भाषा-परिवार के आधार पर अँग्रेजी-हिंदी भाषाओं का तुलनात्मक अध्ययन

भाषा-परिवार के दृष्टिकोण से देखा जाए, तो अँग्रेजी एवं हिंदी दोनों ही भाषाएँ भारोपीय भाषा-परिवार से संबंधित हैं। अँग्रेजी एवं हिंदी भारोपीय भाषा परिवार के अलग-अलग शाखाओं से संबंध रखती हैं। भारोपीय भाषा-परिवार का क्षेत्र काफी वृहद है, क्योंकि इसमें भारत एवं यूरोप से संबंधित बहुत-सी भाषाएँ सम्मिलित हैं। यह कहना कतिपय तर्कसंगत नहीं होगा कि भारोपीय भाषा-परिवार में भारत एवं यूरोप की सभी भाषाएँ समाहित हो जाती हैं क्योंकि यहाँ की बहुत-सी भाषाएँ अन्य भाषा-परिवारों से संबंध रखती हैं। भारत के दक्षिण प्रांत की भाषाएँ जैसे-तमिल, तेलुगु, मलयालम इत्यादि भाषाएँ द्रविड़ भाषा-परिवार से संबंध रखती हैं। वैसे भारोपीय भाषा-परिवार की भाषाओं को बोलने वालों की संख्या अन्य सभी भाषाओं के बोलने वालों से कहीं अधिक है या यू कहें कि सर्वाधिक है। इस-परिवार की भाषाओं को बोलने वाले जितने लोग हैं उतने किसी भी भाषा को बोलने वाले नहीं है। यदि साहित्यिक दृष्टिकोण से भी देखा जाए, तो इस-परिवार की भाषाएँ अन्य से बहुत अधिक हैं। इसका साहित्य सबसे अधिक प्राचीनतम है। यह भाषा-परिवार संस्कृति के दृष्टि से भी सबसे आगे हैं। इसकी भाषाएँ संपूर्ण विश्व में अपना वर्चस्व स्थापित किए हुए हैं। विश्व का कोई ऐसा स्थान नहीं है जहाँ ये भाषाएँ बोली न जाती हों। वैज्ञानिकता के क्षेत्र में भी इसने अपना आधिपत्य स्थापित किया है इसमें बोली जाने वाली अँग्रेजी भाषा ने भी विज्ञान के क्षेत्र में बहुत अधिक प्रगति की है। भारोपीय भाषा-परिवार के विस्तार के पीछे कुछ राजनीतिक कारण भी ध्यातव्य हैं। यूरोपीय देशों ने जिस प्रकार पूरे विश्व में अपनी सत्ता स्थापित की उससे लोगों को इन भाषाओं के प्रचार-प्रसार का अवसर मिला और इनका विस्तार और तीव्रता के साथ हुआ।

भाषाविज्ञान के दृष्टिकोण से भी ये भाषा-परिवार बहुत अधिक महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि सबसे अधिक अध्ययन एवं विश्लेषण इन्हीं भाषाओं का हुआ है। भाषाविज्ञान जैसी विधा का आरंभ ही इन्हीं भाषाओं के अध्ययन के साथ हुआ है। सर विलियम जोंस ने 1886 में अपने एक भाषण में भाषाओं की समरूपता पर अपना वक्तव्य देते हुए कहा कि “ग्रीक और लातिन का संस्कृत से इतना घनिष्ठ संबंध है कि वे निश्चित ही किसी एक सामान्य स्रोत से निकली प्रतीत होती हैं, जो स्रोत अब संभवतः नष्ट हो गया है”। इनके इसी भाषण से तुलनात्मक भाषाविज्ञान का प्रारंभ हुआ था

“भारोपीय भाषापरिवार की शाखाएँ:[1]

