अनुवाद का सैध्दांतिक परिप्रेक्ष्य

अनुवाद भूमंडलीकरण के युग में एक महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक और भौगोलिक सेतु का कार्य कर रहा है जिसके माध्यम से भाषाई संप्रेषण एवं ज्ञान के विस्तार को प्रमुखता मिल रही है। वर्तमान तकनीकी युग में अनुवाद का योगदान बहुत ही बुनियादी रूप में हैं। अनुवाद चूँकि एक भाषाई विनिमय की प्रक्रिया है इसलिए इसके सैद्धांतिक परिप्रेक्ष्य का महत्त्व भी उतना ही है। अनुवाद की सैद्धांतिकी के संदर्भ में आज के समय में कई पुस्तकें अध्ययन जगत में उपलब्ध हैं, लेकिन अनुवाद की सैद्धांतिकी को जानने हेतु समीक्षा के लिए डॉ. जी. गोपीनाथन द्वारा लिखित पुस्तक ‘अनुवाद: सिद्धांत एवं प्रयोग’ का महत्त्व विषम भाषा-भाषी समाज के संबंध में है। लेखक मूलत: दक्षिण भारतीय (मलयालम भाषी) हैं। इन्होंने अलीगढ विश्वविद्यालय में पढाई के उपरांत कोचीन विश्वविद्यालय में अनुवाद पाठ्यक्रम (1969-71) में अध्यापन कार्य किया तथा विषम भाषा-भाषी समाज के संबंध में अनुवाद की भाषावैज्ञानिक समस्याओं से परिचित हुए। उसके बाद लेखक ने देश-विदेश में अध्ययन तथा अध्यापन के जरिए अनुवाद से जुड़ी समस्याओं पर विश्लेषण एवं शोध को जारी रखा।

अनुवाद सिद्धांत एवं प्रयोग
द्वारा डॉ. जी. गोपीनाथन,

लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद

छठवाँ संस्करण: 2008

पृ.100, मूल्य: 35 रू.

लेखक ने इस पुस्तक में मूल रूप से अनुवाद के सिद्धांत एवं उसके व्यावहारिक स्वरूप को स्पष्ट किया है। पुस्तक में यह दिखाया गया है कि अनुवाद किस तरह य़ूरोपीय देशों से उभरकर भारत में आया और वह किस तरह सांस्कृतिक सेतु का माध्यम बना साथ ही अनुवाद को भाषा वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखते हुए उदाहरणों के साथ स्पष्टीकरण भी दिया गया है।

समीक्ष्य पुस्तक के प्रथम अध्याय ‘अनुवाद: एक सांस्कृतिक सेतु’ में लेखक ने स्पष्ट किया है कि, ‘अनुवाद मानव सभ्यता के साथ विकसित ऐसी तकनीक है, जिसका अविष्कार मनुष्य ने बहुभाषिक स्थिति की विडम्बनाओं से निपटने के लिए किया है।’ इसी संदर्भ में ‘बेबल’ कथा का उल्लेख किया है जिसमें कहा गया है कि ‘मानव ने जब शिनार देश में एक अपूर्व नगर एवं मीनार बनाकर यहोवा से टक्कर लेना चाहा तो उसने उनकी भाषा में भेद उत्पन्न किए जो आपसी फूट का कारण बना’। इसी के फलस्वरूप अनुवाद को एक नई दिशा एवं गति मिली। उन्होंने स्पष्ट किया है कि अनुवाद के सहारे ही विश्वसाहित्य का निर्माण हुआ और यूरोप के नवजागरण में ग्रीक एवं लैटिन ग्रंथों के अनुवाद की महत्वपुर्ण भूमिका रही है। भारतीय में भी दार्शनिक एवं आध्यात्मिक ग्रंथो के अनुवादों ने विश्व की भौतिक एवं आध्यात्मिक संस्कृति के विभिन्न आयाम को विकसित किया है। अनुवाद ने विश्व में वसुधैवकुटुम्बकम की भावना विकसित कर संपूर्ण एकता एवं समझदारी की भावना विकसित की है। (पृ.11)

