मशीनीकरण से कंप्यूटरीकरण
किसी भी देश और भाषा के विकास में यांत्रिक साधनों का बहुत बड़ा योगदान रहता है। विश्व में ‘कृषि क्रांति’ में यांत्रिक साधनों से देशों की उन्नति हुई और इन साधनों के प्रसार में भाषाओं ने बहुत बड़ी भूमिका निभाई। 19वीं शताब्दी में ‘औद्योगिक क्रांति’ ने समाज को नया रूप दिया और विश्व में इसके प्रचार-प्रसार में भाषाओं की महती भूमिका रही। बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध्द में ‘सूचना क्रांति’ का प्रादुर्भाव हुआ। इसमें वैज्ञानिक अनुप्रयोग से नए-नए यंत्रों का विकास हुआ, जिससे विश्व इतना निकट हो गया कि ‘विश्वग्राम’ की संकल्पना सामने आई। इस महत्त्वपूर्ण कार्य में भाषाओं का योगदान कम नहीं है। यंत्रों के उपयोग तभी सार्थक सिध्द हो पाते हैं, जब ये अपनी भाषा के माध्यम से उपलब्ध हों अथवा अपनी भाषा में ये जानकारी उपलब्ध कराएँ। जनसामान्य में आम तौर पर यह धारणा व्याप्त है कि यांत्रिक उपकरणों की भाषा मात्र अंग्रेज़ी है, किंतु यह सही नहीं है। यांत्रिक उपकरणों की अपनी कोई भाषा नहीं होती। वास्तव में ये यांत्रिक साधन जिस भाषा में समायोजित हो जाते हैं, वे उसी भाषा के माध्यम में समायोजित हो जाते हैं और वे उसी के माध्यम बन जाते हैं। चूँकि यांत्रिक उपकरणों का विकास यूरोप और अमेरिका में हुआ है, जिसके कारण अँग्रेजी का वर्चस्व बना रहा। यह भी सच है कि यांत्रिक उपकरणों के विकास में भारत भी पीछे नहीं रहा। इस क्षेत्र में अनुसंधान के अनेक विकासोन्मुख आयाम स्थापित हुए। इन आयामों के विकास में हिंदी भाषा का विशेष महत्त्व है। कंप्यूटर, जनसंचार माध्यम, मुद्रण, टंकण, तार, फ़ैक्स, ई-मेल, दूरमुद्रक आदि अनेक उत्पादों के विकास में हिंदी की भूमिका बहुत ही उल्लेखनीय रही हैं। इसी कारण आज हिंदी में निम्नलिखित कार्यों के संपन्न होने की संभावनाएँ भी मिलती हैं।
1- देश के कोने-कोने से हिंदी के माध्यम से समाचार प्राप्त करने में ई-मेल, फ़ैक्स, टेलेक्स, तार, टेलीप्रिंटर आदि यांत्रिक साधन उपयोगी होते हैं। उन्हें संपादित करने में इनसे सभी नगरों में हिंदी भाषा में समान संस्करण प्रकाशित हो सकती हैं और दो-तीन घंटे में लाखों प्रतियाँ छापी जा सकते हैं। इसके अतिरिक्त एक स्थान से दूसरे स्थान तक इलेक्ट्रानिक साधनों से सामग्री भेजी जा सकती है
2- अँग्रेजी में प्राप्त समाचारों के तुरंत अनुवाद की व्यवस्था की जा सकती है। इसमें कंप्यूटर की सहायता से अनुवाद कार्य उपयोगी हो सकता है।
3- कंप्यूटर जैसे यांत्रिक साधनों से सामग्री की कंपोजिंग द्रुत गति से हो जाती है। इसमें समाचार अद्यतन रूप से दिए जा सकते हैं। इसमें उपग्रह द्वारा भेजे गए फ़ैक्स संदेश उपयोगी भूमिका निभाते हैं। त्रुटिहीन सामग्री के लिए आजकल कंप्यूटर पर वर्तनी-जाँचक उपलब्ध हैं, जो तैयार शुध्द सामग्री को तीव्र गति से जाँचने का विवरण प्रस्तुत करते हैं, जबकि मानव द्वारा जल्दी प्रूफ़ शोधन करने से अशुध्दियों के रह जाने की संभावना रहती है।
4- अन्य कई क्षेत्रों में भी यांत्रिक साधनों की आवश्यकता होती है; जैसे- प्रशासन कार्य को सुचारू रूप से चलाने के लिए कार्यालयों में फाइलों के रख-रखाव, हिसाब-किताब रखने, जनगणना सूची तैयार करने, टंकण-मुद्रण के लिए यांत्रिक साधनों की अपेक्षा रहती है।
5- इंटरनेट, टेलिकान्फ्रेंसिग, ई-मेल, फैक्स, मोबाइल आदि से अपनी बात अपनी भाषा में की जा सकती है।
इस प्रकार यदि उपर्युक्त साधन अँग्रेजी में उपलब्ध हों और हिंदी में उपलब्ध न हों तो विकास की दौड़ में हिंदी पिछड़ जाएगी और अँग्रेजी का वर्चस्व बना रहेगा। ऐसे प्रमुख आधुनिक यांत्रिक साधन हैं- तार, टंकण यंत्र (हाथ का, बिजली का और इलेक्ट्रानिक), दूरमुद्रक (टेलीप्रिंटर), कंप्यूटर कक्ष द्वारा कक्ष-मुद्रण के कार्यक्रम, इंटरनेट, मोबाइल आदि।
मशीनीकरण क्या है ?
मशीनीकरण का अर्थ है यंत्रों का उपयोग। जिन कार्यों को अपने हाथ से करते थे, उन्हें यंत्र की सहायता से करना मशीनीकरण है। प्रारंभ में सिर पर बोझ ढोते थे, बाद में गोल पहिए की गाड़ी हाथ से खींचने लगे, इसके बाद भाप, पेट्रोल, डीज़ल इंजिन और बिजली की मोटर से गाड़ी चलाई जाने लगी। इस मशीनीकरण से सभ्यता का विकास तेज़ी से हुआ, आर्थिक प्रगति हुई और जीवन स्तर बेहतर हुआ। वास्तव में यांत्रिक साधनों के उपयोग से कई लाभ हैं। मनुष्य का श्रम बचता है, काम अधिक मात्रा में और तीव्र गति से होता है। उचित साधनों के उपयोग से कई परिणाम प्राप्त हो सकते हैं; जैसे- वाष्प शक्ति से औद्योगिक क्रांति का सूत्रपात हुआ, रेलगाड़ी का प्रचलन हुआ, पेट्रोल से यातायात सस्ता और सुगम हुआ, बिजली से लघु और भारी उद्योग लगे, इलेक्ट्रॉनिकी से सूचना प्रौद्योगिकी का विकास हुआ और संचार क्रांति का सूत्रपात हुआ।
भाषा के क्षेत्र में मशीनीकरण की क्या आवश्यकता है? वास्तव में समाचारपत्र के प्रकाशन जैसे क्षेत्र में यांत्रिक साधनोें के किस प्रकार सुविधाएँ उपलब्ध हो सकती हैं, और उसमें भाषा की आवश्यकता होगी और जिस भाषा में ये साधन उपलब्ध होंगे, उसके प्रकाशन का स्तर अच्छा होगा। रोमन लिपि में लिखी जाने वाली अँग्रेजी जैसी भाषाओं के लिए ये सुविधाएँ उपलब्ध थीं, अब तकनीकी विकास के कारण हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं में भी ये सुविधाएँ उपलब्ध होने लगी हैं।
मशीनीकरण में परंपरागत मुद्रण तथा टंकण यंत्र एक ओर हैं, और दूसरी ओर कंप्यूटर जैसी अत्याधुनिक मशीनें हैं, जो जीवन के समस्त क्षेत्रों में उपयोगी साधन हैं। इन दोनों में भाषा का होना महत्त्वपूर्ण है। दूसरे शब्दों में, किसी भाषा के लिए मुद्रण की व्यवस्था न हो या उसमें टंकण यंत्र न हो तो उस समुदाय को इनका लाभ नहीं मिल सकता। स्वतंत्रता से पूर्व हिंदी में मुद्रण की व्यवस्था तो थी किंतु टंकण यंत्र नहीं थे। इसी तरह कंप्यूटर का उपयोग कर किसी भाषा में काम करना चाहें, तो उस भाषा के प्रयोग के लिए विशेष कार्यक्रम की आवश्यकता पड़ती है। हिंदी में 1980 से पहले कंप्यूटर का प्रयोग एक सपना था, आज हम हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं के माध्यम से कंप्यूटर पर विविध प्रकार के कार्य संपन्न कर सकते हैं। अत: ऐसे यांत्रिक साधनों की प्रकृति, उनके प्रकार्य तथा उनसे मिलने वाले लाभ आदि के बारे में अध्ययन की अपेक्षा है।
मशीनीकरण के महत्त्व जानने के लिए सर्वप्रथम मुद्रण के क्षेत्र में मशीनीकरण की संकल्पना स्पष्ट करनी होगी।
मुद्रण : मुद्रण आधुनिक युग का आविष्कार है। मुद्रण स्वयं ही भाषा के क्षेत्र में मशीनीकरण का पहला चरण है। मुद्रण से पहले पुस्तकें के छापने की व्यवस्था नहीं थी। एक पुस्तक की प्रति बनाने में महीनों लग जाते थे। ताड़ के पत्ताों पर या कागज़ पर लेखक एक-एक अक्षर लिखता था, जिसके कारण पुस्तक की प्रतियाँ ज्यादा लोगों तक नहीं पहुँच पाती थीं। इसलिए कुछ ही लोगों तक ज्ञान सीमित रह जाता था। 16वीं शताब्दी में मुद्रण कला का प्रारंभ हुआ। इससे यह लाभ हुआ कि बिना ज्यादा परिश्रम के कागज़ पर एक ही दिन में कई सौ प्रतियाँ छापी जाने लगीं। इस से ज्ञान का विस्तार तो हुआ और शिक्षा का प्रसार भी हुआ, किंतु पुस्तकों की छपाई कागज़ पर हाथ से ही होती थी। सामग्री को पृष्ठ की शक्ल में कंपोज़ किया जाता था और उसे कागज़ पर हाथ से दबाकर छापा जाता था।