  1. भारत-ईरानी (आर्य)
  2. बाल्तो-स्लाविक
  3. आरमीनी
  4. अलबानी
  5. इतालिक
  6. ग्रीक
  7. जर्मनिक
  8. केल्टिक
  9. तोखारी
  10. हित्ति

इस प्रकार देखा जा सकता है कि भारोपीय भाषा-परिवार को 10 शाखाओं में विभाजित किया गया है। “किन्तु इन्हीं शाखाओं को अस्कोली नामक भाषाविद् ने 1870 में इन्हें दो भागों (सतम् एवं केंतुम्) में विभाजित किया”[2]

क्योंकि इन भाषाओं की ध्वनियों के वर्गीकरण के उपरांत यह स्पष्ट हुआ कि इनमें से कुछ शाखाओं में कंठ्य ध्वनियाँ उच्चरित हो रही हैं किंतु कुछ की ध्वनियाँ संघर्षी की श्रेणी में आती हैं। इस आधार पर इनको सत्तम् एवं केंतुम् दो भागों में बाँट दिया गया। जिनमें प्रथम् चार भाषाओं को ‘सतम्’ वर्ग में रखा गया एवं अन्य को ‘केंतुम्’ वर्ग में रखा गया। ‘हिंदी’भारोपीय भाषा-परिवार एक शाखा यानी ‘भारत-ईरानी (आर्य)’ के अंतर्गत आती है। आर्य भाषा मेंभी भाषाओं उत्तरोत्तर विकास के क्रम में ‘हिंदी’ का विकास काल ‘आधुनिक आर्य भाषा’ के अंतर्गत हुआ। इसके पहले ‘संस्कृत’, ‘पालि’, ‘प्राकृत’, एवं ‘अपभ्रंश’ का क्रमवार विकास हुआ। विकास के इस क्रम ने हिंदी को जन्म दिया। ‘अँग्रेजी’ ‘जर्मनिक’ भाषा-परिवार के अंतर्गत आती है। आर्य भाषा-परिवार का क्षेत्र भी काफी विस्तृत माना जाता है इसमें बोली जाने वाली भाषाएँ निम्नलिखित हैं- हिंदी,उर्दू, मराठी, नेपाली, बांग्ला, गुजराती, कश्मीरी, असमिया, कोंकणी, मारवाड़ी, पंजाबी, भोजपुरी, गढ़वाली, डोंगरी, उड़िया इत्यादि। चुकि हिंदी संस्कृत से लेकर अपभ्रंश तक के विकास का परिणाम है इनके क्रमवार विकास के पश्चात् हिंदी का उद्गम हुआ।

‘हिंदी’ एवं आधुनिक भारतीय आर्य भाषा का उद्भव एवं विकास : आधुनिक भारतीय आर्य भाषाएँ 1000 ई. के आस पास प्रचलन में आई थीं। इनके साहित्य बनने में कई वर्ष बीते। ‘हिंदी’ शब्द ‘हिन्द’ के समानार्थी रखा जाता है। चीनी और अँग्रेजी के पश्चात् हिंदी सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है। हिंदी को उसकी बोलियों के आधार पर भी विभाजित किया गया है।

  1. पूर्वी हिंदी : अवधि, छत्तीसगढ़ी, बघेली
  2. पश्चिमी हिंदी : खड़ीबोली, कनौजी, ब्रज, हरियाणवी, बुन्देली
  3. राजस्थानी:पूर्वी, पश्चिमी, उत्तरी, दक्षिणी
  4. बिहारी :भोजपुरी, मैथिली, मगही
  5. पहाड़ी : पश्चिमी, मध्यवर्ती

विशेषताएँ :