‘अनुवाद का स्वरूप एवं प्रक्रिया’ अध्याय में लेखक ने बताया कि अनुवाद दो भाषाओं के बीच संप्रेषण की प्रक्रिया है जिसके लिए अंग्रेजी में ‘ट्रांसलेशन’, फ्रेंच में ‘ट्रडूक्शन’, अरबी में ‘तर्जुमा’ आदि शब्द का प्रयोग किया जाता है। फिर लेखक ने अनुवाद की परिभाषा को और भी सरल और स्पष्ट किया है। ‘पहले किसी भाषा में लिखी गयी या कही गयी बात को बाद में किसी अन्य भाषा मे लिखना या कहना’ अर्थात भाषा के बदलाव के साथ स्रोत भाषा में कही गई बात की आत्मा में कोई बदलाव ना आते हुए उसे लक्ष्य भाषा में मूल भाषा की तरह अनूदित करना ही इसकी सार्थकता है।

जिस प्रकार नाइडा ने अनुवाद प्रक्रिया में अर्थ की महत्ता और प्रतीकों पर ध्यान केन्द्रित करने की बात कही है उसी प्रकार डॉ. गोपीनाथन ने भी अनुवाद में अर्थ संप्रेषण की प्रक्रिया एवं उसके अन्य पहलुओं पर महत्व दिया । अनुवादक, अनुवाद में अर्थ को बनाए रखते हुए अन्य भाषा में अन्तरण करता है लेकिन इस अनुवाद में मूल प्रभाव का कुछ अंश नष्ट होने की संभावना रहती है। इसलिए अनुवादक को ऐसे उपयुक्त शब्दों को चुनना चाहिए जिनके माध्यम से मूल के अर्थ को संप्रेषित किया जा सके। (पृ.15)

‘अनुवाद : एक वैज्ञानिक कला’ अध्याय में लेखक ने अनुवाद का विश्लेषण, वैज्ञानिक दृष्टि से करते हुए बताया कि अनुवाद को प्राचीन काल से कुछ विद्वान कला मानते आए हैं, तो आधुनिक युग में कुछ विद्वान उसे विज्ञान मानते हैं, वहीँ कुछ लोग अनुवाद को कला या विज्ञान न मानकर उसे शिल्प (Craft) मानते हैं। अनुवाद को कला मानने के पक्ष में थियोडर सेवरी ने अपने ‘अनुवाद की कला’ नामक ग्रंथ में अनुवाद के संदर्भ में ‘निकटतम समतुल्यता’ का महत्व बताया है। उनके अनुसार अनुवादक, अनुवाद में सहज समतुल्यता के आधार पर उपयुक्त शब्दों और पर्यायों का चुनाव करता है, जिससे अनुवादक का ज्ञान आधारित व्यक्तित्व भी अनुवाद में प्रकट होता है और उसकी एक शैली भी होती है। अनुवाद को कला मानने का मुख्य आधार मूल कृति की आत्मा को अनुवाद में उतारने के काम को एक कला बताया है। (पृ.20)

अनुवाद को विज्ञान मानने वाले विद्वान इस पुस्तक में अस्पष्ट है लेकिन कहते है कि अनुवाद एक ऐसी वैज्ञानिक प्रक्रिया है जिसमें अद्यतन कुछ निश्चित नियमों को मानकर चलना पड़ता है और अनुवादक को तटस्थ होकर, सत्यनिष्ठा के साथ, ईर्ष्या, द्वैष अथवा अंधभक्ति से बचकर अनुवाद करना होता है। अनुवाद को शिल्प (Craft) मानने के पक्ष में पीटर न्यूमार्क हैं। उनके अनुसार आज अनुवाद की सामग्री तथ्यात्मक, सूचनात्मक और तर्कपूर्ण है। विशेषकर पत्रकारिता, अर्थशास्त्र, राजनीतिशास्त्र तथा विज्ञान के क्षेत्र में आज तत्काल अनुवाद की माँग बढ गयी है और अनुवाद को यांत्रिक तत्परता से करना पड़ रहा है अतः अपने इसी तकनीकी चरित्र के कारण वह प्राय: एक शिल्प है। वहीँ इयान फिनले के अनुसार अनुवाद शिल्प और कला दोनों ही है। (पृ.22)

