अनुवाद के लिए मशीन और मानव में समन्वय जरूरी
संस्थान के ‘अनुसंधान एवं भाषा विकास विभाग’ द्वारा दिनांक 06-07 अक्टूबर, 2025 को “अनुवाद एवं मशीनी अनुवाद : भाषा, तकनीक और भविष्य” विषय पर संस्थान के अटल बिहारी वाजपेयी अंतरराष्ट्रीय सभागार में दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया। संगोष्ठी के उद्घाटन-सत्र में आमंत्रित वक्ता के रूप में पधारे प्रो. विनोद कुमार मिश्रा, अधिष्ठाता, त्रिपुरा विश्वविद्यालय एवं पूर्व महासचिव, विश्व हिंदी सचिवालय (मॉरीशस), बीज वक्ता के रूप में पधारे प्रख्यात समाजविज्ञानी एवं साहित्यकार डॉ. नंदकिशोर आचार्य, उद्घाटन सत्र के अध्यक्ष, केंद्रीय हिंदी शिक्षण मंडल, आगरा के माननीय उपाध्यक्ष प्रो. सुरेंद्र दूबे, संस्थान के निदेशक प्रो. सुनील बाबुराव कुलकर्णी, शैक्षिक समन्वयक प्रो. हरिशंकर, संगोष्ठी संयोजक डॉ. अरिमर्दन कुमार त्रिपाठी के साथ देश के अनेक विद्वान, शोधार्थी एवं छात्र उपस्थित रहे।
कार्यक्रम का शुभारंभ माँ सरस्वती की प्रतिमा के समक्ष दीप प्रज्जवलन एवं माल्यार्पण कर किया गया। संस्थान के विद्यार्थियों द्वारा सरस्वती वंदना और संस्थान गीत के पश्चात् संगोष्ठी के संयोजक डॉ. अरिमर्दन कुमार त्रिपाठी, विभागाध्यक्ष, अनुसंधान एवं भाषा विकास विभाग ने स्वागत वक्तव्य प्रस्तुत किया तथा सभी अतिथियों का स्वागत करते हुए आधार-पत्र एवं संस्थान परिचय भी प्रस्तुत किया, जिसमें अनुवाद के वर्तमान परिदृश्य, उसकी चुनौतियों और भविष्य की संभावनाओं पर गहन चिंतन पर जोर दिया। इसी क्रम में डॉ. त्रिपाठी ने अनुवाद के क्षेत्र में वर्तमान में हो रहे कार्यों और केंद्रीय हिंदी संस्थान की भूमिका को रेखांकित किया। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि आज की चर्चा विलियम जोंस या मैक्समूलर की भूमिकाओं से हटकर अनुवाद एवं ज्ञान संरक्षण की वर्तमान चुनौतियों और संभावनाओं पर केंद्रित होनी चाहिए। उन्होंने एशियाटिक सोसाइटी के गठन पर एक मुकम्मल बहस की आवश्यकता पर भी बल दिया। डॉ. त्रिपाठी ने ‘मंत्र’, ‘अनुवाद सिस्टम’ के साथ-साथ ‘भाषिणी’ और ‘अनुवादिनी’ जैसे आधुनिक अनुवाद प्रणालियों की सराहना की, लेकिन साथ ही इनमें आगे की संभावनाओं पर विचार करने की महत्ता पर भी बल दिया।
अपने बीज वक्तव्य में डॉ. नंदकिशोर आचार्य ने अनुवाद को पूरी दुनिया में संवाद और मेलजोल के लिए एक अनिवार्य साधन बताया। उन्होंने कहा कि यह मानव के संवेदनात्मक जुड़ाव का कारक है और अपनी भाषा में विचारों व संवेदनाओं के अभाव की पूर्ति तथा भाषिक न्याय हेतु इसकी महती आवश्यकता है। डॉ. आचार्य ने विशिष्ट रूप से बताया कि आधुनिक वैचारिक अनुवादों में भाषिक बाधाएँ कम आती हैं, जबकि संवेदनात्मक पैटर्न के अनुवाद की चुनौतियाँ अधिक होती हैं। उन्होंने कई सफल अनुवादों का जिक्र करते हुए ‘भाषिक मिजाज़’ के मेल को अनुवाद में अत्यंत महत्त्वपूर्ण बताया। उनके अनुसार प्रत्येक अनुवाद एक व्याख्या है और इसे किस दृष्टिकोण से देखा जाता है यह महत्त्वपूर्ण है। उन्होंने अनुवाद को संरचनात्मक रूप से कठिन कार्य बताया, जिसमें हिंदी की जटिल से जटिल बातों का अनुवाद करने की क्षमता पर विश्वास व्यक्त किया। डॉ. आचार्य ने अनुवादक की ज़िम्मेदारी पर जोर देते हुए कहा कि अनुवाद देश और समाज की मूल चेतना या मूल्यों के विरुद्ध नहीं जाना चाहिए। उन्होंने विभिन्न शब्दों के अर्थ के आधार पर अनुवाद की बारीकियों को समझाया और लोकप्रिय शब्दावली के प्रति सचेत रहने की सलाह दी, क्योंकि अनुवाद एक अत्यंत ज़िम्मेदारी का कार्य है, जिसके लिए निष्ठा आवश्यक है। उन्होंने यह भी जोड़ा कि मशीन द्वारा किए गए एकल अनुवाद की तुलना में एक से अधिक मानव अनुवादों की आवश्यकता होती है, क्योंकि मशीन केवल एक ही तरह का आउटपुट देती है।