आधुनिक युग में बिजली का आविष्कार होने के बाद उस से चलने वाली मशीनों के निर्माण से स्थिति में परिवर्तन होता गया। अब मशीनों से एक साथ बड़े कागज़ पर चार पृष्ठों की सामग्री एक साथ छापी जा सकती थी। मशीन के सम दाब से भी कागज़ों पर एक जैसी सुंदर छपाई संभव हो सकी। धातु पर सुंदर अक्षर कटने लगे, जिससे छपाई के स्तर में भी परिवर्तन आया। वास्तव में यह एक नया विकास था, किंतु आधुनिक युग की आवश्यकताएँ अनंत है, इसी लिए स्थिति में परिवर्तन की आवश्यकता सदैव बनी रही है। इस समय मुद्रण व्यवस्था में दो कठिनाइयाँ थीं : एक, कंपोज़िंग जो श्रमसाध्य और अधिक समय लेने वाला कार्य था। कंपोज़िटर मूल पाठ के अनुसार एक-एक अक्षर लेकर पृष्ठ जमाता अर्थात् कंपोज करता था। वस्तुत: एक कंपोज़िटर जितनी देर में एक पृष्ठ जमाता है, उतनी देर में एक टंकक आठ पृष्ठ की सामग्री टंकित कर सकता है। इस प्रकार हाथ से पृष्ठ जमाकर एक पुस्तक छापने में महीनों लग जाते थे। मुद्रण की मंद गति और उसमें लगता श्रम तथा समय मनुष्य के लिए काफी थकाने वाला कार्य था। दूसरा, कंपोज़ की हुई सामग्री को ट्रैडल मशीन पर छापा जाता था। इस मशीन में हर बार एक व्यक्ति अपने हाथों से एक-एक कागज़ रखता जाता था, मशीन से उस पर छाप पड़ती थी, व्यक्ति छपा हुआ कागज़ हटाकर दूसरा कागज़ रखता था। इस कारण घंटें में चार पृष्ठों की करीब 60 प्रतियाँ (अर्थात् एक घंटे में कुल 240 पृष्ठ) छपती थी। इस विधि में पुस्तकें पर्याप्त संख्या में नहीं छप पाती थीं।
वस्तुत: एक समाचार-पत्र की लाखों प्रतियाँ छापी जाती हैं, किंतु ट्रेडल मशीन से यह काम संभव नहीं हो पा रहा था। अखबार के लिए 20 या 24 बड़े पृष्ठों की सामग्री प्रतिदिन कंपोज करनी होती है। इस काम के लिए सैकड़ों आदमियों की आवश्यकता होती हैं, फिर भी अशुध्दियों के रह जाने की संभावना बनी रहती है। जल्दी पृष्ठ जमाने और प्रूफ पढ़ने की व्यवस्था होती तो कितना अच्छा होता। इसके अतिरिक्त सबसे बड़ी समस्या दूरी की भी है। अगर कोई अखबार मुंबई का है और दिल्ली के लोग उसे खरीदना चाहें, तो वह दिल्ली के लोगों को एक-दो दिन बाद मिलेगा या हवाई जहाज़ से भेजे जाने पर बहुत महँगा पड़ेगा। छोटे शहरों में तो यह समस्या और अधिक है। इसका उपाय क्या है? क्या ही अच्छा होता कि वह अखबार एक ही रूप में सभी शहरों में छप जाता। ये ऐसी समस्याएँ हैं, जिनका समाधान उन्नत यंत्रों से ढूँढा जा सकता है। अत: मशीनीकरण वह प्रक्रिया है, जिसकी विकसित तकनीक के प्रयोग से कार्य के स्तर में सुधार भी आता है और उसमें तीव्रता भी आती है। हम भाषा के क्षेत्र में, विशेषकर मुद्रण के क्षेत्र में मशीनीकरण के विस्तार का अध्ययन आवश्यक हो गया है, इसलिए मुद्रण पर चर्चा करते हुए इसके प्रारंभिक सोपान टंकण पर विचार करना असमीचीन न होगा।
टंकण : टंकण (टाइपिंग) शहर या गाँव के कोने-कोने में, कार्यालयों, घरों आदि मेंं टंकण यंत्र (टाइपिंग मशीन) देखे जा सकते हैं। टंकण एक प्रकार से घरेलू या निजी मुद्रण है, जिससे आधुनिक युग में घरेलू या निजी तौर पर मुद्रण का कार्य हो सकता है। टंकण यंत्र में एक कुंजीपटल (की बोर्ड) होता है और उनसे जुड़े हुए तारों के सिरों पर भाषा के सारे अक्षर (अ, आ, इ, आदि) होते हैं। कुंजी दबाने पर वह तार उठता है और वह अक्षर तेज़ी से कागज़ पर आघात करता है। इससे वह अक्षर कागज़ पर छपता है अर्थात् ‘माला’ जैसे शब्द को छापने के लिए टंकक को चार कुंजियाँ दबानी होती हैं। एक अच्छा टंकक (टाइपिस्ट) हिंदी में प्रति मिनट 30-40 शब्द टंकित कर सकता है, और इस प्रकार वह एक घंटे में 5-6 पृष्ठ टंकित कर सकता है। वह लगातार दिन में 8 घंटे काम करे, तो 40-50 पृष्ठ अंकित कर सकता है। गति के हिसाब से यह संतोषजनक है, लेकिन टंकण की कुछ सीमाएँ हैं। हम एक बार के टंकण से सिर्फ 4-5 प्रतियाँ (वह भी कार्बन लगा कर) प्राप्त कर सकते हैं। इसी कारण इसे मुद्रण की संज्ञा नहीं दी जा सकती। एक टंकण यंत्र के अक्षर एक जैसे होते हैं, उसमें छोटे-बड़े आकार के अक्षर नहीं बन सकते। इसी कारण इसमें मुद्रण्ा जैसी अक्षरों की विविधता नहीं आ सकती, वैसी सुंदरता नहीं आ पाती। टंकण यंत्र की कुंजी पर एक बार उँगली पड़ जाए, तो अक्षर छप ही जाता है। गलत होने पर उसमें सुधार करना पड़ता है। इसकी तुलना में मुद्रण में प्रूफ़ पढ़ने और संशोधन करने की गुंजाइश रहती है। इस कारण मुद्रण अधिकतर त्रुटिहीन होता है, टंकण में कुछ कमियाँ रह जाती हैं। अंग्रेज़ी का टंकण यंत्र सौ साल से ज्यादा पुराना हैं। उसका पटल, जिसे कुंजी पटल (Key Board) कहते हैं, सारे विश्व में एक जैसा है। हिंदी कुंजी पटल का निर्माण लगभग 50-60 वर्ष पहले हुआ था, किंतु उसके निर्माण से लेकर अब तक कुंजी पटल के तीन-चार संस्करण है। इस कारण हिंदी टंककों को सभी यंत्रों पर काम करने में कठिनाई होती है।
हाथों से चालित टंकण यंत्र के पश्चात् विद्युतचालित टंकण यंत्र का विकास हुआ। इसकी गति पहले की मशीन की तुलना में दुगुनी थी, लेकिन गति को छोड़कर अन्य सभी दोष उसी प्रकार बने रहे। विकास के तीसरे दौर में इलेक्ट्रॉनिक टंकण यंत्र का प्रादुर्भाव हुआ। इसकी प्रमुख विशेषता यह है कि कुंजी दबाने पर अक्षर न केवल तुरंत कागज़ पर पड़ते हैं, वरन् ये अक्षर यंत्र के स्मृतिकोश में भी जमा हो जाते हैं। टंकक इन्हें एक पर्दे पर लाकर देख सकता है, जिस तरह हम ‘कैलकुलेटर’ में अक्षर देखते हैं। इन गलती को देखने पर इनमें सुधार किया जा सकता है और यह त्रुटिहीन हो सकता है। इस में भी कुछेक कमियाँ रह गई हैं, जिसके लिए और तकनीकों का आविष्कार आवश्यक हो गया। इससे अधिक प्रतियाँ नहीं मिल सकतीं। इलेक्ट्रानिक टंकण में भी मुद्रण जैसी अक्षरों की विविधता नहीं आ सकती, भले इसकी छपाई का स्तर अच्छे मुद्रण के बराबर हो।
अँग्रेजी की रोमन लिपि में कुल 52 अक्षर (26 बड़े तथा 26 छोटे) 0 से 9 तक दस चिह्नों, प्रतिशत और गणितीय चिह्नों, कोष्ठकाें आदि के 32 चिह्न मिलकर 94 चिह्नो की आवश्यकता होती है। हिंदी देवनागरी लिपि में स्वर, व्यंजन, अर्थ व्यंजन, मात्राएं आदि सभी चिह्नो को मिलाकर 102 अक्षर आते हैं।
नागरी का अभी तक मानकीकरण नहीं हो पाया, जिससे अभी तक यह तय नहीं हो पाया है कि हिंदी की वर्णमाला कैसी हो? क्या द्व और द्य आदि अक्षर हिंदी में स्वीकृत हैं या उन्हें हर जगह द्व और द्य से लिखा जाना चाहिए? क्या शृ को छोड़कर हम शृ का प्रयोग हो सकता है। इन प्रश्नों पर अंतिम निर्णय के अभाव में कुंजीपटल के मानकीकरण का अभी भी प्रश्न बना हुआ है? यह तो निश्चित बात है कि टंकण के विकास के कारण द्य, ह्म द्व आदि संयुक्ताक्षर कम हो गए हैं और अब उन्हें द्य, ह्म, द्व, आदि के रूप में हलंत से (अब वह भी नहीं) लिखने की बात रखी गई है। श्च, ष्ट, म्न, प्त आदि संयुक्ताक्षरों को श्च के रूप में आगे-पीछे के क्रम से लिखने का सुझाव दिया गया है। तथापि, इस संबंध में भारत सरकार का केन्द्रीय हिंदी निदेशालय प्रयासरत हैं, किंतु मानकीकरण का प्रश्न ज्यों-का-त्यों बना हुआ है।