  1. इस परिवार की भाषाएँ पूर्ण रूप से आयोगात्मक हो गई हैं।
  2. संयुक्त व्यंजन के स्थान पर एक का ह्रास हो गया है एवं पूर्ववर्ती व्यंजन में दीर्घता देखने को मिलती है।
  3. यहाँ स्वर का नहीं बल्कि बल का प्रयोग होता है, लेकिन वाक्यों में स्वर भी प्रयुक्त होते हैं।
  4. इसमें दो लिंग और दो वचन होते हैं केवल मराठी एवं गुजराती ऐसी भाषा है जिसमें तीन लिंग का प्रावधान है।
  5. इसमें केवल दो शब्द रूप होते हैं।
  6. हिंदी मुख्य रूप से भारत में बोली जाने वाली भाषा है।
  7. यह सतम् वर्ग की भाषा है।

‘अँग्रेजी’ जर्मनिक भाषा परिवार: यह शाखा भारोपीय भाषा-परिवार की सबसे महत्त्वपूर्ण मानी जा सकती है क्योंकि ‘अँग्रेजी’ इसी भाषा के अंतर्गत आती है जो विश्व की सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा के रूप में विद्यमान है। या यूं कहें कि अँग्रेजी विश्व पटल पर अपना परचम लहराने वाली भाषा है। जर्मनिक भाषा में ध्वनि परिवर्तन बहुत अधिक दिखाई दिए हैं जिसकी चर्चा ‘ग्रिम’ ने अपने ध्वनि परिवर्तन नियम के सिद्धान्त में की है। प्रथम द्वाणी परिवर्तन के साथ ही यह शाखा भारोपीय भाषा-परिवार की दूसरी शाखाओं से विलग हो गई। एवं द्वितीय परिवर्तन के पश्चात् यह दो हिस्सों में बाँट दी गई। इसके अंतर्गत विकसित हुई ‘अँग्रेजी’ भाषा का विकास 1100 ई. में हुआ था। आज अँग्रेजी भाषा और उसका साहित्य सबसे प्रबल साहित्य की श्रेणी में आता है।

आर्य भाषा-परिवार एवं जर्मनिक भाषा-परिवार में कुछ विभिन्नताओं के माध्यम से अँग्रेजी एवं हिंदी के मध्य विषमता को आसानी से समझा जा सकता है।

विशेषताएँ:

  1. यहाँ भी प्रारम्भ में सभी भाषाएँ योगात्मक थीं किन्तु धीरे-धीरे आयोगात्मक हो गई हैं। जर्मन भाषा में थोड़ी बहुत योगात्मकता शेष है।
  2. यहाँ क्रियाओं को दो भागों में बाँट दिया गया है, सबल एवं निर्बल”[3] सबल क्रियाओं के धतूर रूप के स्वर में ही परिवर्तन होके भूतकालिक रूप बन जाता है। जैसे- गिव-गेव, टेक-टूक, थ्रू-थ्रो इत्यादि। एवं निर्बल क्रियाओं के अंतर्गत प्रत्यय जोड़ने के पश्चात् भूतकाल बना दिए जाते हैं। जैसे- टॉक-टाक्ड, लाफ-लाफ़्ड इत्यादि।
  3. जर्मनिक की सभी भाषाओं में स्वर ही प्रयुक्त होते हैं एक स्वीडी भाषा के अलावा।
  4. अँग्रेजी वैश्विक स्तर की भाषा है।
  5. यह केंतुम् वर्ग की भाषा है।

इसके अतिरिक्त ‘ग्रिम’ने ‘भारोपीय भाषा’ एवं ‘जर्मनिक भाषा’ में ध्वनि स्तर पर कुछ विभिन्नताओं एवं परिवर्तन की बात कही है। यहाँ ‘भारोपीय भाषा’ के प्रतिनिधि के रूप में ‘संस्कृत’(संस्कृत से हिंदी का विकास माना गया है) को एवं ‘जर्मनिक’ के प्रतिनिधि के रूप में ‘अँग्रेजी’ को रखा गया है। 