संस्थान के निदेशक प्रो. सुनील बाबुराव कुलकर्णी ने सत्र के दौरान पुरातन भाषाओं से लेकर संविधान में निहित भाषाओं के अनुवाद पर गहन विचार प्रकट किए। उन्होंने इस बात पर बल दिया कि भारतीय भाषाओं का हिंदी अनुवाद अपेक्षित मात्रा में न होने के कारण भारत की समग्रता को समझना मुश्किल हुआ है। उन्होंने मराठी से हिंदी में हुए ‘ज्ञानेश्वरी’ के अनुवाद को पहला ऐतिहासिक अनुवाद बताते हुए मानव अनुवादक की आवश्यकता और मशीन की महत्ता दोनों के बीच संतुलन स्थापित करने पर अपने विचार व्यक्त किए।
सत्र के आमंत्रित वक्ता त्रिपुरा विश्वविद्यालय के अधिष्ठाता एवं विश्व हिंदी सचिवालय, मॉरीशस के पूर्व महासचिव प्रो. विनोद कुमार मिश्र ने कहा कि अनुवाद के बिना शेष भारत को समझना असंभव है। उन्होंने स्पष्ट किया कि अनुवाद भारत और भारतीयता को साहित्य के माध्यम से समझने के लिए एक आवश्यक माध्यम है। उन्होंने भाषायी प्रकृति पर प्रकाश डालते हुए उदाहरणों के साथ अपनी बात समझाई। प्रो. मिश्र ने समृद्ध शब्दावली की आवश्यकता पर बल दिया और कहा कि हमें पारंपरिक अनुवादक तैयार करने होंगे, ताकि मशीन पर निर्भरता कम हो, क्योंकि भारतीय भाषाएँ स्वयं को अभिव्यक्त करने में पूर्णतः दक्ष और संपन्न हैं।
संस्थान के शैक्षिक समन्वयक प्रो. हरिशंकर ने अपनी बात रखते हुए कहा कि अनुवाद की गहराई से चर्चा होनी चाहिए, जिससे भाषायी जीवंतता बनी रहे। उन्होंने व्यावहारिक समस्या बताते हुए कहा कि कई बार संगोष्ठियों के ब्रोशर आदि में हिंदी का अनुवाद इतना अस्पष्ट होता है कि मूल अंग्रेज़ी पाठ को देखना पड़ता है। उन्होंने स्वीकार किया कि अनुवाद की यात्रा अभी भी विकासशील अवस्था में है।
सत्र के अध्यक्ष प्रो. सुरेंद्र दुबे ने अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में अनुवाद की भाषा, उसकी प्रामाणिकता और संप्रेषणीयता पर विस्तृत चर्चा की। उन्होंने श्रेष्ठ अनुवादक को शब्द के निकटतम अर्थ तक पहुँचने वाली एक महत्त्वपूर्ण कड़ी बताया और भाषिक अभेद्यता को पहचानने की आवश्यकता पर ज़ोर दिया। प्रो. दुबे ने तकनीकी प्रगति का स्वागत करते हुए भी मशीन की सीमाओं को रेखांकित किया और यह चेतावनी भी दी कि हमें इस बात की चिंता करनी होगी कि कहीं मशीन मनुष्य न हो जाए।
इस उद्घाटन सत्र में पधारे अतिथिगण, संस्थान के सभी विभागाध्यक्ष, प्रशासनिक अधिकारी, अनुभाग अधिकारी, विद्यार्थीगण आदि उपस्थित रहे। उद्घाटन सत्र का संचालन डॉ. पुरुषोत्तम पाटील तथा आभार डॉ. परमान सिंह ने दिया।
प्रथम अकादमिक सत्र की अध्यक्षता प्रो. विनोद कुमार मिश्र, अधिष्ठाता, त्रिपुरा विश्वविद्यालय एवं पूर्व महासचिव, विश्व हिंदी सचिवालय, मॉरीशस ने की। इस सत्र में विषय प्रवर्तन करते हुए डॉ. उमाकांत चौबे ने ‘हिंदी नवजागरण एवं अनुवाद’ विषय पर अपनी बात रखी, जिसमें उन्होंने कहा कि अनुवाद एक सतत चलने वाली प्रक्रिया है और संस्कृति के विकास एवं प्रचार-प्रसार में अनुवाद की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। अनुवाद के कारण ही हमारे शास्त्रीय साहित्य देश की सीमाओं के परे भी गया। उन्होंने रोबोट शब्द की उत्पत्ति के विषय पर भी बात की। उन्होंने अनुवाद की भूमिका पर बात करते हुए यह भी कहा कि यदि भारतेंदु बांग्ला का हिंदी में अनुवाद न करते तो शेष भारत बांग्ला साहित्य से परिचित न होता। उन्होंने इस प्रकार के कई उदाहरणों के द्वारा अनुवाद की भूमिका और उसकी प्रक्रिया पर समेकित रूप से अपने विचार प्रकट किए। इस सत्र में पत्र प्रस्तोता डॉ. नीलम यादव ने अपने विषय ‘भोजपुरी मुहावरों का अनुवाद, समस्याएँ व समाधान’ पर चर्चा की। डॉ. नीलम ने कहा कि कई बार अनुदित कृति को पढ़ने से उसका भाव ख़त्म हो जाता है। उन्होंने स्वयं द्वारा ‘एक पल’ कहानी के अनुवाद को भावात्मक बनाये रखने के अपने कार्य के बारे में बताया। आपने कहा कि अनुवाद करते हुए