व्यावसायिक मुद्रण : दूसरे प्रकार का मुद्रण व्यवसाय है। इसमें कंपोजिंग के बाद छपाई की जाती थी। यह कंपोजिंग दो प्रकार से होता था, जिससे उसकी गति में सुधार आया। एक, ‘मोनो’ मुद्रण में व्यक्ति टंकण करता था और अक्षर पंक्ति में आकर लगते थे अर्थात् यह यंत्रीकृत कंपोजिंग थीं। दो, ‘लाइनो’ मुद्रण में जब एक नई पंक्ति टंकित करता था, तो पूरी पंक्ति की सामग्री धातु की एक पट्टी के रूप में ढलकर आती थी। इस प्रकार यदि किसी एक पंक्ति में गलती होती, तो पूरी पंक्ति को दुबारा ढालना पड़ता था। अत: इन प्रयासों में कंपोज़िंग में गति तो आ गई, किंतु सुधार कार्य में कुछ कठिनाई थी। साथ ही कंपोज़ की हुई सामग्री उसी तरह जमाए गए पृष्ठों के रूप में प्राप्त होती थी, जिसे छापने में समय लगता था।
मुद्रण में गति : जिस प्रकार पहिये का आविष्कार विज्ञान के विकास का पहला कदम था, उसी प्रकार बेलनाकार मुद्रण इस क्षेत्र में एक क्रांतिकारी कदम था। हाथ की कंपोजिंग से जब पृष्ठ बनते थे, तो इन पृष्ठों को एक पटल के रूप में एक सतह पर लगाया जाता था। छापने के लिए इस पूरे पटल को कागज़ पर दाब के साथ रखा जाता था। वास्तव में पटल को बार-बार उठाकर फिर कागज़ तक ले जाने में समय लगता था। एक बार उठाकर रखने में आधा मिनट का समय लगे तो एक घंटे में लगभग 120 कागज़ मुद्रित किए जा सकते हैं। लाखों प्रतियाँ छापने के लिए यह गति पर्याप्त नहीं है। मान लिया जाए कि पटल की जगह एक बेलनाकार यंत्र को ही पृष्ठों की सामग्री बना दें और उसे कागज़ पर तेज़ी से घूमते हुए छापने दिया जाए तो उसकी गति कितनी होगी? ऐसी मशीन घंटे में 3000 से 30000 तक कागज़ों पर छपाई कर सकती है। चूँकि कागज़ उठाकर रखना नहीं होगा, (वह हवा के दबाव से बेलन के नीचे खिंचा चला जाता है) बड़े कागज़ पर छपाई हो सकती है, अर्थात् हर बार एक साथ 16 पृष्ठों पर छपाई हो सकती है। मुद्रण की इस प्रक्रिया को ‘ऑफसेट मुद्रण’ कहते हैं। इस मुद्रण में धातु से ढले अक्षर काम में नहीं आ सकते, क्योंकि ये अक्षर बेलनाकार व्यवस्थित नहीं किए जा सकते। आफसेट मुद्रण के लिए ‘प्लेट’ बनाने की आवश्यकता होती हैं और ऑफसेट मुद्रण इलेक्ट्रॉनिक कंपोजिंग या फोटो कंपोजिंग के साथ बखूबी आता है। इसके बाद कक्ष मुद्रण और फोटो कंपोजिंग की प्रक्रिया भी आई।
कक्ष मुद्रण: अब तक हमने मुद्रण के दो पहलुओं की चर्चा की है – कंपोजिंग और छपाई। व्यावसायिक मुद्रण में हमें दोनों ही कार्यों के लिए बाहर की संस्थाओं पर निर्भर करना पड़ता हैं। कंपोजिंग कराने और प्रूफ पढ़ने के लिए दौड़-धूप करनी पड़ती है, फिर छपाई के लिए जगह ढूँढनी पड़ती है। मान लिया जाए कि हमें किसी प्रतिवेदन की सिर्फ 50 सुंदर मुद्रित प्रतियाँ चाहिए तो भी इतना ही समय और श्रम लगता है। क्या ही अच्छा हो कि हम कंपोजिंग अपने ही घर या दफ्तर में बैठे कर लें और दौड़-धूप से बच जाएँ। थोड़ी-सी प्रतियों की छपाई भी अपने ही यहाँ कर ली जाए, जिससे प्रेस का मुँह ताकने से बच जाएँ। इस इच्छा की पूर्ति के संदर्भ में हम मेज़ पर प्रकाशन (डेस्क पब्लिकेशंस) अपने ही घर या दफ्तर में संपन्न हो सकता है। इसे कक्ष मुद्रण भी कहा जा सकता है।
कक्ष मुद्रण की सुविधा का आधार कंप्यूटर है। हम कंप्यूटर के पर्दे पर सामग्री टंकित कर सकते हैं, इस टंकित सामग्री को कंप्यूटर से जुड़े मुद्रक पर छाप सकते हैं। इस पर जो टंकण होता है, उसे सुधारा जा सकता हैं, उस सामग्री के आकार-प्रकार में काट-छाँट, संशोधन, परिवर्तन किया जा सकता हैं, अर्थात् उस सामग्री को संपादित कर अंतिम रूप दिया जा सकता है। इस प्रकार कंप्यूटर कंपोजिंग का एक सशक्त माध्यम है और प्रभावकारी विकल्प है। कंप्यूटर किस प्रकार अच्छी छपाई के लिए कंपोजिंग कर सकता है, इसे निम्नलिखित प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता है-
1- सुंदर, सुघड़ मुद्रण के लिए विविध प्रकार के अक्षर चाहिए- बहुत छोटे, बहुत बड़े, तिरछे, मोटे, सिकुड़े या फैले, छायाकृति वाले आदि। अक्षरों की इतनी विविधता सिर्फ मुद्रणालयों (प्रिंटिंग प्रेसों) में मिल सकती है। घरेलू कंप्यूटर में भी आसानी से ये सारे अक्षर मिल जाते हैं।
2- मुद्रण में चित्रों, तालिकाओं, आरेखों आदि की भी आवश्यकता होती है। ये अधिकतर बने बनाए नहीं मिलते। इनका ब्लाक बनवाना पड़ता है, जो खर्चीला होता है। अच्छे कंप्यूटर के कार्यक्रमों में तालिका, चार्ट, आरेख आदि बनाना सरल कार्य हैं, ग्राफ़िक्स नामक प्रोग्रामिंग से कंप्यूटर की सहायता से चित्र भी बनाए जा सकते हैं। इस प्रकार इससे रिपोर्ट आदि छापने की सुविधा भी मिल सकती है।
3- कंपोजिंग में प्रूफ पढ़ना पड़ता है, जिससे गलतियाँ न रह जाएँ। कई शब्द संसाधन प्रोग्रामिंग में ‘वर्तनी जांचक’ (Spell Cheker) नामक प्रोग्राम होता है, जिससे प्रूफ पठन का काम मिनटों में हो जाता है।
इस संदर्भ में यहाँ हम मुद्रण के क्षेत्र में हुई प्रगति का अवलोकन करें तो कंप्यूटर पर शब्द संसाधन द्वारा जब सामग्री को अंतिम रूप दे दिया जाता है, तो कंप्यूटर से जुड़ा हुआ घरेलू मुद्रण यंत्र उसकी प्रतियाँ छापता है। इसके लिए तीन प्रकार के मुद्रक (Printer) आज उपलब्ध हैं-
( क) डॉट मैट्रिक्स मुद्रक: यह एक टंकण मशीन के समान है जो एक-एक अक्षर करके छापता है, एक समय में एक प्रति देता है (कार्बन लगा लेने पर 3-4 प्रतियाँ बन सकती है)। चूँकि यह कंप्यूटर से प्राप्त सामग्री को छापता है, इसकी गति तेज़ है, किंतु यह मुद्रक टंकण यंत्र से मूलत: भिन्न है। टंकण यंत्र भाषा-विशेष के लिए बने होते हैं; जैसे- हिंदी का टंकण यंत्र, अंग्रेज़ी का टंकण यंत्र। डाट मैट्रिक्स मुद्रक का भाषा से कोई संबंध नहीं है। यह वही छापता है जो कंप्यूटर के पर्दे पर आता है। इस कारण एक डाट मैट्रिक्स मुद्रक विश्व की सभी भाषाओं में छपाई कर सकता है, बशर्ते कंप्यूटर के पर्दे पर वह भाषा आए। इसी तरह यह मुद्रक न केवल अक्षर ही छापता है, वरन् चित्र, आरेख, तालिकाएँ आदि भी छाप सकता है। टंकण यंत्र में अक्षरों के आकार-प्रकार में विविधता नहीं लाई जा सकती है। इस मुद्रक में हर तरह के आकार के अक्षर छापे जा सकते हैं।
( ख) लेसर मुद्रण : लेसर मुद्रण एक अत्यंत शक्तिशाली प्रकाश किरण है, जिससे डॉट मैट्रिक मुद्रण की भाँति बिंदुओं पर सुइयाँ जाकर नहीं लगती, बल्कि पतली धारवाली स्याही फेंकी जाती है। इस कारण लेसर मुद्रण में अक्षर सुंदर बनते हैं। लेसर मुद्रण से बड़े पैमाने पर छपाई नहीं हो सकती। इसमें अधिक प्रतियाँ छापना एक खर्चीला काम है। इसमें रंगीन तस्वीरें या फोटो जैसी बारीक तस्वीरें छापना आसान नहीं है और बड़े आकार के कागज़ पर भी छापा नहीं जा सकता। इस लेज़र प्रिंटिंग प्रणाली को लघु प्रकाशन प्रणाली के नाम से भी जाना जाता है। आजकल अनेक कंपनियाँ लघु प्रकाशन प्रणालियों का विकास कर रही हैं और लगभग सभी प्रणालियों के साथ देवनागरी तथा अन्य भारतीय भाषाओं में छपाई संभव है।
( ग) फोटो कंपोजिंग या फोटो टाइपसेटिंग : फोटो कंपोज़िंग में कंप्यूटर पर टंकित सामग्री नेगेटिव की भाँति होती है और इसकी छपाई विशेष प्रकार के कागज़ पर की जाती है। जिस तरह फोटो में कागज़ पर सूक्ष्म से सूक्ष्म आकृतियाँ उभरकर आती हैं, इस प्रक्रिया में कागज़ पर सूक्ष्म से सूक्ष्म अक्षर, विशद विवरणों वाले चित्र आदि सुंदर ढंग से छपते हैं। अक्षंरों की विविधता आदि से सिध्द होता है, कि फोटो कंपोज़िंग में छपी सामग्री का स्तर सबसे बढ़िया प्रिंटिंग प्रेस में छपी सामग्री जैसा मिल सकता है।