जैसे-  संस्कृत के ‘क’ का अँग्रेजी में ‘ख या ह’ हो जाना (कः -हू), संस्कृत के ‘त’ का अँग्रेजी में ‘थ’ (त्रि-थ्री) इत्यादि। कई बार संस्कृत की ‘घोष’ ध्वनियाँ ‘अँग्रेजी’ में ‘अघोष’ हो जाती है।

इस तरह देखा जा सकता है कि भाषा परिवार के दृष्टिकोण से भी अँग्रेजी एवं हिंदी में कुछ समानताएँ एवं कुछ विषमताएँ देखने को मिलती हैं जो मशीनी अनुवाद की प्रक्रिया में संदेह उत्पन्न करने के लिए पर्याप्त हैं।

 1. भाषास्वरूप

इन दोनों भाषाओं में एक बड़ा साम्य यह है कि अँग्रेजी और हिंदी दोनों संपर्क भाषा के रूप में ही अपनी उपयोगिता सिद्ध की हैं। एक तरफ अँग्रेजी विश्व की संपर्क-भाषा है तो हिंदी भारत की संपर्क- भाषा। भाषा को अपने समाज के राजनीतिक अतीत और वर्तमान के माध्यम से स्वयं को पोषित करते रहना पड़ता है। राजनीतिक आक्रमण, सामाजिक विस्थापन, भौगोलिक विस्तार आदि स्थितियों का प्रभाव भाषा पर न पड़े, यह संभव ही नहीं है। इन सभी प्रक्रियाओं में अनेक शब्द मूल भाषा में आकर मिलते रहते हैं, जिससे मूल शब्द-भंडार में वृद्धि होती है और प्रयोग के अभाववश अतीत में प्रयुक्त शब्दावली में से अनेक शब्द विलुप्त भी होते हैं। ये सब एक जीवन्त भाषा के लक्षण हैं तथा इसके समय-सापेक्ष विकास का परिचायक भी। यदि भाषा के आधार पर कोई भौगोलिक पहचान बन सकती है, तो उसे बचाए रखने के लिए भी भाषा की आवश्यकता पड़ती है। भाषा व्यक्ति के संप्रेषण का साधन होती है। साथ ही, इस पर समाज की सामूहिकता को भी अभिव्यक्त करने की अहम जिम्मेदारी होती है।

हिंदी इन सभी अभिलक्षणों की साक्षी रही है। भारत का वृहत्तर मानचित्र और विविध संस्कृति, अस्थिर राजनीतिक अतीत और वर्तमान लोकतांत्रिक ढाँचा, इन सबका प्रभाव हिंदी पर है और इससे न सिर्फ इसका शब्द-भंडार, बल्कि संरचना के स्तर पर बदलाव दर्ज किया जाता रहा है। इसे अतीत के झरोखे से समझना अधिक प्रासंगिक होगा। दरअसल स्वतंत्रता-प्राप्ति से पूर्व हिंदी को संस्कृत के प्रभाव से मुक्त करने और उर्दू के प्रति झुकाव को रोकने के लिए ‘हिन्दुस्तानी’ पर जोर दिया गया, जिसे एक समन्वयवादी दृष्टि कहा जा सकता है। ऐसे ही प्रयोगों में सन् 1937-38 में बिहार के पाठ्यक्रमों में ‘बेगम ‘सीता’, ‘बादशाह दशरथ’ और ‘उस्ताद वशिष्ठ’ जैसे प्रयोग हुए थे। जाहिर है, इनमें दो संस्कृतियों का असहज घालमेल हो रहा था और इसी कारण ‘हिंदी साहित्य सम्मेलन’ के एक अधिवेशन में मंचस्थ डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को इसका प्रतिवाद झेलना पड़ा और अंततः उनको इन शब्दों को पाठ्यक्रमों से हटा लेने का आश्वासन देना पड़ा। ऐसे अनेक वादों-प्रतिवादों, सहमति-असहमतियों, क्षेत्रीय अस्मिताओं के उभार एवं वैश्विक पहचान के द्वंद्वों के बीच आज हिंदी ने अपना रास्ता तय किया है। इन सबके मध्य विश्वग्राम का दबाव और नई आर्थिक नीति के कारण उपजे बाजार ने भी हिंदी को अपने ढंग से प्रभावित किया है। यह प्रभाव इसकी संरचना पर भी पड़ा है। बावजूद इन सबके यह कहना भी समीचीन होगा कि भारतेन्दु, महावीर प्रसाद द्विवेदी, किशोरीदास वाजपेयी, कामता प्रसाद गुरू, बाबू विष्णु राव पराड़कर, यमुना काचरू, सूरजभान सिंह आदि सुधी भाषा-शिल्पियों के प्रयासों के प्रतिफलन में हिंदी ने तार्किक परिणति पायी है और आज हिंदी का जो स्वरूप हमारे सामने है, उनमें इनके योगदान को कदापि नकारा नहीं जा सकता है।