सभी को मूल कहानी के भावों को बनाये रखना चाहिए। अनुवाद करते समय अच्छे शब्दों का प्रयोग करना चाहिए। आपने मुहावरों का समाज की भाषा कहते हुए इसे समाज की रीढ़ कहा। भोजपुरी मुहावरों की विशेषता यह है कि ये जीवन की व्यावहारिकता से संबंधित होते है। भोजपुरी मुहावरे साँस्कृतिकता से जुड़े होते है। आपने बहुत सारे मुहावरों का जिक्र करते हुए समझाया कि इनका अंग्रेजी अनुवाद इनके साथ न्याय नहीं कर पाता। अतः न्याय कराने के लिए भाव, शब्दों तथा संस्कृति आदि को समझना जरूरी है। अतः अनुवादक को संवेदनात्मक तथा भावात्मक होना चाहिए, जिससे अर्थ का अनर्थ ना हो। अगले प्रपत्र के तहत डॉ. शालिनी श्रीवास्तव का विषय ‘अनुवाद की साहित्यिक महत्ता में चुनौती है मशीनी अनुवाद’ रहा। इसमें डॉ. शालिनी ने कहा कि अनुवाद मशीन के माध्यम से हो तो रहा है, पर कितना सही हो रहा है इसका अध्ययन होना जरूरी है। आपने मशीन साधित अनुवाद के द्वंद्व का उल्लेख करते हुए कहा कि किसके अनुवाद में गुणवत्ता, उत्पादकता एवं व्यावसायिक सुरक्षा ज़्यादा पायी जाती है इस पर ध्यान देने की ज़रूरत है। आपने कहा कि साहित्यिक क्षेत्र को छोड़कर अन्य क्षेत्रों में मशीनी अनुवाद अच्छा हो सकता है जैसे- बैंकिंग, व्यापार, रेलवे, कॉर्पोरेट आदि। आपने कहा कि साहित्यिक अनुवाद मानवीय संबंधों और संवेदनाओं के व्यापक फैलाव में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। साहित्यिक अनुवाद में 3 महत्त्वपूर्ण बिंदु है- समतुल्यता, संप्रेषणीयता, सृजनात्मकता। आपने कहा कि कुछ साहित्यिक अनुवाद हूबहू भावों के साथ हुई है, जो एक सराहनीय कार्य है। फिर भी हमें अनुवाद करते समय मूल तत्त्वों को ध्यान रखना चाहिए, जिसे सिर्फ़ मानव अनुवाद द्वारा ही सही अर्थ में अनुवादित किया जा सकता है, इसमें गूगल अनुवाद से बचना चाहिए, क्योंकि वह भाव के आधार पर अनुवाद नहीं करता है। परंतु मशीनी अनुवाद आज के बदलते समाज की माँग है पर इसे मानव अनुवाद द्वारा संशोधित किया जाना चाहिए। इस सत्र की अध्यक्षता करते हुए प्रो. विनोद कुमार मिश्रा ने अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में कहा कि हर मुहावरे का अनुवाद नहीं किया जा सकता, क्योंकि वह लोक भाव द्वारा विकसित होता है। आपने कहा कि भावुक होकर अनुवाद नहीं करना चाहिए बस अर्थ को समझकर अनुवाद करना चाहिए। मशीन एवं मानव अनुवाद, दोनों की महत्ता अपनी-अपनी जगह है। अतः सामंजस्यता बनाकर चलना चाहिए। सत्र का संचालन डॉ. अनामिका गुप्ता एवं आभार डॉ. तस्मीना हुसैन ने दिया। इस क्रम में द्वितीय अकादमिक का विषय ‘अनुवाद का साँस्कृतिक आयाम’ था और इस सत्र की अध्यक्षता डॉ. विश्वास पाटील, महाराष्ट्र ने की। इस सत्र में विषय प्रवर्तन करते हुए दिल्ली विश्वविद्यालय से पधारे डॉ. आशुतोष मिश्रा ने ‘अनुवाद की साँस्कृतिक भूमिका’ विषय पर अपनी बात रखी। उन्होंने कहा कि रामकथा में अवधी भाषी राम और गोंडी भाषी सुग्रीव के बीच संवाद को अनुवाद के रूप में व्याख्यायित करते हैं। उसमें हनुमान की भूमिका पर बात की और उन्हें पहला साँस्कृतिक अनुवादक कहा। पराजित पोरस को सिकंदर के सामने लाने के बाद 300 वर्ष पूर्व के इतिहास को अनुवादक ने नई भूमिका दी। उन्होंने साँस्कृतिक शब्दावली पर बल दिया। किसी प्रसंग में स्त्री के ‘अबला’ पर्याय के चयन की मानसिकता को महत्त्वपूर्ण बताया। अनुवाद की राजनीति, अनुवाद की प्रक्रिया में स्रोत-भाषा की कृतज्ञता का भाव, भाषा वर्चस्व और ज्ञान को हड़पने का भाव भी होता है। उन्होंने कहा कि इतिहास आख्यानों में लिखा जाता था, जिसका अब पश्चिमीकरण हो गया है, जिसके कारण उसमें साँस्कृतिक भाव नहीं मिलते। अवधारणा के तर्कशास्त्र का अनुवाद करने से परेशानी पैदा होती है। समतुल्यता का संकट हमेशा बना रहेगा। गतिशील समतुल्यता ही इसका समाधान है। उन्होंने