‘अनुवाद के प्रकार’ अध्याय में विषय वस्तु के रूप में अनुवाद के दो प्रकार ‘साहित्यिक अनुवाद’ और ‘साहित्येतर अनुवाद’ बताए हैं। साहित्यिक अनुवाद में काव्यानुवाद, नाटकानुवाद, कथा साहित्य का अनुवाद तथा गद्यरूपों में जीवनी, आत्मकथा, निबंध, आलोचना डायरी, रेखाचित्र संस्मरण आदि का अनुवाद किया जाता है। उनमें लेखक ने काव्यानुवाद पर प्रकाश डाला है, काव्यानुवाद करना एक कठिन कार्य है जिसमें मिथक, आलंकारिक भाषा, काव्यपरंपरा आदि का प्रयोग किया जाता है। जो यह काम एक अत्यंत संवेदनशील अनुवादक ही कर सकता है I भारतीय भाषाओं के काव्यों के अनुवाद के लिए रवीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा गीतांजली के अनुवाद में प्रयुक्त मुक्त छन्द का एक अच्छा नमूना कहा जाता है। (पृ. 27)

नाटकानुवाद में अभिनय एवं संवाद, सांस्कृतिक परिवेश, पात्र की भाषा शैली आदि पर भी लेखक ने विचार स्पष्ट किए है। कथासहित्य के अनुवाद में भी भाषा की समस्याएँ, पात्र नामों के उच्चारण एवं लक्ष्य भाषा में अनुलेखन से लेकर आचंलिक शब्द प्रयोगों के लिए समान शब्दों के प्रयोग पर समस्याएँ बताकर व्यावहारिक समाधान निकाला है। पात्र नामों के अनुलेखन में रूसी, फ्रेंच आदि भाषाओं से भारतीय भाषाओं में अनुवाद करते समय समस्याएँ उत्पन होती है। उदाहरण के लिए पुस्तक में रूसी में प्रत्येक नाम का लघु रूप स्पष्ट किया जो मूल से थोडा भिन्न होता है :

जैसे- न्यूरा- अन्ना का लघु रूप

सोन्या- सोफ्या का लघु रूप

मीषा- मिखाइल का लघु रूप (पृ. 32)

पहले नाम में कुछ अंश अतिरिक्त आत्मीयता एवं प्यार की भावना जुड़ी है जिसे भारतीय भाषाओं द्वारा सूचित करना कठिन होता है। कथा साहित्य में नदी, पहाड़, स्थान एवं व्यक्ति नामों के लिप्यंतरण और ध्वन्यानुकूलन की समस्याएँ इस दृष्टि से महत्वपूर्ण है।

साहित्येतर अनुवाद में वैज्ञानिक एवं तकनीकी अनुवाद, वाणिज्य अनुवाद, मानविकी विषयों के अनुवाद लोकप्रिय होते हैं। इनकी भाषा सरल एवं स्पष्ट होती हैं। शिक्षा के माध्यम में परिवर्तन के साथ-साथ सभी विकासशील देशों में इन विषयों के ग्रंथो के अनुवाद की आवश्यकता बढ़ गयी है। समाचार के शीर्षकों के अनुवाद में तथा वाक्यरचना में रोचकता, सरलता एवं बोधगम्यता के साथ भाषा की प्रकृति का ध्यान रखने की बात लेखक कहते हैं I साथ ही शीर्षकों के बारें में आम सुझाव भी दिया है कि अंग्रेजी शब्द से नकल न करते हुए स्वतन्त्र रूप से उचित एवं आकर्षक शीर्षक दिए जाए और वाक्यरचना में मूल के क्रम पर ध्यान न देकर लक्ष्य भाषा की स्वाभाविक वाक्यरचना को अपनाना चाहिए।

प्रशासनिक अनुवाद में प्रशासनिक शब्दावली की कठिनाई पर लेखक का मानना है कि अंग्रेजी के शब्द के लिए कभी-कभी भारतीय भाषाओं में एकाधिक शब्द मिलते है, जिनका प्रयोग प्रसंगानुसार किया जाना चाहिए। जैसे- Confidential – गोपनीय, अंतरंग, Interest- अभिरूचि, हित, स्वार्थ, ब्याज, वृध्दि आदि शब्द के अर्थ होते है जिनका प्रयोग उचित शब्दों का चयन कर प्रसंगानुरूप करना चाहिए। (पृ. 41)

