/wiki/ उक्ति - व्यक्ति - प्रकरण
[7] डॉ. रामविलास शर्मा – भारत के प्राचीन भाषा परिवार और हिंदी (खंड 3) पृष्ठ सं.265, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली प्रथम संस्करण, 1981
[8] श्री मैथ्यूवेच्चर – हिंदी के तीन प्रारंभिक व्याकरण, संत पौलुस प्रकाशन, इलाहाबाद(1976)
[9] कामता प्रसाद गुरु – हिंदी व्याकरण पृष्ठ सं. 6, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली प्रथम संस्करण 2010
[10] आचार्य रामदेव त्रिपाठी - हिंदी भाषानुशासन पृष्ठ सं. 68, बिहार हिंदी ग्रन्थ अकादमी, पटना प्रथम संस्करण, मई 1986
विक्रम गुप्ता : दिल्ली विश्वविद्यालय में शोधार्थी हैं। संपर्क : vikramgupta88@yahoo.com