अपनी बात रखते हुए चंद्रमा जैसे अनुवादक होने पर जोर दिया जो सूर्य की गर्मी से चाँदनी रात करता है। आगे इस सत्र में त्रिपुरा से पधारे डॉ. आलोक कुमार पाण्डेय ने ‘त्रिपुरा का भाषाई वैविध्य : अनुवाद की उपादेयता’ विषय पर चर्चा की। आपने बताया कि त्रिपुरा भाषा का सर्वाधिक अनुवाद बांग्ला में हुआ है। त्रिपुरा की लोक-साँस्कृतिकता व जनजातीय भाषाओं का बहुत अनुवाद हो रहा है, जिससे त्रिपुरा की संस्कृति को राष्ट्रीय एवं वैश्विक स्तर पर संरक्षित किया जा सकता है। अनुवाद से यह पता चलता है कि इससे संस्कृतियों को जोड़ा जा सकता है। त्रिपुरा की जनजाति में बहुत-सी लोककथाएँ पाई जाती हैं, जिनका अनुवाद होने से एकीकरण की भावना विकसित होती है। त्रिपुरा साहित्य तीन क्षेत्रों में बँटा है – पहला लोक साहित्य, दूसरा धार्मिक साहित्य तथा तीसरा रचनात्मक एवं आधुनिक साहित्य। त्रिपुरा का यह साहित्यिक विकास अनुवाद द्वारा वैश्विक स्तर पर पहुँचता रहा है। अगले प्रपत्र में डॉ. अवनीश कुमार, प्रो. शिल्पी कुमारी एवं डॉ. मयंक त्रिपाठी का विषय “मानव बनाम मशीन अनुवाद : सामाजिक संदर्भ, साँस्कृतिक बारीकियों का संरक्षण, भावनात्मक गहराइयों की अभिव्यक्ति और शुद्धता तथा भाषा प्रवाह के संदर्भ में” पर केंद्रित रहा। उक्त पत्र-प्रस्तोताओं ने अपनी परियोजना ‘अटल’ के माध्यम से मानव अनुवाद व मशीनी अनुवाद के प्रयोग की व्यावहारिकता को बताने का प्रयास किया, जिसमें अनुवाद के अंतर्गत सामाजिक संदर्भ, साँस्कृतिक बारीकियों का संरक्षण, भावनात्मक गहराइयों की अभिव्यक्ति और शुद्धता तथा भाषा-प्रवाह में मानव अनुवाद व मशीनी अनुवाद की उपयोगिता पर प्रकाश डाला। इन्होंने कहानी “सह जीवन का धागा” के माध्यम से प्रकृति संरक्षण, पारंपरिक कला और आधुनिक चुनौतियों का अनुवाद में बनाए रखने की संवेदना व भावना को समझाते हुए कहा कि अनुवाद करते समय मशीनी अनुवाद व मानव अनुवाद की तुलना की और पाया कि दोनों अनुवादों में भावनात्मक दूरी पाई जा रही है। अर्थात् मशीनी अनुवाद, शाब्दिक अनुवाद करता है और मानव अनुवाद, संवेदनात्मक पक्षों का अनुवाद करता है। इसमें बताया गया कि अनुवाद में मशीनी अनुवाद, मानव अनुवाद जिसे असमी अनुवाद के रूप में बदला गया, तीनों में ही अनुवाद के भावों में अंतर पाया गया । अतः निष्कर्षतः भावनात्मक व साँस्कृतिक गहराई के रूप में मानवीय अनुवाद तथा शाब्दिक व यांत्रिक अनुवाद के रूप में मशीनी अनुवाद अच्छा है। आगे प्रो. दिग्विजय मां. टेंगसे का विषय ‘मराठी-हिंदी अनुवाद : भाषिक-साँस्कृतिक रूप एवं समस्याएँ’ रहा। इन्होंने मराठी-हिंदी भाषा की समानता बताते हुए कहा कि इनका अनुवाद जितना सरल है, उतना ही क्लिष्ट भी है। आपने अपने अनुवाद के अंतर्गत प्रादेशिकता एवं ग्रामीण परिवेश की समस्याएँ तथा साँस्कृतिक शब्दों, रिश्तों के शब्दों की समस्याओं का भी उल्लेख किया। अंत में डॉ. विश्वास पाटील ने अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में कहा कि मशीनी अनुवाद व मानवीय अनुवाद को स्वभावतः अलग बताया, जिसे हमें स्वीकार करना चाहिए। आपने कहा कि भाषा का ज्ञान, अनुभव व संस्कार ही भाषा का निर्माण करती है, जिसे अनुवादक को भी समझना चाहिए। आज अनुवाद का कार्य लेखक से भी अधिक जोखिम भरा है, क्योंकि उसे भावों और प्रकृति को समझते हुए अनुवाद करना होता है। अनुवाद मात्र भाषिक आदान-प्रदान नहीं होना चाहिए, वरन् साँस्कृतिक आदान-प्रदान होना चाहिए। सत्र का संचालन डॉ. शिखा माहेश्वरी एवं आभार डॉ. शमा ने दिया।