मुद्रण में विकास : कंप्यूटर द्वारा किया गया कंपोज़िग एक-एक करके अक्षर जोड़कर किए गए कंपोज़िग से बेहतर है। इसमें टंकण की गति से कंपोज़ होता है और मिनटों में सुधार भी किया जा सकता है। कंप्यूटर पर संकेत देकर अक्षरों में विविधता लाई जा सकती है। इसमें चित्र, आरेख आदि के मुद्रण में भी अधिक कठिनाई नहीं है। किंतु प्रश्न उठता है कि वास्तविक मुद्रण की क्या स्थिति है? इन तीनों में एक-दो (या आवश्यकतानुसार ज्यादा भी) प्रतियाँ ज़रूर की जा सकती है, अधिक प्रतियों का मुद्रण इससे संभव नहीं होता। फोटो कंपोजिंग में फोटो के कागज़ पर मुद्रण होता हे, इसलिए यह मुद्रण है ही नहीं।
आधुनिक मुद्रण बेलनाकार ड्रम से किया जाता है, जिसमें धातु से बने अक्षरों की सामग्री काम में नहीं आ सकती। फिर उस बेलन पर आधार सामग्री छपाई के लिए काम आ सकती है? बेलन पर टिन का शीट लपेटा जाता है, ताकि उस पर अक्षर खुद जाए। इस शीट को आधुनिक मुद्रण की भाषा में ‘प्लेट’ कहते हैं। लेसर या फोटो कंपोजिंग से निकली सामग्री को फोटो के ‘नेगेटिव’ पर उतारा जाता है। इस नेगेटिव से टीन के शीट पर पुन: उलटे अक्षर बनाए जाते हैं। यही शीट छपाई का आधार है। शीट पर उलटे खुदे अक्षर जब कागज़ पर पड़ते हैं, तो कागज़ पर छपाई होती है। इसे ‘आफ़सेट’ मुद्रण कहा जाता है। चूँकि यह शीट एक बेलन पर चढ़ाया जाता है, छपाई की गति बेलन के घूमने की गति पर निर्भर होती है। एक घंटे में एक हज़ार से लेकर तीन हज़ार तक के कागज़ छापे जा सकते हैं। इस प्रकार लेसर और फोटो कंपोजिंग से शीघ्र कंपोजिंग की जा सकती है। इन दोनों पध्दतियों से छपे कागज़ से आफसेट मुद्रण भी किया जा सकता है।
तार : तार दूर तक सूचना भेजने के लिए शायद सबसे पुराना और सबसे प्रचलित साधन है। समाचार जल्दी भेजने के लिए तार का उपयोग कोई भी व्यक्ति या कार्यालय कर सकता हैं। हम तार का संदेश लिखकर तार बाबू को देते हैं। तार बाबू तार भेजने वाले यंत्र से संदेश को एक-एक अक्षर करके प्रेषित करता हैं। वास्तव में संदेश ध्वनियों के रूप में भेजा जाता है, जो तार द्वारा बिजली की धारा के रूप में चलता है। प्राप्तकर्ता उन ध्वनियों से अक्षर को पहचानता है और लिखता है; जैसे – A के लिए छोटी ध्वनि है, B के लिए बड़ी ध्वनि। अक्षरों को ध्वनियों में बदलने की इस व्यवस्था को ‘मोर्स कोड’ कहते हैं। भारत सरकार ने हिंदी में तार भेजने की सुविधा तो प्रदान की हैं, किंतु हिंदी में तार भेजने के लिए कोड पध्दति का विकास अभी तक नहीं हुआ है। जो लोग हिंदी में तार देते हैं, वे तार बाबू को हिंदी में संदेश लिखकर देते हैं। तार बाबू उस संदेश को रोमन में लिप्यंतरित करके मोर्स कोड से भेजता है; जैसे- ‘मैं आ रहा हूँ’ वाक्य को रोमन लिपि में लिप्यंतरित किया जाएगा – main a raha hunA प्राप्ति-स्थल पर उस संदेश को रोमन में लेकर पुन: हिंदी में लिखा जाता है। इस दोषपूर्ण लिप्यंतरण से कई बार गलत सूचना मिलने की संभावना रहती है।
कंप्यूटर और हिंदी
यदि विभिन्न भाषाओं और लिपियों का विकासक्रम देखा जाए तो हम पाएँगे कि प्रत्येक भाषा और लिपि में तत्कालीन युग और उस युग की कल्पना शक्ति और कला-कौशल का प्रतिबिंब दिखाई पड़ता है। भारत की अधिकतर भाषाओं का स्रोत एक ही है और वे ब्राह्मी वर्णमाला से उद्भूत हुई हैं। देवनागरी, बंगला, असमिया, उड़िया, मराठी, गुजराती और गुरूमुखी लिपियाँ एक दूसरे से इतनी मिलती-जुलती हैं कि इन्हें एक ही लिपि के विभिन्न रूप कहा जा सकता हैं। इसी प्रकार दक्षिण भारत की लिपियाँ तमिल, तेलुगु, कन्नड़ और मलयालम समान सिध्दांतों पर आधारित है, किंतु ये लिपियाँ देवनागरी से भिन्न हैं। भारत की लिपियों की एक विशेषता यह है कि इन भाषाओं के अलग-अलग अक्षर होने के बावजूद इनकी वर्णमाला और लिपि समान उच्चारण पध्दति पर आधारित हैं। उर्दू इसका अपवाद है, जिसमें फारसी-अरबी की नास्तालिक या नस्ख लिपि अपनाई जाती हैं। हिंदी, संस्कृत, मराठी, नेपाली कोंकणी, बोडो, संताली, डोगरी आदि अनेक भाषाओं के लेखन के लिए देवनागरी लिपि अपनाई जाती है। गुजराती लिपि भी देवनागरी जैसी ही है, केवल उसमें शिरोरेखा नहीं है। गुरूमुखी, उड़िया और बंगला के अक्षर देवनागरी से कोई अधिक भिन्न नहीं हैं। इस प्रकार देवनागरी लिपि का हमारी भाषाओं से बहुत पुराना और घनिष्ठ संबंध है, ंकिंतु लेखन-सामग्री की भिन्नता के कारण इन लिपियों के आधुनिक स्वरूप में कुछ अंतर दिखाई पड़ता है।
दो-तीन दशक पूर्व कंप्यूटर के पर्दे पर हिंदी का कोई अक्षर भी नहीं आता था। फोटो कंपोजिंग के लिए विदेशों से लाइनोट्रान मशीनों का आयात किया जाता था, किंतु ऐसी मशीनें कुछ गिने-चुने समाचारपत्रों और बड़े प्रकाशकों के पास थीं। 1977 में ई.सी.आई.एल. हैदराबाद की एक कंपनी ने हिंदी में ‘फोर्ट्रान’ नामक कंप्यूटर भाषा में एक छोटा-सा प्रोग्राम चलाकर दिखाया था अर्थात् कंप्यूटर के पर्दें पर पहली बार 1977 में हिंदी के अक्षर दिखाई पड़े। इसके बाद कंप्यूटर के जगत में भारतीय भाषाओं के प्रयोग के क्षेत्र में अभूतपूर्व प्रगति हुई है।
वस्तुत: कंप्यूटर दो प्रकार से कार्य करता है। एक, कंप्यूटर दिए हुए आंकड़ों के अनुसार गणनाएँ करके परिणाम प्रस्तुत करता है, जिसे ‘आंकड़ा संसाधन’ (डाटा प्रोसेसिंग) कहते है। वेतन बिल बनाना, गणित के सवालों को हल करना, परीक्षा परिणाम निकालना, खाता-बही रखना आदि आंकड़ा संसाधन के उदाहरण हैं। आंकड़ा संसाधन के लिए फोर्ट्रान, कोबोल आदि कार्यक्रम उपयोग में जाए जाते हैं, कंप्यूटर में इन्हें ‘प्रोग्राम भाषा’ कहते हैं। ये प्रोग्राम अँग्रेजी में ही उपलब्ध थे। अब तक आंकड़े के साथ नाम आदि विवरण अँग्रेजी में ही दिए जाते थे और हिंदी में कोई शब्द भरा नहीं जा सकता था। दूसरा, कंप्यूटर शब्द संसाधन के लिए भी काम कर सकता है। पत्र लिखना, रिपोर्ट आदि तैयार करना, लेख लिखना आदि शब्द संसाधन के प्रमुख कार्य हैं। शब्द संसाधन के लिए वर्ड स्टार, वर्ड पर्फेक्ट आदि सॉफ्टवेयर उपलब्ध हैं, जो अँग्रेजी में लिखी सामग्री के संपादन के लिए अत्यंत उपयोगी हैं।
भारत में इस दिशा में भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आई.आई.टी.) कानपुर का प्रयास विशेष रूप से उल्लेखनीय है। 1977 तक हिंदी में दोनों तरह के कार्यक्रम की उपलब्धता की आवश्यकता थी। अत: सर्वप्रथम शब्द संसाधन के क्षेत्र में कार्य आरंभ हुआ। 1971-72 में आई.आई.टी. कानपुर में एक बहुत सरल कुंजीपटल और उसकी प्रणाली तैयार की गई, जिसे सभी भारतीय भाषाओं के लिए इस्तेमाल किया जा सकता था। इसका पहला ‘प्रोटोटाइप टर्मिनल’ सन् 1978 में तैयार किया गया, किंतु भारत में प्रथम द्विभाषी कंप्यूटर ‘सिध्दार्थ’ का विकास सन् 1980 के आसपास बिरला विज्ञान और टेक्नोलॉजी संस्थान, पिलानी और डी.सी.एम., दिल्ली के संयुक्त प्रयास में हुआ। इस कंप्यूटर पर ‘शब्द माला’ नामक कार्यक्रम तैयार किया। यह हिंदी-अंग्रेज़ी द्विभाषी शब्द संसाधक था। इसमें दोनों भाषाओं में एक साथ सामग्री संपादन की सुविधा थी। यह मशीन शब्द संसाधन के अलावा आंकड़ों का विश्लेषण भी कर सकती थी। उसके बाद सन् 1985 में भारत सरकार के उपक्रम सी.एम.सी. लिमिटेड ने ‘लिपि’ नामक बहुभाषी शब्द संसाधक का विकास किया, जिसके द्वारा तीन भाषाओं अर्थात् हिंदी, अँग्रेजी और किसी अन्य भारतीय भाषा में शब्द संसाधन का कार्य किया जा सकता था। दोनों कार्यक्रमों के लिए पूरी मशीन भी खरीदनी पड़ती थी, अर्थात् ये कार्यक्रम किसी भी कंप्यूटर पर नहीं चलाए जा सकते थे और न ही इन मशीनों पर अन्य किसी प्रकार का आंकड़ा संसाधन किया जा सकता था। इस सीमित उपयोग के कारण ये मशीनें लोकप्रिय नहीं हो पाईं।