‘अनुवाद प्रक्रिया के तकनीकी पहलू’ अध्याय में लेखक ने बताया कि स्रोत एवं लक्ष्य भाषाओं पर पर्याप्त अधिकार के लिए अनुवादक को दोनों भाषा का जानकार होना चाहिए। साथ ही अनुवादक को विषय का सम्यक ज्ञान भी होना आवश्यक है वह विषय तकनीकी हो, वैज्ञानिक तथा साहित्यिक हो सकता है। लेकिन अनुवादक को तटस्थता के साथ मूल लेखक के प्रति पाठनिष्ठ रहते हुए अनुवाद करने की क्षमता होनी चाहिए। अनुवादक संपूर्ण स्रोत सामग्री को विषयगत और भाषागत दृष्टि से समझने के बाद उसका अनुवाद मूल जैसा करता है। जिस पर लेखक ने व्यावहारिक समाधान भी दिया है ।

‘यूरोप में अनुवाद सिद्धांतो का विकास’ अध्याय में लेखक ने बताया कि यूरोप में अनुवाद सिद्धांतो का विकास किस तरह हुआ। यह प्रमुख रूप से बाइबिल तथा ग्रीक एवं लैटिन ग्रंथो के अनुवाद के संदर्भ में हुआ है। यूरोपीय देशों में विभिन्न विद्वानों ने अनुवाद के इतिहास के बारे में सिद्धांत को प्रतिपादित किया है लेकिन उनमें प्रमुख अनुवाद विदों का परिचय इस प्रकार दिया है :

· सेंट जेरोम : रोम के प्रसिद्ध अनुवादक थे, जिन्होने बाइबिल का अनुवाद करने के साथ-साथ अनुवाद के सैध्दांतिक पक्ष पर भी विचार किया ।

· मार्टिन लूथर : मार्टिन लूथर मध्य युग के प्रमुख चेतना संपन्न क्रांतिकारी थे जिन्होंने सन-1522 में लैटिन से जर्मन भाषा में बाइबिल का अनुवाद कर बहुत बडी क्रांति की और अनुवाद की बोधगम्यता पर बल दिया।

· ड्राइडन : अंग्रेजी भाषा में ड्राइडन ही पहले व्यक्ति है जिन्होंने अनुवाद को कला के रूप में मान्यता देते हुए अनुवाद में निश्चित सिद्धांतो का पालन करने के लिए अनुवाद के तीन प्रकार : शब्दानुवाद (Metaphrase), भावानुवाद (Paraphrase) और अनुकरण (Imitation) को बताया।

· एलेक्जेंडर पोप : पोप के विचार ड्राइडन के विचारों से काफी साम्यता रखते हैं, उनके अनुसार कोई भी शाब्दिक अनुवाद मूल का उत्तम अनुवाद नहीं हो सकता और भावानुवाद में भी मूल के किसी तरह का परिवर्तन नहीं होना चाहिए।

थियोडर सेवेरी ने अपने ग्रंथ ‘Art of Translation’ में अनुवाद के बारे में लिखा :

1] अनुवाद मूल के शब्दों पर आधारित होना चाहिए।

2] अनुवाद में मूल की शैली प्रतिबिंबित होनी चाहिए।

3] अनुवाद मूल समसामायिक रचना जैसा होना चाहिए।

4] अनुवाद में मूल से कुछ भी घटाया या बढाया नहीं जा सकता।

विभिन्न यूरोपीय विद्वानों के विचारों का प्रभाव अनुवाद के सिद्धांत पर पड़ा है। इसी के रूप में अनुवाद के समकालीन सिद्धांत, अनुवाद की समस्याओं के भाषावैज्ञानिक अध्ययन की उपज कहा गया है। (पृ.55)