  • हिंदी भाषा का स्वरूप विस्तार:

जैसा कि ऊपर स्पष्ट किया जा चुका है कि हिंदी भाषा किस प्रकार अपने क्षेत्र का विस्तार सम्पूर्ण देश में का रही है, इसके लिए कई कारक एक साथ मिलकर काम कर रहे हैं जिससे भाषा के स्वरूप को और अधिक मजबूती मिली है। इसके विस्तार को निम्नलिखित बिन्दुओं के आधार पर समझा जा सकता है-

(i) मानक भाषा के स्तर पर

किसी भी भाषा के मानकीकरण से उस भाषा के व्याकरण की समृद्धि का अनुमान लगाया जा सकता है। मानक भाषा शिक्षा, साहित्य हर जगह प्रयुक्त की जाती है। भाषा के मानकीकरण के द्वारा भाषा मे एकरूपता लाई जा सकती है जो उस भाषा को पहले से अधिक समृद्ध बना देती है।

जैसे- लायी-लाई,

सम्बन्ध- संबंध

चन्दन-चंदन

हिन्दी-हिंदी

(ii) राजभाषा के स्तर पर

हिंदी ने शिक्षा एवं व्यवसाय के क्षेत्र में तो स्थान प्राप्त किया ही है साथ-साथ इसने कार्यालयों, सरकारी कामकाजों में भी अपना वर्चस्व राजभाषा बनकर प्राप्त किया है। कोई भी भाषा राजभाषा का दर्जा तभी प्राप्त कर सकती है जब अधिक व्यापक एवं शक्तिशाली हो। 

(iii) संपर्क भाषा के स्तर पर

संपर्क भाषा वह है जो दो अलग भाषा भाषियों के मध्य संपर्क स्थापित करने का कार्य करे और यह भाषा के व्यापकता के कारण ही संभव हो सकता है। इसको ‘लिंगुआ फ्रेंका’ भी कहा जाता है।

(iv) बोली के स्तर पर 

किसी भी भाषा को और अधिक समृद्ध उसकी बोलियाँ बनाती हैं और हिंदी की 15 से अधिक बोलियाँ प्रचलित हैं। जिनका प्रयोग हर घर एवं समूहों में किया जा रहा है।

(v) मातृभाषा के स्तर पर

मातृ भाषा वह है जिसे बच्चा अपनी माता की गोद से सीखता है। किसी भी व्यक्ति के लिए उसकी मातृ भाषा का उसके जीवन पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है और उसे उस भाषा के व्याकरण और संरचना को सीखने के लिए अधिक परिश्रम नहीं करना पड़ता है। हिंदी मातृभाषा के रूप में बहुत अधिक प्रचलित है।