बाद में कई कंप्यूटर कंपनियों ने इसकी कमी महसूस की और द्विभाषी शब्द संसाधन के लिए साफ्टवेयर तैयार किए, जो सामान्य कंप्यूटरों पर काम कर सकते हैं। पर्सनल कंप्यूटर आई.बी.एम. कंपेटिबल के आ जाने के बाद स्थिति में क्रांतिकारी परिवर्तन आ गया। आजकल अधिकतर कंपनियों के द्विभाषी या त्रिभाषी शब्द संसाधन पैकेज बाजार में सरलता से मिलने लगे हैं। इनमें प्रमुख हैं सॉफ़टेक कंपनी का ‘अक्षर’, टाटा कंसल्टैंसी सर्विस का ‘शब्दमाला’, हिंदी ट्रोन का ‘आलेख’, सोनाटा का ‘मल्टीवर्ड’, काल्स का ‘सुलेख’, एस.आर.जी. का ‘शब्दरत्न’ आदि। इनकी सहायता से किसी भी पर्सनल कंप्यूटर के सिस्टम पर हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में शब्द संसाधन का कार्य किया जा सकता है। इनका मुद्रण डाट मैट्रिक्स मुद्रक पर हो सकता है। इन कार्यक्रमों की दो कमियाँ हैं- एक, इन सबका आसानी से लेसर या फोटो कंपोजिंग पर मुद्रण नहीं हो सकता और इस तरह उस पर व्यावसायिक मुद्रण संभव नहीं हो पाता। लेकिन कुछ हद तक यह कमी दूर हो गई है और लेसर मुद्रण होने लगा है। दो, इनका कुंजीपटल अलग-अलग तरह का है, और उस पर बने अक्षरों में अंतर है अर्थात् किसी में चंद्रबिंदु नहीं आ सकता, किसी में पुराने वर्ण बनते हैं, नए मानक वर्ण नहीं, अक्षरों की बनावट में अंतर है आदि।
हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में शब्द संसाधन की सुविधा उपलब्ध हो जाने से अनेक महत्त्वपूर्ण प्रलेख और पांडुलिपियाँ आदि सुरक्षित ढंग से संग्रहीत की जा सकती हैं, किंतु भाषागत अध्ययन और विश्लेषण के लिए यह सुविधा पर्याप्त नहीं है। भाषा संबंधी अध्ययन, विश्लेषण और प्रकाशन आदि के लिए डेटा संसाधन और डेटा प्रकाशन की सुविधा होना बहुत आवश्यक है। भारतीय वैज्ञानिकों के अथक प्रयास से आज यह भी संभव हो गया है। डेटा संसाधन के लिए सामान्यत: ‘डीबेस लोटस’ जैसे सॉफ्टवेयर पैकेजों का प्रयोग किया जाता है। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आई.आई.टी.) कानपुर के सहयोग से प्रगत संगणन विकास केन्द्र (सी-डैक), पुणे ने सन् 1984 के आस-पास एक ‘जिस्ट’ प्रणाली का विकास किया है। इसके माध्यम से आज डेटा संसाधन से संबंधित सभी कार्य हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में भी सरलता से संपन्न किए जा सकते हैं। ‘विविधता में एकता’ भारतीय भाषाओं और लिपियों की मूलभूत विशेषता है। इस मूलभूत एकता को वैज्ञानिकों ने पहचाना है और तद्नुसार सभी भारतीय भाषाओं के लिए समान कुंजीपटल का विकास किया है। वास्तव में किसी भी लिपि का अक्षर एक प्रतीक होता है। वह दो प्रकार के संदेशों का वहन करता है – बाहरी संदेश और आंतरिक संदेश। बाहरी संदेश उस प्रतीक का रैखिक ‘ग्राफिक’ होता है और आंतरिक संदेश वर्णमाला के अक्षर रूप में होता है। यह एक विशिष्ट ध्वनि को प्रदर्शित करता है ; जैसे- हिंदी ‘अ’ और ‘ऋ’ अक्षर रैखिक दृष्टि से भिन्न है, किंतु हम उन्हें एक ही अक्षर के रूप में पहचानते हैं, जबकि उनका आंतरिक संदेश ध्वनि के रूप में एक ही है। सभी भारतीय भाषाओं में वर्णमाला का क्रम समान होने के कारण उनका आंतरिक संदेश भी समान ही होता हैं, किंतु रैखिक रूप में बाहरी संदेश में कमोबेश भिन्नता रहती है। इस मूलभूत आंतरिक समानता को दृष्टि में रखकर ही सूचना प्रौद्योगिकी विभाग भारत सरकार ने ‘उर्दू’ को छोड़कर सभी भारतीय भाषाओं के लिए समान कोड स्वीकार किया है। यह कोड वस्तुत: अँग्रेजी के मानक एस्की-7 (अमेरिकन स्टैंडर्ड कोड फॉर इन्फ़ार्मेशन इंटरचेंज) कोड का विस्तृत रूप है। इसे ‘इस्की-8’ (इंडियन स्टैंडर्ड कोड फ़ॉर इन्फ़ार्मेशन इंटरचेंज) कोड कहा जाता है। इसमें रोमन लिपि के सभी अक्षरों के साथ-साथ भारतीय भाषाओं के सभी अक्षरों को भी समाहित किया गया है। इसका सबसे बड़ा लाभ यह है कि इस तकनीक के माध्यम से किसी भी भारतीय लिपि के जरिये सभी भारतीय भाषाओं में अध्ययन और विश्लेषण किया जा सकता है। भारतीय भाषाओं में परस्पर लिप्यंतरण इस तकनीक की अन्यतम विशेषता है। इससे पुस्तकालयों में विभिन्न भारतीय भाषाओं की पुस्तकों की अनुक्रमणिका तैयार की जा सकती है। कोश निर्माण के लिए भारतीय वर्णमाला के अनुसार अक्षरों का अनुक्रम भी बनाया जा सकता है। पर्यायवाची कोश या थिसॉरिस के लिए समानुक्रमणिका का निर्माण भी हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में किया जा सकता है। इस समानुक्रमणिका में आर्थी आधार पर शब्दों के विभिन्न वर्ग बनाए जा सकते हैं। इस प्रकार भारतीय भाषाओं में कोश, थिसॉरस, शब्द-सूची आदि जैसे जटिल और श्रमसाध्य कार्यों को कंप्यूटर की सहायता से कम से कम समय में सरलता से संपन्न किया जा सकता है। इस तकनीक से विभिन्न भाषाओं का मिश्रण भी संभव है। एक ही पृष्ठ पर अँग्रेजी, हिंदी और अन्य किसी भारतीय भाषाओं में एक ही साथ कुंजीपटल द्वारा कार्य किया जा सकता है। मुद्रित रूप में अपने परिणाम प्राप्त करने से पूर्व मानिटर पर उन्हें बार-बार संशोधित, परिवर्तित और परिवर्धित किया जा सकता है। संशोधित पाठ को ‘ब्लैक’, ‘बोल्ड’, ‘इटैलिक’ या किसी अन्य रूप में मुद्रित करना भी इस तकनीक के माध्यम से संभव हो गया है। विविध प्रकार के ‘फाँट्स’ (अक्षरों) की भी इसमें व्यवस्था है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि ‘इस्की’ के अनुरूप मानक ‘यूनीकोड’ का निर्माण हुआ है जिसमें विश्व की सभी लिपियों का निर्धारण अंकीय पध्दति से हुआ है। इसी सदर्भ में हिंदी के लिए ‘मंगल’ फाँट की व्यवस्था है, हालांकि इसमें भी मानक लिपि की कमी पाई जाती है।
जिस्ट एक कंप्यूटर कार्ड है, जिसे कंप्यूटर में लगा देने पर हिंदी तथा सभी भारतीय भाषाओं में कंप्यूटर के पर्दें पर अक्षर छापे जा सकते हैं। चूँंकि समूची भारतीय भाषाओं के लिए एक ही कुंजीपटल है, इसलिए किसी भी भारतीय भाषा में दी गई सामग्री को किसी अन्य भाषा में लिप्यंतरित किया जा सकता है। इस कंपनी का दावा है कि जिस्ट से लेसर और फोटो कंपोजिंग तक की सुविधा उपलब्ध हो सकती है। यही नहीं, जिस्ट कार्ड लगने पर आंकड़ा संसाधन के कार्यक्रम हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं में आसानी से चल सकते हैं। इस प्रकार इस तकनीक से कंप्यूटर के क्षेत्र में 15 वर्षों से कम की अवधि में भारतीय भाषाओं के यांत्रिकीकरण के क्षेत्र में अभूतपूर्व प्रगति हुई है।
हिंदी भाषा के लिए कंप्यूटर के क्षेत्र में आगे की संभावनाओं का यहाँ विवेचन करना उचित होगा :
1- कंप्यूटर पर शीघ्र ही बहुभाषी शब्दकोश उपलब्ध होंगे, जिनसे किसी भी भाषा में इच्छानुसार शब्द का अर्थ मालूम किया जा सकेगा। ऐसे बृहदाकार कोश को मुद्रण द्वारा तैयार करना और उससे शब्द देखना कठिन कार्य होगा। तकनीकी तथा पारिभाषिक शब्दावली आयोग ने कंप्यूटर के लिए पारिभाषिक शब्दकोश का प्रारूप तैयार कर लिया है।
2- कंप्यूटर द्वारा कक्ष मुद्रण की चर्चा की जा चुकी हैं। इससे लोग अपने घरों में भी मुद्रण का कार्य कर सकेंगे तथा संपादन कार्य भी सरल होगा।
3- कंप्यूटर की सहायता से अनुवाद कार्य संपन्न किया जा सकेगा।
4- भाषा के शोध में कंप्यूटर उपयोगी सिध्द होंगे।
5- कंप्यूटर को यदि किसी नेटवर्क से जोड़ा जाए, तो लोग घर में बैठे विश्वकोश, निर्देशिका आदि की सूचना अपने टेलीविज़न के पर्दे पर देख सकेंगे, और आवश्यकतानुसार वांछित सामग्री की मुद्रित प्रति घर में बना सकेंगे।