दूसरे दिन तृतीय अकादमिक सत्र का विषय ‘अनुवाद एवं भाषाविज्ञान’ था, जिसकी अध्यक्षता प्रो. शैलेंद्र कुमार सिंह, पूर्वोत्तर पर्वतीय विश्वविद्यालय, शिलांग, मेघालय ने की। इसमें विषय प्रवर्तन करते हुए प्रो. हरीश कुमार सेठी ने ‘अंग्रेजी आर्टिकल A, An, The : हिंदी अनुवाद का परिप्रेक्ष्य’ विषय पर अपनी बात रखी। उन्होंने कहा कि जब दो भाषाएँ अस्तित्व में आईं, तभी से अनुवाद का आरंभ माना जाता है। अनुवाद दो भाषाओं के बीच होने वाली गतिविधि है। मूल अवधारणा यही नहीं है, बल्कि मूलतः अनुवाद के तीन आधार हैं – 1. इंट्रालिंग्वल (एक ही भाषा में अनुवाद करना), जैसे – पद्यांश की व्याख्या, उर्दू भाषा से हिंदी भाषा में अनुवाद। 2. इंटरलिंग्वल अनुवाद, जैसे – दूसरी भाषा में अनुवाद करना। तथा 3. इंटरसेमियोटिक अनुवाद (प्रतीकात्मक अनुवाद), जैसे – एक प्रतीक व्यवस्था से दूसरी प्रतीक व्यवस्था में अनुवाद करना। 4. इंटरमीडिएट अनुवाद, जैसे – एक माध्यम से दूसरे माध्यम में अनुवाद। अनुवादक को दोनों भाषाओं का ज्ञान होना आवश्यक है। मशीनी अनुवाद (ई-अनुवाद, कंप्यूटर अनुवाद), जैसा सॉफ्टरवेयर और जैसा निर्देश कंप्यूटर को दिया जाता है, वह उसी प्रकार उसका अनुवाद करता है। शब्द संचयन और भाषा के व्याकरण को मशीनी अनुवाद का आधार बताया। मशीनी अनुवाद में लक्षणा या अभिव्यंजना में समस्या आती है तथा नियमों और संदर्भों की जानकारी मशीनों को नहीं होती है। सृजनात्मक लेखन और व्यावसायिक लेखन के क्षेत्र में मशीनी अनुवाद अधिक सफल नहीं है। संज्ञा में एकल जाति के लिए The का प्रयोग किया जाता है। और एकवचन को बहुवचन बनाने पर The का प्रयोग किया जाता है। संख्यावाचक शब्दों के साथ A का प्रयोग किया जाता है। हिंदी अनुवाद में आर्टिकल का प्रयोग न करके भी अनुवाद किया जा सकता है। आर्टिकल चुनौतीपूर्ण भाषिक सहायक शब्द हैं। आर्टिकल का प्रयोग अनुवाद करने में समस्या उत्पन्न करता है। इनके प्रयोग संबंधी नियमों को आत्मसात करने की आवश्यकता है, तभी अनुवाद करना सफल होगा। आगे डॉ. गुंजन वर्मा एवं डॉ. अभिजीत प्रसाद का विषय ‘हिंदी क्रियाओं का रूपसाधित बनाम अन्य शब्द-वर्गीय समनामी रूप (मशीनी अनुवाद की एक समस्या के रूप)’ रहा। उन्होंने बताया कि मशीनी अनुवाद का निर्माण करते हैं, तो भाषा संबंधी समस्याएँ आती हैं – 1. साँस्कृतिक समस्या, लोकोक्ति मुहावरों आदि, 2. संधिग्धार्थक समस्या – वाक्य संरचना में एक से अधिक अर्थ निकलना, शब्दस्तरीय संधिग्धार्थक समस्या, चित्रस्तरीय संदिग्धार्थकता समस्या, अनेकार्थकता समस्या। जब किसी एक शब्द का एक से अधिक शब्द निकले, जैसे – हार, पराजय, जो उच्चारण और लेखन में समान होते हैं लेकिन अर्थ भिन्न-भिन्न होते हैं। इनके अनुवाद के लिए नये नियम बनाने की आवश्यकता है। आगे डॉ. सुधांशु कुमार का विषय “बहुभाषिकता और भारतीय भाषाओं में अनुवाद की स्थिति” था। डॉ. सुधांशु ने कहा कि इस शोध-पत्र में बहुभाषिकता में अनुवाद की समस्या को समझने का प्रयास किया गया है। साहित्यिक अनुवाद साँस्कृतिक आदान-प्रदान का सशक्त माध्यम है। आज मीडिया भी मशीनी अनुवाद से प्रभावित है। आज भारत में मशीनी अनुवाद विकास पर है। सभी भाषाओं को समान अवसर देने की बात कही और कहा कि अनुवाद भारतीय भाषाओं को और समृद्ध बनाएगा। अनुवाद संचार की प्रभाविता को सक्रिय बनाता है। बहुभाषिकता राष्ट्र की एकता को बढ़ाने का आधार है। आज अनुवाद केवल साहित्यिक रचनाओं के लिए ही नहीं वरन् सरकारी कामकाज के लिए आवश्यक हो गया है। भाषाई असमानता और क्षेत्रीय भाषाओं की विलुप्तता को बहुभाषिकता की चुनौतियाँ बताया। आगे डॉ. धनंजय कुमार तिवारी एवं राहुल रंजन मिश्रा का विषय “कानूनी भाषा अनुवाद समतुल्यता की समस्याएँ : एक भाषावैज्ञानिक अध्ययन” था। कानूनी भाषा अनुवाद कानूनी दस्तावेजों का एक भाषा से दूसरी भाषा में अनुवाद है। कानूनी भाषा को लीगवीज कहा जाता है। इसमें विशिष्ट शब्दावली का प्रयोग होता है, जो कि अनुवादक के लिए चुनौतीपूर्ण होता है। इनका मशीनी अनुवाद करने पर समतुल्यता नहीं मिलेगी। हमारी अल्पकालिक स्मृति एक समय में सात या आठ शब्दों से लंबे वाक्यों या सूचनाओं को