‘अनुवाद की भाषावैज्ञानिक समस्याएँ : सैध्दांतिक रूपरेखा’ अध्याय में लेखक ने अर्थपरक समस्याओं पर विचार किया है। जिनमें सामाजिक सांस्कृतिक समस्याएँ महत्वपूर्ण हैं I अनुवाद में अर्थ की सबसे बड़ी समस्यां सामाजिक-सांस्कृतिक तत्वो के अन्तरण में उत्पन्न होती है। मैलिनोव्स्की आधुनिक युग के प्रसिद्ध नृतत्वविज्ञानी है, जिन्होंने अनुवाद प्रक्रिया में शब्दों की सामाजिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि से जुड़ी समस्या पर गंभीरता से विचार किया है। उन्होंने ‘साहचर्य का संदर्भ सिद्धांत’ को नया रूप दिया। उनके अनुसार अनुवाद की प्रमुख कठिनाई का कारण शब्दों के पीछे निहित सांस्कृतिक संदर्भ है। यह सांस्कृतिक संदर्भ उसके बोलने वालों के रीति-रिवाज, आचार-विचार आदि पर आधारित है। इस कारण मैलिनोव्स्की के अनुसार अनुवाद से मतलब “सांस्कृतिक संदर्भो का ऐक्य अथवा समतुल्यता” से है। (पृ.58)

अनुवाद की शैलीपरक समस्या में लेखक कहते है कि भाषा शैली के सन्दर्भ में अनुवाद की शैलीगत कई सामान्य समस्याएँ आती है, जबकि प्रत्येक लेखक की अपनी अलग शैली होती है। जैसे- प्रेमचन्द, नेहरू या गांधी की रचनाओं के अनुवाद में भिन्न-भिन्न शैलियों को अपनाना पड़ेगा। अनुवाद में कैटफोर्ड ने भी शैली की समस्याएँ में स्वनीम स्तरीय, शब्द स्तरीय, रूप स्तरीय और वाक्य स्तरीय समस्याएँ बतायी है।

‘अनुवाद की भाषावैज्ञानिक समस्याएँ’ : एक अनुप्रयोग’ अध्याय में लेखक ने अनुवाद के स्वरूप को स्पष्ट किया है जिसमें हिंदी और मलयालम भाषा के उदाहरण दिए गए है। अनुवाद में अर्थ की समस्या में आने वाले अभिधेय अर्थ से व्यंगार्थ अर्थ की समस्या को उठाया गया है। अनुवाद में कई स्थलों पर अभिधेयार्थ के साथ लक्ष्यार्थ और व्यंगार्थ को भी लक्ष्य पाठ में संप्रेषित करना पड़ता है। उसमें शब्दानुवाद की भी समस्या आती है जिनमें एक शब्द के अनेक अर्थ होते हैं। हिंदी ‘रंग’ शब्द के अनुवाद में ‘रंग’ शब्द के अनेक प्रयोग होते है, जिनमें से कुछ प्रयोग इस प्रकार दिए गए है : रंग पकड़ना, रंग देना, रंगीन का शब्दानुवाद अन्य भाषाओं में हो सकता है, परंतु अन्य प्रयोगों का शब्दानुवाद करने पर उनमें निहित व्यंगार्थ या ध्वनि नष्ट हो जाती है। जिसके लिए संदर्भ के अनुसार शब्द का चयन करने के लिए लेखक कहते है।

भारत में परिवार और उसके विविध रूप अपना विशेष महत्त्व रखते हैं I ‘रिश्ते-नाते’ की शब्दावली के अनुवाद में लेखक बताते है कि इस तरह की शब्दावली में एक पूरी सामाजिक व्यवस्था होती है। केरल में मातृ-सत्तात्मक ढाँचे के कारण पहले सम्पति का अधिकारी भानजा या भानजी होती थी। वे अपने मामा के साथ रहते थे, लेकिन अब यह प्रथा बदल रही है, परन्तु विवाह अब भी मामा, फूफी आदि के पुत्र-पुत्री से हो सकता है। इसी प्रकार हिंदी के ‘दादा’ ‘बाबा’ का संबोधन मलयालम में नहीं होते। हिंदी समाज में चाचा को अधिक आदर दिया जाता है, जिसमें ‘नेहरू चाचा’ का प्रयोग करते है, वैसे मलयालम में इसका अनुवाद करते समय ‘नेहरू मामन’ या ‘नेहरू अम्मावन’ का प्रयोग करना पड़ेगा क्योंकि मलयालम समाज ‘मामा’ को अधिक आदर देते हैं। (पृ.69)