6- कंप्यूटर की सहायता से लोगों को शिक्षित किया जा सकेगा।
7- लिखित पाठ को उच्चरित रूप में बदलना, उच्चारण का कंप्यूटर द्वारा लेखन आदि भी संभव होगा।
शब्द संसाधन: शब्द संसाधन (Word Processor) वस्तुत: टंकण कार्य का आधुनिक स्वरूप है। शब्द संसाधन और भाषा संसाधन का आरंभिक सोपान है। हिंदी में भी सर्वप्रथम कंप्यूटर के संदर्भ में शब्द संसाधन का कार्य ही आरंभ हुआ, किन्तु आरंभिक चरण में रोमन लिपि के माध्यम से ही हिंदी पाठों का कुंजीयन किया जाता है। वस्तुत: सामान्य यांत्रिक टाइपराइटर की मदद से किसी पाठ को कागज पर टाइप किया जाता है, किंतु उसमें किसी प्रकार के संशोधन, परिवर्तन या परिवर्धन के लिए उसे फिर से टाइप करना आवश्यक होता है। इलेक्ट्रॉनिक टाइपराइटर पर छोटे-मोटे संशोधन दो-चार पंक्तियों के वीडियों स्क्रीन पर किए जा सकते हैं। नए मॉडल के कुछ इलेक्ट्रॉनिक टाइपराइटरों में छोटा सा स्मृतिकोश भी होता है, जिसमें 15-20 पृष्ठों तक के प्रलेख संग्रहित किए जा सकते हैं, किन्तु कंप्यूटर आधारित शब्द संसाधन की सहायता से संशोधन, परिवर्तन के अलावा हज़ारों पृष्ठों की सामग्री स्मृतिकोश में संग्रहीत की जा सकती है। आवश्यकता पड़ने पर उसे स्क्रीन पर लाकर संशोधित, परिवर्तित और परिवर्धित किया जा सकता है। इससे समूचे अनुच्छेद का एक फाइल से दूसरी फाइल में अंतरण किया जा सकता हैं।
भारत और विदेशों में शब्द संसाधन के अनेक पैकेज विकसित किए गए हैं, जिनमें हिंदी में, द्विभाषिक रूप से या फिर बहुभाषिक रूप में विभिन्न भारतीय भाषाओं के माध्यम से शब्द संसाधन के कार्य किए जा सकते हैं और इनमें प्रमुख है ‘अक्षर’, ‘मल्टीवर्ड’, ‘शब्दमाला’, ‘शब्द रत्न’, ‘बाईस्क्रिप्ट’, ‘आलेख’, ‘भारतीय’, ‘एएलपी’ आदि। इनमें से कुछ पैकेजों में वे तमाम सुविधाएँ भी हैं, जो वर्ड स्टार, वर्ड परफेक्ट, वर्ड, माइक्रो-सॉफ्ट जैसे अधुनातन वर्ड प्रोसेसिंग पैकेजों में सुलभ हैं, किंतु मात्र शब्द संसाधन से किसी भी भाषा में कंप्यूटर संबंधी महत्त्वपूर्ण अनुप्रयोगों को संपन्न नहीं किया जा सकता। इसलिए भारत सरकार के राजभाषा विभाग ने केन्द्रीय सरकारी कार्यालयों के संदर्भ में कंप्यूटर संबंधी भाषा नीति की घोषणा करते हुए स्पष्ट कर दिया था कि किसी भी कंप्यूटर को तभी द्विभाषी माना जाएगा, जब उसमें शब्द संसाधन के साथ-साथ डेटा संसाधन की सुविधा हिंदी-अँग्रेजी में अर्थात् द्विभाषिक रूप में भी उपलब्ध होगी।
डेस्क टॉप प्रकाशन : शब्द संसाधन के समान डेस्क टॉप प्रकाशन (DTP) की द्विभाषी सुविधा भी अत्यंत लोकप्रिय होने लगी है। इससे प्रकाशन और टाइप सेटिंग का कार्य होता है। छोटे पर्सनल कंप्यूटर (PC) के द्वारा दस्तावेज़ों की टाइप सेटिंग की जा सकती है तथा कई टाइप स्टाइलों चित्रों आदि के साथ विस्तृत ‘ले आउट’ बनाया जा सकता है। तत्पश्चात,् इन दस्तावेज़ों को लेकर प्रिंटर पर छापा जा सकता है। आरंभ में यह सुविधा रोमन के ‘वेंचुरा’ सॉफ्टवेयर पर आधारित ‘प्रकाशक’, ‘वीनस’ आदि पैकेजों तक ही सीमित थी, लेकिन अब ‘पेजमेकर’ और ‘विडोंज’ परिवेश में भी देवनागरी में सीधी प्रविष्टि होती है और ‘इंडिका’, ‘इजूम’, ‘सुलेज़र’ आदि अनेक पैकेज आज उपलब्ध हो गए हैं। इन पैकेजों से ‘पेजमेकर’ और ‘विडोंज़’ के अलावा ‘कोरल ड्रा’ जैसे पैकेजाें में भी कार्य करने की सुविधा प्राप्त है। डेस्क प्रकाशन के क्षेत्र में सब से पहले ‘मैकेतो’ का भारतीय भाषाओं में आगमन हुआ, किंतु उसका प्रयोग कुछ मुद्रणालयों तक ही सीमित रहा। कुछ प्रकाशनग्रहों और हिंदी के समाचारपत्रों में सोनाटा कंपनी द्वारा विकसित ‘प्रकाशक’ सॉफ्टवेयर की सहायता से फोटो कंपोजिंग की जाती है। टंकित पाठ को विभिन्न पृष्ठों में विभाजित किया जा सकता है। वर्तनी जाँचक की मदद से टंकित पाठ स्वत: ही संशोधित हो जाता है। स्केनर की मदद से रेखाचित्र या टंकित सामग्री भी कंप्यूटर के स्मृति कोश में सीधी भेजी जा सकती है। इस प्रकार ‘डेस्क प्रकाशन’ प्रकाशन जगत की आज सबसे बड़ी उपलब्धि है।
इंटरनेट: बीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक में कंप्यूटर नेटवर्क के क्षेत्र में क्रांति के रूप में इंटरनेट का विस्तार हुआ। वस्तुत: विश्व में इसक बात की आवश्यकता महसूस की जा रही है कि सूचनाओं का आदान-प्रदान विश्व के एक छोर से दूसरे छोर तक तीव्र गति से कम से कम समय में हो। नवीनतम सूचनाओं को तत्काल प्राप्त करने और उन तक अपनी पहुँच बनाए रखना आज की आवश्यकता बन गई है। विश्व में जो भी होता है, वह इंटरनेट के रास्ते से तत्काल किसी भी पर्सनल कंप्यूटर पर हमारे पास पहुँच जाता है। अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय सूचना नेटवर्क की सूचना को ‘सुपर हाइवे’ कहा जाता है। इंटरनेट की सुविधा जिस शहर में होती है, वह शहर इस विश्व का एक भाग बन जाता है। बीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक के आरंभ में अमेरिका और यूरोप के कुछ विश्वविद्यालयों और शोध केन्द्रों या अमेरिका के अंतरिक्ष अनुसंधान संस्थान ‘नासा’ तक इंटरनेट प्रणाली सीमित थी, किंतु आज इस प्रणाली ने पूरे विश्व को अपने जाल में बाँध रखा है।
कंप्यूटर किसी भी सूचना को चाहे वह शब्दों में हों या ध्वनियों में, फोंटों में हो या दृश्यों में अपनी अंकीय भाषा में परिवर्तित कर सकता है और उन्हें इंटरनेट के माध्यम से प्रसारित कर सकता है। कंप्यूटर का प्रयोक्ता विशेष प्रकार के सॉफ्टवेयर के माध्यम से इन सूचनाओं को अपने कंप्यूटर पर प्राप्त कर सकते हैं। इस रूप में अलग-अलग स्थानों पर कार्यरत कंप्यूटरों को जोड़कर सूचनाओं के आदान-प्रदान के लिए विशेष व्यवस्था की गई है। संचार की इस प्रक्रिया ने समय और स्थान के व्यवधान को समाप्त कर दिया है और भौगोलिक दूरियों को मिटा दिया है, सारे विश्व को एक ग्राम का रूप मिल गया है। वास्तव में यह विश्वग्राम इंटरनेट नेटवर्कों का नेटवर्क है। अधिकतर देश इसके सदस्य हैं। करोड़ों लोग इसके उपभोक्ता हैं। विश्व भर के शैक्षणिक, औद्योगिक, सरकारी और गैरसरकारी संस्थाओं और व्यक्तियों को आपस में यह जोड़ता है। विश्व भर के अलग-अलग प्लेटफार्म पर काम करने वाली नेटवर्क प्रणालियों को एक मानक प्रोटोकोल के माध्यम से यह जोड़ने में सक्षम है। इसका कोई केंद्रीय प्राधिकरण नहीं है, किंतु सभी प्रयोक्ता संस्थाएँ इस पर संदेश के आदान-प्रदान के लिए एक ही पारेषण (Transmission) भाषा या प्रोटोकोल का प्रयोग करती हैं। सन् 1960 में विन्टर सर्फ ने इंटरनेट सोसायटी का गठन किया था और कुछ मेनफ्रेम कंप्यूटरों को परस्पर जोड़ दिया था। यह इंटरनेट सोसायटी स्वैच्छिक संस्थाओं का मात्र संगठन है, जो इंटरनेट के मानकों का निर्धारण करती है और उसके माध्यम से तकनीकी विकास पर नज़र रखती है।
इंटरनेट की प्रणाली पर राष्ट्रीय सीमाओं की कोई विवशता नहीं है। विश्व भर में कहीं भी सूचनाएँ भेजी जा सकती हैं और उनका उत्तार प्राप्त किया जा सकता है। वस्तुत: अमेरिका में इंटरनेट की स्थापना एक विशेष परियोजना के अंतर्गत की गई थी। इसका उद्देश्य परमाणु हमले की स्थिति में संचार का एक नेटवर्क कायम रखना था, किंतु अल्पावधि में ही यह इंटरनेट रक्षा अनुसंधानशालाओं से बाहर आ गया और इसका उपयोग बड़े पैमाने पर कई क्षेत्रों में होने लगा। इसमें माइक्रोसॉफ्ट, एपेल आदि विश्व की अनेक कंप्यूटर कंपनियों ने इसके विकास और प्रसार में उल्लेखनीय कार्य किया है। इंटरनेट से अनेक सुविधाएँ उपलब्ध होती हैं; जैसे- ई-मेल, डब्ल्यू डब्ल्यू डब्ल्यू, होमपेज, सूचना भंडार, खेल, बातचीत, गप्पबाजी, टेलनेट, एफटीपी, आर्ची, गोफर, वेरोनिका। आज हिंदी में इंटरनेट की सुविधा उपलब्ध है।