संसाधित नहीं कर सकती। अतः इनका मशीनी अनुवाद सफल नहीं हो सकता है। बाइबिल, कुरान, वेद आदि व्यक्तिगत कानूनों के वास्तविक स्रोत है, अतः इनके लिए भी मशीनी अनुवाद सफल नहीं है। कानूनी भाषा संरचना कठिन होने के कारण इसका अनुवाद करना सहज नहीं होता। आगे हर्ष उरमालिया का विषय “संरचनावाद, विखंडनवाद और अनुवाद” पर केंद्रित रहा। संरचनावादियों ने भाषा को संगठित स्वायत्त के रूप में माना है। भाषा संकेतों और संरचना की प्रतीक व्यवस्था है। अनुवाद केवल भाषा ही नहीं, बल्कि साँस्कृतिक संरचना के आधार पर भी होता है। अनुवादक हर बार पाठ की नई व्याख्या प्रस्तुत करता है। विखंडनवाद में उन्होंने बताया कि अर्थ सदैव अस्थिर एवं परिवर्तनशील होता है। अनुवादक हर बार नये अर्थ को जन्म देता है। अर्थ कभी पूर्ण रूप से उपस्थित नहीं होता, जैसे – मुक्ति का अर्थ हर धर्म में अलग-अलग है। अर्थ उन संकेतों पर भी निर्भर होता है, जो वर्तमान में उपस्थित होते हैं। अतः अनुवादक को वर्तमान अर्थ और संकेतों को भी समझना आवश्यक है। उन्होंने बताया कि अनुवाद बिखरा हुआ है। अतः अनुवाद मूल संदर्भों में उपस्थित रहता है और मूल संदर्भ तभी जीवित रहता है, जब अनूदित होता है। अनुवाद मूल अर्थ को पुनर्स्थापित नहीं कर सकता है। इस प्रकार बहुभाषिकता में अनुवाद के लिए संरचनावाद और विखंडनवाद नई भूमि प्रदान करता है। अंत में प्रो. शैलेंद्र कुमार सिंह ने अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में कहा कि भाषा अनुवाद तकनीक के माध्यम से हम विकसित भारत के लक्ष्य 2047 को प्राप्त करना चाहते हैं। हम एक ऐसे भारत की कल्पना करते हैं, जो आत्मनिर्भर हो और हम यह सोचें कि आत्मनिर्भर भारत की भाषा कैसी होनी चाहिए, इस पर हमें ध्यान देने की आवश्यकता है। अनुवाद में भाषाविज्ञान की भूमिका महत्त्वपूर्ण है। भाषाविज्ञान में अनुवाद को लाने का श्रेय रोमन जैकोव्सन को जाता है। एक अमेरिकी विद्वान के अनुसार – अनुवाद को विज्ञान के रूप में देखने की जरूरत है। अनुवाद का जन्म वहाँ होता है, जहाँ रिक्तता पैदा होती है, अर्थात् बहुभाषिकता के क्षेत्र में पैदा होता है। इक्कीसवीं सदी में हमें सभ्यता के टकराव को भी देखना होगा। क्या हम अनुवाद के माध्यम से नई सभ्यता का निर्माण करना चाहते हैं, यह दुखद है। आधुनिक भाषाविज्ञान की समझ पाणिनि के द्वारा भारत में विकसित हुई है।सत्र का संचालन डॉ. रेणु चौधरी एवं आभार डॉ. दीपामणि बरुआ ने दिया।
चतुर्थ अकादमिक सत्र ‘अनुवाद एवं मशीनी अनुवाद’ पर था जिसकी अध्यक्षता प्रो. राम भावसार, नॉर्थ महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगाँव ने की। इसमें विषय प्रवर्तन करते हुए संयुक्त निदेशक, प्रगत संगणन विकास केंद्र, पुणे का विषय “अनुवाद एवं मशीनी अनुवाद” पर केंद्रित रहा। आपने कहा कि हमारी भारतीय संस्कृति अनुवाद की ही रही है। अनुवाद का शाब्दिक अर्थ उच्चारण है। आपने कहा कि अनुवाद एक द्विभाषीय कार्य है। आपने मशीनी अनुवाद और मानव अनुवाद पर प्रकाश डालते हुए कहा कि दोनों को पूरक के रूप में कार्य करना चाहिए न कि आपस में तुलना करनी चाहिए। आपने बताया की भारतीय भाषाओं को कंप्यूटर पर उतारने का कार्य सी-डेक सॉफ्टवेर ने किया है। आपने अपने प्रस्तुतीकरण में मशीनी अनुवाद का इतिहास बताते हुए कहा की अनुवाद में मशीनी अनुवाद सिर्फ सहयोग के लिए होता है अतः हमें पूर्णतः उसी पर निर्भर नहीं रहना चाहिए। आपने मशीनी अनुवाद की पारंपरिक से आधुनिक तकनीकी पर भी प्रकाश डालते हुए उसके विभिन्न प्रकारों एवं कार्यप्रणाली से अवगत कराया। आपने नियम आधारित, उदाहरण आधारित, सांख्यिकीय अनुवाद तथा तंत्रिका आधारित मशीनी अनुवाद प्रणाली पर विस्तार से चर्चा की। इसके अतिरिक्त मशीनी अनुवाद से संबंधित विभिन्न ऐप की जानकारी दी। आगे डॉ. सोनू, सैनी, एसोसिएट प्रोफेसर