इस प्रकार देखा जा सकता है कि हिंदी भाषा का स्वरूप कितना वृहद और वैज्ञानिक है जो आम जनमानस पर इस कदर छाया हुआ है कि उससे इतर सोचा भी नहीं जा सकता है। हिंदी भावों को अभिव्यक्त करने का साधन तो है ही साथ ही साथ ज्ञान प्राप्ति का साधन भी है। यह अगर मानवीय विकास का मूल आधार है तो वैज्ञानिक विकास का स्तम्भ भी है। हिंदी एकता का स्वरूप है।

हिंदी पत्रकारिता, स्कूल, कॉलेज, प्रशासन, साहित्य की भाषा है। हिंदी भाषा ‘देवनागरी लिपि’ में लिखी जाती है।

इसी प्रकार अँग्रेजी भाषा के विस्तार को समझने का प्रयास किया जाएगा।

  • अँग्रेजी भाषा के स्वरूप का विस्तार

अंग्रेज़ी भाषा (अंग्रेज़ी: English) से बनी हुई जो भारोपीय भाषा-परिवार से आती है और इस नाते से हिंदी के साथ इसका संबंध और घनिष्ठ हो जाता है। ये इस परिवार की जर्मनिक शाखा में रखी जाती है। इसे दुनिया की सर्वप्रथम अन्तरराष्ट्रीय भाषा माना जाता है। अँग्रेजी दुनिया के कई देशों की मुख्य राजभाषा है और आज के दौर में कई देशों में कम्प्यूटर, विज्ञान, राजनीति, साहित्य और उच्च शिक्षा की भी मुख्य भाषा है। अंग्रेज़ी भाषा रोमन लिपि में लिखी जाती है। यह वैज्ञानिक,सैन्य, आर्थिक,राजनीतिक और सांस्कृतिक प्रभाव के कारण दुनिया के कई हिस्सों में बोलचाल की भाषा बन गई है।द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से अमेरिका की एक वैश्विक भाषा के रूप में पहचान और उसके बढ़ते आर्थिक और सांस्कृतिक प्रभाव के कारण अँग्रेजी भाषा के प्रसार में और अधिक तीव्रता देखने को मिली। अँग्रेजी भाषा की शब्दावली भी काफी वृहद है। इसीलिए यह विश्व की भाषा बनाने में सक्षम हो पाई है।

अँग्रेजी भाषा जनसंख्या की दृष्टि से विश्व की दूसरी प्रमुख भाषा तथा महत्त्व के आधार पर विश्व की सर्वप्रमुख भाषा है। आज विश्व का कोई भी राष्ट्र इससे अछूता नहीं है। मुख्यत: ब्रिटिश द्वीप में जन्मी अँग्रेजी भाषा का प्रचार-प्रसार आज संपूर्ण विश्व में अँग्रेजी भाषा आज विश्व की शक्तियों के साथ-साथ कई भाषाओं कई राष्ट्रों की मुख्य भाषा है तथा कई राष्ट्रों के वित्तीय प्रमुख भाषा। अँग्रेजी भाषा विज्ञान, तकनीकी एवं प्रसार की भाषा है। विश्व स्तर पर व्यापार समझौते आदि इसी भाषा में होते हैं। इस भाषा की महानता या वर्चस्व को इस प्रकार से जाना जा सकता है की विभिन्न अंतरराष्ट्रीय समुदाय हो संयुक्त राष्ट्र संघ विश्व स्वास्थ्य संगठन विश्व व्यापार संगठन आदि की प्रमुख भाषा अँग्रेजी हैं।