भारत में इंटरनेट का प्रवेश वर्ष 1987-88 में हुआ था। जनसामान्य के लिए इसकी सुविधा उपलब्ध कराने के उद्देश्य से 15 अगस्त, 1995 को विदेश संचार निगम लिमिटेड ने ‘गेटवे इंटरनेट’ सेवा आरंभी की। इंटरनेट कंप्यूटर के माध्यम से लोकल कॉल, एस.टी.डी. या आई.एस.डी. किसी भी माध्यम को अपनाने पर लोकल कॉल का ही चार्ज लगता है। भारत के 597 जिलों में से तीन सौ से अधिक जिलों में ‘इंटरनेट नोड’ सुविधा उपलब्ध है।
इंटरनेट पर ब्राउजिंग : इंटरनेट संचार के लिए एक पेंटियम ए एम पी प्रोसेसर सहित कंप्यूटर, ऑपरेटिंग सिस्टम (विंडोज आदि), मॉडेम, फ़ोन लाइन, आई पी इंटरनेट अकाउंट आदि की आवश्यकता होती है। मॉडेम कंप्यूटर को टेलिफोन लाइन से जोड़ने के लिए प्रयुक्त होता है। यह आंतरिक मॉडेम भी हो सकता है, बाह्य भी। इंटरनेट पर काम करने के लिए इसका प्रारंभ करने के लिए वेब ब्राउज़र का प्रयोग किया जाता है; जैसे- इंटरनेट एक्सप्लोरर या नेटस्केप नेविगेटर। वेब ब्राउजर वह सॉफ्टवेयर है, जो इंटरनेट प्रयोक्ता और इंटरनेट सिस्टम के मध्य काम करता है। ब्राउजर वेब सर्वर से संपर्क स्थापित करके जानकारी के लिए अनुरोध करता है और जानकारी प्राप्त करने के बाद प्रयोक्ता को उसे कंप्यूटर पर प्रदर्शित करता है। साइटों पर पहुँचने के लिए डब्ल्यू डब्ल्यू डब्ल्यू का प्रयोग होता है और वेब ब्राउजरों की सहायता से इंटरनेट की एक साइट से दूसरी साइट पर जाया जा सकता है। एक साइट से दूसरी साइट पर पहुँचने की क्रिया को ‘सर्फिंग’ या ‘वेब ब्राउजिंग’ कहते हैं। सन् 1993 में डब्ल्यू डब्ल्यू डब्ल्यू के आविर्भाव के पहले इंटरनेट पर काम करते समय दो सर्वरों के बीच संबंध स्थापित करना कठिन काम था। इसलिए इस कठिनाई को दूर करने के लिए डेविड फीलो और जैरी यंग ने एक ऐसी तकनीक विकसित की, जिसके माध्यम से इंटरनेट पर काम करते हुए सूचनाएँ तुरंत प्राप्त की जा सकें। इसके फलस्वरूप सन् 1994 में पहले सर्च इंजिन का आविष्कार हुआ, जो ‘याहू’ (Yahoo) के नाम से जाना जाता है। उसके बाद कई सर्च इंजिनों का आविष्कार हुआ। सर्च इंजिन डेटा बेसों के बल पर बनते हैं। इनमें इंडेक्सिंग स्कीम, क्वाइरी प्रोसेसर और स्पैडर होते हैं। स्पैडर्स ऐसे प्रोग्राम हैं, जिनका निर्माण डेटा बेस में सूचीबध्द वेब पेजों की देखरेख के लिए होता है। टेलिकॉन्फ्रेसिंग, पेजिंग, सेल्युलर, ई-मेल, फैक्स और सेटेलाइट फोन सेवा का सूचना-प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में विशेष योगदान है। सूचना प्रौद्योगिकी के इन उपादानों ने व्यापारिक रूप से परिवर्तन ला दिया है। ये प्रणालियाँ रेडियो तरंगों के माध्यम से प्रयुक्त की जाती हैं।
टेलीकॉन्फ्रेंसिंग : टेलीकॉन्फ्रेंसिंग में विभिन्न संचार माध्यमों का प्रयोग होता है। वास्तव में टेलीकॉन्फ्रेंसिंग दो अथवा अधिक समूहों, अथवा अलग-अलग स्थानों पर बैठे तीन या उससे अधिक व्यक्तियों को ऑडियो, ऑडियोग्राफिक्स, वीडियो और कंप्यूटर पध्दतियों के माध्यम से समूह संप्रेषण में शामिल करने का दो-तरफा इलेक्ट्रॉनिक माध्यम है। कई लोगों के साथ अंत:क्रिया करने के लिए संप्रेषण की सुविधा देने वाले इस दो-तरफा संप्रेषण कार्यक्रम में विभिन्न संचार माध्यमों का प्रयोग होता है। अलग-अलग स्थानों पर बैठे व्यक्ति भौगोलिक दूरी होते हुए भी परस्पर विचार-विनिमय कर सकते हैं। इसमें विद्युतीय बोर्ड, फैक्स कंप्यूटर, ग्राफिक्स, रेडियो, उपग्रह, टेलीविज़न, वीडियो आदि आधुनिक उपकरणों का सम्मिलित प्रयोग होता है। टेलीकॉन्फ्रेंसिंग तीन प्रकार की होती है-
1. श्रव्य टेलीकॉन्फ्रेंसिंग
2. दृश्य टेलीकॉन्फ्रेंसिंग
3. कंप्यूटर टेलीकॉन्फ्रेंसिंग
श्रव्य टेलीकॉन्फ्रेंसिंग में दो-तरफा श्रव्य सुविधा उपलब्ध होती है। इसमें दो व्यक्ति केवल एक-दूसरे की आवाज़ सुन सकते हैं, जबकि दृश्य टेलीकॉन्फ्रेंसिंग में दो-तरफा दृश्य एवं श्रव्य सुविधा उपलब्ध होती है और यह उपग्रह के अप-लिंक सुविधा द्वारा संपन्न होती है। कंप्यूटर टेलीकॉन्फ्रेंसिंग में कंप्यूटर का इस्तेमाल करके दो व्यक्ति अपनी-अपनी सुविधा के अनुसार सूचनाओं का आदान-प्रदान करते हैं।
पेजिंग : पेजिंग सेवा का प्रयोग 50 किलोमीटर की परिधि में किया जा सकता है। पेजिंग प्रयोक्ता निश्चित पहुँच के दायरे में अंकों अथवा शब्दों में संदेश/सूचना भेज सकता है, जो पेपर की स्मृति में जमा भी हो सकती है और पेज-प्रयोक्ता इन्हें बाद में पढ़ भी सकता है। इसका एक लाभ यह भी है कि पेजर-प्रयोक्ता बाद में भी इससे संपर्क कर सकता हैं। इस सूचना-संप्रेषण का कार्य पेजर कंपनी के माध्यम से होता है। ऑपरेटर को टेलीफोन से लिखा देता है, जिन्हें वह अपने एक्सचेंज के माध्यम से रेडियो तरंगों द्वारा संबंधित पेजर को भेज देता है। संदेश अथवा सूचना के प्रसारण की यह एकतरफा सेवा है। सड़क पर, बाज़ार में, शहर-गाँव आदि किसी भी कोने से विश्व में भी फोनधारक से फोन पर सीधे संपर्क स्थापित किया जा सकता है। इस सेवा के अंतर्गत पूरे क्षेत्र को छोटे-छोटे सैलों में विभाजित किया जाता है, जिनका क्षेत्रफल लगभग एक से तीन किलोमीटर तक का होता है। कहीं पर फोन से संपर्क करने के कारण इसे ‘मोबाइल फोन’ सेवा भी कहा जाता है। वर्तमान में इस प्रणाली में ‘वैप’ अर्थात् वायरलैस एप्लीकेशन प्रोटोकोल नामक तकनीक को भी समायोजित कर इसे और अधिक सक्षम बना दिया गया है। इस तकनीक के माध्यम से सेल्युलर फोन के द्वारा इंटरनेट से जुड़ाव कायम किया जा सकता है। इसमें फैक्स एवं ई-मेल की सुविधा भी प्राप्त की जा सकती है।
सेल्युलर सुविधा : सेल्युलर टेलीफोन संदेश अथवा सूचना के प्रसारण दो तरफा सेवा है। इसमें भी संदेश में जाने के लिए रेडियो तरंगों का प्रयोग होता है। भारत में सबसे पहला कोलकाता में मोदी टेलस्ट्रा नेटवर्क ने अगस्त 1995 सेल्युलर फोन सेवा प्रारंभ की। इसका विकास फिनलैंड की नोकिया टेली कम्युनिकेशंस प्राइवेट ने किया। 27 जुलाई, 1995 को मुंबई में हचिन्सन मैक्स टेलीकॉम लिमिटेड ने अपनी सेल्युलर फोन सेवा का प्रदर्शन किया। भारती सेल्युलर लिमिटेड ने दिल्ली में 27 सितंबर, 1995 मो पहली सेल्युलर से टेलीफोन सेवा शुरू की। सेल्युलर फोन सेवा का उपयोग करने वाले प्रत्येक उपभोक्ता को सब्सक्राइबर आइडेंटिटी मॉडयूल (SIM) कार्ड दिया जाता है, जिसमें एक कंप्यूटर चिप होता है। उस कंप्यूटर चिप में उपभोक्ता की संख्या और उसके द्वारा मूल्य-संवर्ध्दित सेवाओं का उल्लेख होता है। एस.आई.एम. कार्ड पर निजी पहचान-संख्या उध्दृत रहती है, जिसका उपयोग उपभोक्ता के लिए आवश्यक है। इसे ‘मोबाइल फोन’ भी कहा जाता है, क्योंकि इस फोन से घर के अलावा सड़क पर, बाज़ार में, शहर-गाँव आदि किसी भी कोने में विश्व में फोनधारक से फोन पर सीधे ही संपर्क स्थापित किया जा सकता है। संप्रति इस प्रणाली में ‘वैप’ (वायरलैस एप्लीकेशन प्रोटोकोल) तकनीक का भी समायोजन कर इसे और अधिक सक्षम बनाया गया हैं। इससे सेल्युलर फोन के द्वारा ‘इंटरनेट’ को भी जोड़ा जा सकता है और फैक्स तथा ‘ई-‘मेल’ की सुविधा भी प्राप्त की जा सकती है।