जे. एन. यू, दिल्ली का विषय मशीन अनुवाद या कृत्रिम बुद्धिमता (AI) के अनुवाद में प्रयोग और प्रयोग का अनुवाद पर केंद्रित रहा। आपने अपने प्रस्तुति में कहा कि मानवीय अनुवादक की जरूरत कभी खत्म नहीं हो सकती, क्यूँकि भावनात्मक समझ सिर्फ मानवों में ही होती है। इसके लिए आपने बहुत सारे उदाहरणों के माध्यम से बताया कि कई शब्द, मुहावरों या वाक्यों का अनुवाद सामाजिक संस्कृति को ध्यान में रख कर किया जाता है, जिसे मानवीय अनुवादक ही समझ सकता। आगे पत्र-प्रस्तोता आशीष कुमार शाह का विषय ‘अनुवाद सिद्धांत की परंपरा और मशीनी अनुवाद’ पर केंद्रित रहा। आपने अपने प्रस्तुतीकरण में अनुवाद के कई सिद्धांतों पर विस्तार से चर्चा करते हुए कहा कि अनुवाद करते समय कई प्रकार के संरचनात्मकता, व्याकरणीय संरचना एवं भाषायी अर्थ को समझना चाहिए। अध्यक्षता करते हुए प्रो. राम भावसार ने मशीनी अनुवाद का इतिहास बताते हुए कहा कि मशीनी अनुवाद निरंतर भाषायी अधिगम पर आधारित है अर्थात् मशीन भी लगातार सीख रही है फिर भी ये कभी भी मानवीय अनुवाद की जगह नहीं ले सकती। इसलिए मशीनी अनुवाद को एक टूल के रूप में देखना चाहिए। सत्र का संचालन डॉ. अरविंद रावत एवं आभार डॉ. शमा ने दिया।
पंचम अकादमिक सत्र का विषय ‘अनुवाद की परंपरा एवं चुनौतियाँ’ था, जिसकी अध्यक्षता प्रो. देवशंकर नवीन, जे.एन.यू., दिल्ली ने की। विषय प्रवर्तन करते हुएडॉ. विवेकानंद उपाध्याय, असिस्टेंट प्रोफेसर, महिला महाविद्यालय, बी.एच.यू,, वाराणसी का विषय ‘आधुनिक भारतीय भाषाओं में अनुवाद : भारतमाता विषयक कविताओं के हिंदी अनुवाद के विशेष संदर्भ में’ था। आपने कहा कि अनुवाद भी दुनिया के दूसरे कामों की तरह एक काम है। इसलिए दूसरे कामों की तरह अनुवाद में भी समस्या है। साहित्यिक अनुवाद हमेशा कठिन है और कविता का अनुवाद विशेष रूप से कठिन है। मशीनी अनुवाद भी धीरे-धीरे गलतियाँ कम कर देगा, जैसे मनुष्य गलतियाँ करता है। मनुष्य की भूमिका अपनी जगह है और मशीन की भूमिका अपनी जगह। मशीनी अनुवाद में कुशल होने की आवश्यकता है। तकनीक में कुशलता प्राप्त करते हुए उसमें और अधिक जानकारी डालनी होगी, जिससे वह हमारे लिए सहयोगी बन सके। अनुवादक के सामने दृष्टि की नहीं पूरी सृष्टि की बात आती है। हमारी मशीन वही बताएगी, जो हमने उसे सिखाया है। एआई के मानस का भारतीयकरण नहीं किया गया तो यह एक भयावह बीमारी के रूप में हमारे सामने आएगी। पत्र-प्रस्तोताडॉ. सच्चिदानंद स्नेही, सह-अध्यापक, न्यायदर्शन विभाग, केंद्रीय संस्कृत विश्वविद्यालयका विषय “मानव बनाम मशीनी अनुवाद : कानूनी, साहित्यिक और तकनीकी क्षेत्रों में एक तुलनात्मक अध्ययन” था। इन्होंने कहा कि दोनों पक्षों को देखना होगा, मशीनी अनुवाद की आवश्यकता हमें है इसीलिए उस पर कार्य चल रहा है और हम इस बात को भी नहीं नकार सकते कि मशीनी अनुवाद मानव अनुवाद का स्थान नहीं ले सकता। मानव अनुवाद और मशीनी अनुवाद दोनों ही भिन्न हैं। मैं इसके लिए हाइब्रिड मॉडल का सुझाव देता हूँ। आगे उत्कर्ष पांडेय, शोधार्थी, हिंदी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्लीका विषय “मानव बनाम मशीनी अनुवाद : तुलनात्मक अध्ययन” था। इन्होंने कहा कि मानव अनुवाद, मशीनी अनुवाद से इसलिए अच्छा माना जाता है कि मानवीय अनुवाद में भावनाओं और साँस्कृतिक विरासत को सँजोकर रखने की शक्ति है वह मूल भावनाओं को उसी रूप में व्यक्त करने में सक्षम है। अनुवादक संस्कृति का प्रतिनिधि भी होता है। इसी क्रम में विशाल लोधा, शोधार्थी, जे.एन.यू,, नई दिल्लीका विषय ‘अननुवाद्य का अनुवाद : हिंदी लोकोक्तियों एवं लोकज्ञान के संदर्भ में मानव और मशीन का तुलनात्मक विश्लेषण’ था। इन्होंने कहा कि आज के युग में मशीनी अनुवाद बहुत तेजी से विकसित हो रहा है। मशीन शुद्धता को किसी हद तक दिखा सकती है, परंतु संवेदनशीलता तक उसकी पहुँच नहीं है। मशीन व्याकरण रूप से तो सही होती है, परंतु संस्कृति और संवेदनशीलता को पकड़ने में अक्षम है। आगे एम.