  • सांस्कृतिक अंतर

भाषा अपनी संस्कृति की वाहिका होती है। इसलिए संस्कृति के तत्त्व भाषा में विद्यमान रहते हैं।  हिंदी और अँग्रेजी भी इस सिद्धान्त से परे नहीं हैं। ये दोनों भाषाएं दो भिन्न संस्कृतियों को वहन करती हैं। अँग्रेजी का भारत में होना एक ऐतिहासिक संदर्भ लिए हुए है। उपनिवेश की भाषा से परे भी यदि अँग्रेजी को भारत के संदर्भ में देखें तो यह कभी भारत की मूल संस्कृति को संप्रेषित करने में सक्षम नहीं होगी। भारतीय संस्कृति के अनेक शब्द जैसे- सिंदूर, करधनी, पहुँचा, शंख, भस्म, रक्षा,चूड़ी, मंगलसूत्र, तिलक आदि का अनुवाद सहज नहीं होता है। ऐसे ही कबड्डी, खो-खो, कुश्ती, दंगल इत्यादि खेलों का अनुवाद भी अँग्रेजी में संभव नहीं है।

दूसरी तरफ हाल के कोरोना के बाद आए सैकड़ों अँग्रेजी शब्द जैसे- आइसोलेशन, सोशल डिस्टेन्शिंग, कोविड-19, लॉकडाउन आदि शब्दों का सहज अनुवाद नहीं हो पाया है। इसके साथ माउस, कंप्यूटर, बस, ट्रेन, स्टेशन,क्रिकेट, हॉकी, टेनिस आदि सैकड़ों शब्द हैं, जिनका आज तक प्रचलित अनुवाद नहीं हो पाया है।इसी प्रकार हिंदी परंपरा को मानने वालों में जो व्रत, उपवास, त्योहार इत्यादि हैं उनके समक्ष अँग्रेजी में अनुवाद संभव नहीं है। ऐसे शब्दों को ज्यों का त्यों लिप्यंतरित कर दिया जाता है। इसके लिए गूगल द्वारा किए हुए एक अनुवाद को देखा जा सकता है-

            वाक्य- आज पूजा ने तीज का व्रत किया।

            गूगल अनुवाद- Today Pooja fasts for Teej.

यहाँ अनुवाद के माध्यम से देखा जा सकता है कि यह एक सही अनुवाद नहीं है किए हुए अनुवाद का अर्थ निकलता है-(आज पूजा ने तीज के लिए व्रत किया।) यहाँ ऐसी प्रतीति हो रही है कि ‘तीज’ किसी व्यक्ति का नाम है ना कि त्योहार का।

ऐसे ही एक शब्द है ‘जूठा’ जो कि भारतीय संस्कृति का द्योतक है क्योंकि अँग्रेजी में ‘जूठा’ जैसी कोई संकल्पना ही नहीं है। अब इसका अनुवाद करने पर हम देखते हैं कि –

            वाक्य-राम ने मेरा जूठा खाया।

            गूगल अनुवाद- Ram ate my shoe.

अब यहाँ देख सकते हैं कि अँग्रेजी में ‘जूठा’ जैसा कोई शब्द न होने के कारण इसको ‘जूते’ से समानान्तर मानकर इसका अनुवाद कर दिया गया है। 

इसी प्रकार हिंदी के ‘रिश्ते-नातों’ के समकक्ष अँग्रेजी में शब्द देखने को नहीं मिलेंगे। जैसे- ताई,चाची,बुआ, मौसी, मामी इन सभी शब्दों के लिए अँग्रेजी में ‘Aunty’ शब्द है जो हिंदी एवं भारतीय संस्कृति के साथ तालमेल नहीं खा सकता। इसी प्रकार देवर, साला,जीजा साढ़ू इन सभी रिश्तों का भारत में अलग-अलग स्थान है जो अँग्रेजी भाषा द्वारा परिभाषित नहीं किया जा सकता। मान लीजिए कोई महिला अपने किसी रिश्तेदार का परिचय देते हुए ये बताती है कि ‘He is my brother-in-law’ इस शब्द को सुनने के बाद यह निश्चित करना कठिन होगा कि यह उसके ‘देवर’ हैं या ‘जीजा’।