ई-मेल: इसके माध्यम से व्यक्ति अपने कंप्यूटर से दूसरे कंप्यूटर उपयोगकर्ताओं को संदेश भेज सकता हैं। ई-मेल अर्थात इलेक्ट्रानिक मेल के जरिए आप किसी से भी उसी तरह पत्रव्यवहार कर सकते हैं, जैसे आप फोन कॉल करते हैं। लेकिन टेलीफोन से अलग ई-मेल में आप संदेशों को संरक्षित करके रख भी सकते हैं और शब्द संसाधन दस्तावेज या इमेजों की तरह दूसरों को फाइलें भी भेज सकते हैं। इसके अलावा ई-मेल तब भी भेजा जा सकता है, जब प्राप्तकर्ता उस कंप्यूटर या पते पर मौजूद नहीं हो। यह संदेश उस कंप्यूटर में तब तक रहेगा, जब तक प्राप्तकर्ता (वह व्यक्ति जिसे संदेश भेजा गया है) अपने कंप्यूटर पर मेल बॉक्स खोलकर इसे देख नहीं लेता। ई-मेल भेजने के लिए सही कम्यूनिकेशंस सॉफ्टवेयर तथा मॉडेम की आवश्यकता होती है। साथ ही इंटरनेट कनेक्शन भी लेना पड़ता है। हिंदी में इसे ई-डाक भी कहते हैं।
सेटेलाइट फोन सेवा : पेजिंग एवं सेल्युलर फोन सेवा के अतिरिक्त सेटेलाइट फोन भी एक अनुपम प्रणाली है। वास्तव में उपग्रह-आधारित फोन सेवा पेजर और मोबाइल फोन सेवा का उन्नत रूप है। इनकी तुलना में सेटेलाइट फोन सेवा का आधार काफ़ी विस्तृत और व्यापक है। इसके व्यापक माध्यम से प्रयोक्ता विश्व के किसी भी स्थान से किसी भी अन्य स्थान पर तुरंत संपर्क स्थापित कर सकता है। सेटेलाइट फोन सेवा की यह विशेषता है कि इसके एक ही हैंडसेट के द्वारा फोन के अतिरिक्त फैक्स एवं पेजिंग सेवा का भी इस्तेमाल हो सकता है।
फैक्स: फैक्स (फेसिमील) अल्प समय में ही काफी लोकप्रिय प्रणाली हो गई है। इस प्रणाली का प्रयोग दस्तावेज़ों को भेजने के लिए होता है। यह सूचना प्रौद्योगिकी का वह उपादान-उपकरण है जिसकी सहायता से टेलीफोन नेटवर्क के द्वारा किसी भी दस्तावेज़ को दूरस्थ स्थल पर तत्काल भेजा जाता है। इस प्रणाली को प्रयुक्त करते समय दस्तावेज़ को फैक्स मशीन पर रखकर फैक्स-फोन पर संपर्क किया जाता है। फोन-संपर्क स्थापित होने पर फैक्स मशीन से उस दस्तावेज़-विशेष को किसी भी दूरदराज स्थान पर प्रेषित किया जा सकता है। दूसरे स्थान पर उसकी फोटोकॉपी तत्काल उपलब्ध हो जाती है। तीव्र गति से दस्तावेज़ों को देश-विदेश में भेजने की यह फैक्स प्रणाली अपेक्षाकृत सस्ती है। फैक्स का उन्नत रूप ई-फैक्स है जो इलेक्ट्रॉनिक डाटा इंटरचेंज के माध्यम से उपलब्ध होता है। यह सामान्य फैक्स मशीनों की तुलना में अधिक तीव्रता से दस्तावेज़ प्रोषित कर देता है। इस उपकरण की यह विशेषता है कि वह स्वयं उस पते को खोज लेता है जहाँ दस्तावेज़-विशेष प्रेषित किया जाना होता है। इसकी यह भी विशेषता है कि सर्विस प्रोवाइडर की सहायता से एक साथ कई स्थलों पर दस्तावेज़ प्रेषित किया जा सकता है। त्वरित गति से दस्तावेज़ प्रेषित करने के कारण इससे समय की काफी बचत होती है।
मशीनी अनुवाद : कंप्यूटर से अनुवाद भी हो सकता है। इसे मशीनी अनुवाद या मशीन साधित अनुवाद कहते हैं। इस प्रक्रिया में मूलपाठ को कंप्यूटर में डाला जाता है और उसका अनुवाद कुछ ही क्षणों में आ जाता है। इसमें शब्दकोश और व्याकरणिक प्रक्रिया निहित होती है जो स्वचालित अनुवाद में सहायक होती है। आई. आई. टी. कानपुर और सी-डैक, नोएडा के संयुक्त प्रयास से अँग्रेजी-हिंदी ‘आंग्ल भारती’ मशीनी अनुवाद का विकास हुआ है। इसी के साथ-साथ एक प्राइवेट कंपनी ने ‘अनुवादक’ मशीनी अनुवाद का विकास किया है। हिंदी-अँग्रेजी मशीनी अनुवाद का विकास हो रहा है, जिसमें आई. आई. टी. कानपुर और आई. आई. आई. टी. हैदराबाद संलग्न हैं।
टैलेक्स प्रणाली: इलेक्ट्रोमैकेनिकल युग से आरंभ होकर इलेक्ट्रॉनिक टेलीप्रिंटर/टेलैक्स से होते हुए आज यह प्रणाली कंप्यूटर युग तक पहुँच गई है। आज आप अपने कंप्यूटर पर टेलेक्स कोड लगा कर संदेशों का आदान-प्रदान कर सकते हैं। इस सुविधा को हिंदी में सुलभ करने के लिए डाटा वाइट, सीएससी, एचसीएल आदि अनेक कंपनियों ने द्विभाषी उपकरण विकसित किए हैं। इसके अलावा आर के रिसर्च कंप्यूटर फाउडेंशन ने ‘सुलिपि’ सॉफ्टवेयर पर आधारित एक इंटरफेस का विकास किया है, जिसकी सहायता से किसी भी कंप्यूटर पर हिंदी में संदेशों का आदान-प्रदान किया जा सकता है।
फिल्मी उपशीर्षक और वीडियो : फिल्मों के उपशीर्षक हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में लिखने का कार्य भी आरंभ हो गया है। नवंबर, 1992 में नई दिल्ली में आयोजित अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह के अवसर पर दूरदर्शन द्वारा प्रसारित हिंदी फिल्म ‘सलाम बॉम्बे’ के उपशीर्षक विभिन्न राज्यों में उनकी अपनी भाषाओं में ही प्रदर्शित किए गए थे। ‘लिप्स’ (LIPS) नाम से प्रसिध्द इस प्रौद्योगिकी का विकास सी-डैक, पुणे के जिस्ट ग्रुप द्वारा किया गया था। इसी प्रौद्योगिकी के दूसरे चरण के रूप में वीडियो वक्र्स के कार्य को भी हिंदी में प्रदर्शित करने के लिए आवश्यक सॉफ्टवेयर का विकास किया जा रहा है, जिसकी सहायता से रेलवे आरक्षण, गाड़ियों के आवागमन, हवाई जहाजों के आगमन आदि से संबंधित सूचनाएँ टी.वी. मॉनिटर के जरिए हिंदी में भी प्रदर्शित की जा सकेंगी। मै. आर के कंप्यूटर रिसर्च फाउंडेशन द्वारा भी ‘सुलिपि’ पर आधारित एक इंटरफेस का विकास किया गया है, जिसकी सहायता से वीडियो वक्र्स से संबंधित सभी कार्य हिंदी में भी संपन्न किए जा सकेंगे।
किसी विकासशील समाज में जैसे-जैसे भाषायी आवश्यकता बढ़ती है, भाषा की भूमिकाओं में भकी वृध्दि होती है और प्रयोजनों में विस्तार होता है, वैसे-वैसे इन नए दायित्वों के निर्वाह के लिए यांत्रिक साधनों का विशेष योगदान रहता है। किसी ज़माने में पुस्तक के मुद्रण और प्रकाशन में महीनों लग जाते थे, किंतु आज मुद्रण के क्षेत्र में हुए विकास से प्रकाशन कार्य त्वरित गति से हो रहा है। आजकल मुद्रण की सामग्री तैयार करने में कंप्यूटर की उल्लेखनीयभभूमिका है। इससे सामग्री शीघ्रातिशीघ्र संपादित तो हो जाती है, सामग्री संकलन और संपादन कार्य में प्रेस में जाने की आवश्यकता भकी नहीं पड़ती। कंप्यूटर की सहायता से अपने कक्ष में ही मुद्रण की सामग्री को अंतिम रूप दिया जा सकता है।
कंप्यूटर मुद्रण के अतिरिक्त अनुवाद, कोश-निर्माण, शिक्षण, सूचना-संग्रह आदिभभाषा से जुड़े विभिन्न कार्यक्षेत्रों में यांत्रिक साधनों की विशेष भूमिका रहती है। हिंदी भाषा और देवनागरी लिपि के क्षेत्र में साफ्टवेयर जैसे यांत्रिक साधनों का जो विकास हुआ है, वह एक क्रांतिकारी आविष्कार है। इसके अतिरिक्त हिंदी में प्रकाशिक संप्रतीक अभिज्ञान (ओ.सी.आर), वर्तनी जाँचक, मशीनी अनुवाद, वाणी को लेखन में और लेखन को वाणी में लाने के यांत्रिक साधनों का विकास हो रहा है। इस प्रकार वीडियो डिस्क, टेलीटेक्स्ट, वीडियो टेक्स्ट, टेलीकॉन्फ्रेंसिंग, पेजिंग, ई-मेल, सेल्युलर, सेटेलाइट फोन और फैक्स आदि के यांत्रिक साधन हैं जो मानव-जीवन के विकास को नया आयाम प्रदान करते हैं। किंतु इस तथ्य को भी नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है कि इन यांत्रिक साधनों के केंद्र में कंप्यूटर-प्रौद्योगिकी अवस्थित है। सूचना-प्रौद्योगिकी के इन विविध उपादानों में कंप्यूटर की भूमिका सर्वाधिक महत्त्व है। वस्तुत: कंप्यूटर के अभाव में सूचना-प्रौद्योगिकी के वर्तमान स्वरूप की परिकल्पना निरर्थक है। कंप्यूटर, यांत्रिक साधनों का अनिवार्य हिस्सा है, जिससे हिंदी भाषा का विकास संभव है।