एस. सरस्वती दुबे, शोधार्थी, हिंदी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय, नई दिल्लीका विषय “मानव बनाम मशीनी अनुवाद : तुलनात्मक अध्ययन” पर केंद्रित रहा। इन्होंने कहा कि मशीनी अनुवाद के आने से भावानुवाद की समस्या बनी हुई है। मानव अनुवाद और मशीनी अनुवाद दोनों ही भिन्न हैं। आगे आनंद कुमार सोनी, शोधार्थी, इग्नू, दिल्लीका विषय “मानव बनाम मशीनी अनुवाद : तुलनात्मक अध्ययन” पर केंद्रित रहा। इन्होंने कहा कि अनुवाद पूरे विश्व को जोड़ने का माध्यम है। आज के आधुनिक युग को एआई क्रांति का युग कह सकते हैं। अनुवाद केवल शब्दों का हस्तांतरण नहीं, बल्कि एक संस्कृति से दूसरी संस्कृति की संप्रेषणीयता है। इसी क्रम में रितिका, शोधार्थी, अनुवाद अध्ययन, इग्नू, दिल्लीका विषय ‘गीतनाट्य के अनुवाद की चुनौतियाँ’ पर केंद्रित रहा। इन्होंने कहा कि गीतनाट्य का अनुवाद केवल भाषिक प्रक्रिया नहीं है। गीतनाट्य की चुनौतियों का स्वीकार करने के लिए मशीनी अनुवाद को अभी समय लगेगा। गीतनाट्य के अनुवाद में अनुवादक को सृजनात्मक पुल का कार्य करना पड़ता है। सत्र की अध्यक्षता करते हुए प्रो. देवशंकर नवीन, जवाहरलाल विश्वविद्यालय, नई दिल्ली ने कहा कि एक अभद्र मनुष्य का भद्र मनुष्य बन जाना अनुवाद है। अनुवाद में सारी समस्याएँ इसलिए उत्पन्न हुई हैं। जीवन को पूर्णता का निष्कर्ष तय करता है, उसका उद्देश्य। मशीनी अनुवाद को हमने अनुवादक समझ लिया, यह हमारी गलती है। मशीनी अनुवाद मानव अनुवाद का काम नहीं कर सकता है। सत्र का संचालन डॉ. रेणु चौधरी एवं आभार डॉ. अनामिका गुप्ता ने दिया।
समापन सत्र में सर्वप्रथम संस्थान के निदेशक, प्रो. सुनील बाबुराव कुलकर्णी, विशिष्ट अतिथि और कुलसचिव के द्वारा माँ सरस्वती की प्रतिमा पर माल्यार्पण किया गया। तत्पश्चात निदेशक द्वारा विशिष्ट अतिथि को उत्तरीय और स्मृति चिह्न देकर स्वागत किया गया। डॉ. अरिमर्दन कुमार त्रिपाठी, संयोजक, राष्ट्रीय संगोष्ठी ने समाहार एवं डॉ. प्रणीता मिश्रा, सहायक आचार्य ने प्रतिवेदन प्रस्तुत किया। विशिष्ट अतिथि प्रो. राजेंद्र प्रसाद पांडेय, प्रोफेसर एवं पूर्व निदेशक, अनुवाद अध्ययन एवं प्रशिक्षण विद्यापीठ, इग्नू, दिल्ली रहे। प्रो. राजेंद्र प्रसाद पांडेय ने कहा कि मशीनी अनुवाद आवश्यक है, परंतु उसे स्वीकार करना अभी कठिन है। अनुवाद में हमें तय करना होगा कि ऑपरेशनल यूनिट क्या है। अनुवादक को किसके प्रति निष्ठावान (शब्द, संस्कृति, भाव) होना होगा। मानव अनुवाद भी शत-प्रतिशत सही नहीं होता, क्योंकि हर भाषा की अपनी प्रवृत्ति होती है, उसका रूपांतरण संभव नहीं है। अनुवाद की गुणवत्ता का मापक – अनुवाद का लक्ष्य ही है पाठ के मूल को दूसरी भाषा में अनुवाद करना, लक्ष्य भाषा में नहीं, लक्ष्य पाठक के लिए अनुवाद किया जाता है।
समापन सत्र की अध्यक्षता कर रहे केंद्रीय हिंदी संस्थान के निदेशक प्रो. सुनील बाबुराव कुलकर्णी ने कहा कि मशीन ने जो तरक्की की है। पच्चीस से तीस वर्ष पहले जो बातें काल्पनिक लगती थीं, आज साकार हो गई हैं। आज का तकनीकी दौर अनुवाद के लिए बहुत अच्छा है। आपने कहा कि अनुवाद को चर्चात्मक रूप से भी करने का प्रयास करना चाहिए। उन्होंने कहा कि दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी की सफलता यही है कि हम सभी को अनुवाद करने के लिए विभिन्न प्रारूपों का ज्ञान प्राप्त हुआ है। अनुवाद के क्षेत्र में हम सभी को अपडेट (अद्यतन) होने की आवश्यकता है।
समापन सत्र में पधारे अतिथिगण, संस्थान के सभी विभागाध्यक्ष, कुलसचिव, प्रशासनिक अधिकारी, अनुभाग अधिकारी आदि उपस्थित रहे। सत्र का संचालन डॉ. सरोज राय एवं आभार कुलसचिव डॉ. अंकुश औंधकर ने दिया।