ये उदाहरण तो अँग्रेजी भाषा के हिंदी पर प्रभाव के हो गए। हिंदी से अँग्रेजी अनुवाद करते समय ‘आदरसूचक’ शब्दों के लिए भी कोई शब्द नहीं है। ‘आप एवं तुम’ दोनों के लिए  ‘you’ का प्रयोग किया जाता है। ऐसे ही ‘सौभाग्यवती स्त्री’ के लिए अँग्रेजी मे ‘Lucky lady’ शब्द है जो कि ‘सौभाग्यवती’ के महत्त्व को दर्शाने के लिए पर्याप्त नहीं है। ऐसे शब्द लोगों की भावनाओं से जुड़े होते हैं और इनके अनुकूल अनुवाद न होने से भावनाएँ आहत हो सकती हैं। 

इसी प्रकार अँग्रेजी से हिंदी अनुवाद करते समय भी इस तरह की बहुत सी समस्याएँ देखने को मिलेंगी जिसके कारण अर्थ की सही प्रतीति होने में समस्या उत्पन्न होगी। जैसे अँग्रेजी संस्कृति से उत्पन्न ‘Live-in’ शब्द के लिए भारतीय सभ्यता यानि हिंदी में इसका कोई अनुवाद नहीं है इसको ज्यों का त्यों लिप्यंतरित किया जाता है। इसी प्रकार अँग्रेजी में ‘बर्फ’ के लिए ‘Ice’ और ‘snow’ दो शब्द विद्यमान हैं किन्तु संभवतः हिंदी अनुवाद में इसको लेकर समस्या उत्पन्न हो सकती है।

उपर्युक्त विश्लेषण के माध्यम से यह स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है कि किसी भी भाषा का ‘सांस्कृतिक पक्ष’ उसके अनुवाद में कितनी जटिलता उत्पन्न कर सकता है।

निष्कर्ष :

निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि दोनों ही भाषा परिवारों में बहुत ही स्तरों पर विभिन्नताएँ देखने को मिलती हैं जो मशीनी अनुवाद की प्रक्रिया में बाधक सिद्ध होंगी। अँग्रेजी-हिंदी भाषा की संरचना एवं संस्कृति में विभिन्नता होने का मूलभूत कारण यही है कि दोनों ही भाषाएँ अलग-अलग भाषा-परिवार से संबंध रखती हैं।

संदर्भ


[1] शर्मा, देवेन्द्रनाथ एवं दीप्ति शर्मा (2001)भाषाविज्ञान की भूमिका; राधाकृष्ण प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, पृष्ठ- 117

[2] वही है, पृष्ठ-118

[3] वही है, पृष्ठ-145

संदर्भग्रंथ सूची :

  • शर्मा, देवेंद्र नाथ, दीप्ति शर्मा (1966)भाषाविज्ञान की भूमिका;राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली।
  • आचार्य, मेघा एवं शिल्पा (2016) भाषा अनुवाद और प्रौद्योगिकी; श्री गुरुकृपा क्रिएशन, वर्धा।
  • पाटिल, मिलिंद (2013)मशीनी अनुवाद के लिए रूपात्मक सर्जक (हिंदी से मराठी क्रिया,संज्ञा से सर्वनाम के संदर्भ में);महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में सम्पन्न शोधप्रबंध।
  • मेहेर, छबिल कुमार(2020) भाषा-प्रयुक्ति और अनुवाद ; नयी किताब प्रकाशन,16, शांतिमोहन हाउस, अंसारी रोड दरियागंज, नई दिल्ली।
  • हिंदी वाक्य संरचना: कुछ विशिष्ट समस्याएँ, इकाई 16 ,इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, नई-दिल्ली की पठन सामग्री।
  • हिंदी वाक्य रचना, इकाई7, इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, नई-दिल्ली की पठन सामग्री।
  • हिंदी तथा अँग्रेजी वाक्य रचना का संरचनात्मक अध्ययन, इकाई10, इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, नई-दिल्ली की पठन सामग्री।

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Grammar, History, Language Policy, Multilingualism