किसी भी भाषा में मुहावरें और लोकोक्तियों की भूमिका चाहे-अनचाहे रूप में अवश्य ही रहती है । उस भाषा में कहावतें-मुहावरें इत्यादि उसकी भाषिक सुन्दरता का प्रमाण होती हैं। डॉ. गोपीनाथन ने मुहावरों के अनुवाद की समस्याओं के सन्दर्भ में व्यावहारिक रूप के विश्लेषणपरक समाधान बताया है कि जहाँ लक्ष्य भाषा में स्रोतभाषा के मुहावरे के लिए समान मुहावरा मिलता हो उसे अनुवादक को प्रयोग करना चाहिए। साथ ही जहाँ पूर्ण रूप से समान मुहावरा न मिले वहाँ पर अर्थ की दृष्टि से लगभग समीप के मुहावरे से प्रतिस्थापन किया जाना चाहिए। लेखक ने लिप्यंतरण में उच्चारण से ज्यादा वर्तनी पर ध्यान दिया है। उदाहरण के लिए मलयालम में ‘ट’ का उच्चारण हिंदी के ‘ड’ जैसा होता है, परंतु लिप्यंतरण में भाषा के अनुसार भिन्नता देखने को मिलती है। कुछ शब्दों को हिंदी से मलयालम भाषा में भिन्न-भिन्न रूपों में लिखा जाता है-

हिंदी मलयालम

थामस तोमस

जान जीण

कनाड़ा क्यानड़ा

वाल्जाक बाल्साक (पृ. 86)

लेखक ने ध्वन्यानुकुल की समस्या से निपटने के लिए व्यावहारिक समाधान के महत्व पर कुछ विश्लेषणात्मक पहलुओं को बताया है।

1] अनुवादक को आगत शब्दों का अन्तरण करते समय लक्ष्य भाषा में उस शब्द का जो स्वभाविक उचारण हो उसे अपनाने को कहा। जैसे ‘High School’ शब्द को हिंदी में ‘हाई स्कूल’ और मलयालम में ‘हैस्कूल’ लिखना चाहिए।

2] यदि मूल शब्द के वास्तविक उच्चारण से भिन्न उच्चारण लक्ष्य भाषा में पहले से प्रचलित हो तो उसे उसी रूप में लेना चाहिए। यदि ऐसा कोई भी शब्द भाषा में पहले से प्रचालित हो तो उसे उसी रूप में लेना चाहिए।

3] लक्ष्य भाषा में एक से अधिक उच्चारण प्रचालित हों तो उनमें से अधिक प्रचलित उच्चारण को अनुवादक प्रयोग कर सकता है। जैसे, हिंदी में रेस्टोरेंट, रेस्तोरा, रेस्रा आदि प्रचलित है, उनमें से अनुवादक ‘रेस्रा’ को अपना सकता है।

संक्षेप में अनुवाद की उपर्युक्त अर्थपरक, सांस्कृतिक एवं शैलीपरक समस्याओं में आधुनिक भाषाविज्ञान इन समस्याओं के समाधान करने में अनुवादक की सहायता करता है जिसमें इस समस्या के समाधान के साथ उसके व्यावहारिक प्रयोग को भी स्पष्ट किया है ।

निष्कर्ष रूप में लेखक ने इस पुस्तक में विभिन्न पाठों के माध्यम से अनुवाद सैद्धांतिकी के पक्ष को मजबूत बनाया है जिससे आधुनिक भारतीय विदवानों को अनुवाद सिद्धांत निर्माण में काफी प्रेरणा मिली जिससे अनुवाद को एक नई दिशा मिली है। आज इस पुस्तक का उपयोग शोध के क्षेत्र में महत्वपूर्ण रूप से किया जाता है । लेखक ने इस पुस्तक में अनुवाद में आने वाली अर्थपरक, सामाजिक, सांस्कृतिक तथा शैलीपरक समस्यांओं को सरल रूप में स्पष्ट करते हुए उसका व्यवहारिक समाधान भी स्पष्ट किया जिससे अनुवाद में सहायता होती है। लेखक दोनों भाषाओं हिंदी और मलयालम के जानकार होने के वजह से उन्होंने दोनों भाषा का तुलनात्मक अध्ययन कर के उदाहरण देकर ‘अनुवाद के भाषा-वैज्ञानिक पक्ष’ को मजबुत किया है । इस तरह पुस्तक की संपूर्ण पाठों को पढने के बाद यह कहा जा सकता है कि यह पुस्तक अनुवाद सैद्धांतिकी की प्रक्रिया और व्यावहारिकता को अधिक विस्तृत करने में सक्षम है ।

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