भाषा, प्रौद्योगिकी और साहित्य का समन्वय जरूरी है।

(वैसे तो प्रो.अशोक चक्रधर एक अध्यापक, कवि, चिंतक और मीडियाकर्मी के रूप में ख्यातिलब्द्ध हैं, लेकिन उनकी गिनती उन चुनिंदा हिंदी साहित्यकारों में होती है, जो अपने कंप्यूटर-प्रेम के लिए जाने जाते हैं और इससे जुडे़ भाषाई अनुप्रयोगों के लिए सतत प्रयत्नशील हैं। प्रस्तुत है भाषा-कंप्यूटिंग के वर्तमान परिप्रेक्ष्य पर अरिमर्दन कुमार त्रिपाठी से उनके बात-चीत के मुख्य अंश।)

Ashok Chakradhar

अरिमर्दन कुमार त्रिपाठी – हिंदी-कंप्यूटिंग की वर्तमान स्थिति में आपकी क्या राय है?

अशोक चक्रधर – भाषा-कंप्यूटिंग इस समय बहुत तेज गति से आगे बढ़ता हुआ ऐसा जल है, जो चौतरफा नदियों से एक महानद बनाता हुआ आगे की ओर प्रवाहमान है। इसके लिए अनेक संस्थाएँ सक्रिय हैं। कंप्यूटर एवं सूचना-प्रौद्योगिकी एक वरदान के तौर पर इन सभी भाषा-प्रेमियों को मिली हुई है, जो इस क्षेत्र में कुछ करना चाहते हैं। हिंदी में मानकीकरण का सवाल बहुत बड़ा है और विशेष रूप से लिपि, वर्तनी और शब्द-भंडार की विविधता एक सर्वस्वीकार्य रूप प्रदान करना एक चुनौती है। हम बड़ी अंतरविरोधी स्थितियों में जी रहें हैं, सरकार के ही अनेक विभाग अलग-अलग निर्देश देते हैं, उनको आज्ञाकारी भाव से स्वीकार किया जाना चाहिए, लेकिन वर्षों से चले आए अभ्यास के कारण हम उन आदेशों का अनुपालन नहीं करते हैं, इसलिए नहीं करते हैं क्योंकि भाषा का मामला संविधान के अनुच्छेद के नियमों के अनुसार नहीं चलता, उसमें छूट होती है और उसमे लचीलापन होता है। जब कोई आदेश किसी राजकीय संस्थान से प्रसारित हो गया तो उसका अनुपालन होना चाहिए, लेकिन उन्ही के पड़ोस का जो दूसरा विभाग है, वो भी सरकारी है वो इसका अनुपालक नहीं है। भाषा-प्रौद्योगिकी का कोई मंत्रालय एक नहीं है या तो कोई भाषा का मंत्रालय हो, वो भाषा मंत्रालय सारी नीतियों का निर्धारण करे। अभी हमारे देश में मानव संसाधन विकास मंत्रालय के विभिन्न प्रकोष्ठ कार्य करते हैं, तो दूसरी ओर गृह मंत्रालय के अंतर्गत राजभाषा विभाग कार्य करता है और तीसरी ओर विदेश मंत्रालय के अंतर्गत भारतीय साँस्कृतिक संबंध परिषद एवं स्वयं विदेश मंत्रालय हिंदी के सम्मेलनों का आयोजन करता है, उसकी भी नीतियाँ हैं, चौथी जो भाषा प्रौद्योगिकी पर काम करने वाले लोग हैं, वो दूर संचार मंत्रालय के अंतर्गत आतें हैं अतः हमारी भाषा चार मंत्रालयों में बिखरी हुई है इसका नीति निर्धारक कौन है। इसका निर्धारक कोई नहीं है? जब तक एक भाषा मंत्रालय नहीं बनेगा, जब तक राष्ट्रभाषा मंत्रालय नहीं बनेगा, अगर हम हिंदी को राष्ट्रभाषा मानतें हैं जो कि घोषित तो है नहीं, संविधान में तो कहीं इसको राष्ट्रभाषा कहा ही नहीं गया है और हालाँकि राजभाषा का उल्लेख है। न तो इसे मातृभाषा कहा गया है न ही राष्ट्रभाषा कहा गया है। भावना के स्तर पर हम इसे राष्ट्रभाषा या मातृभाषा कहते हैं। जब हम हिंदी साहित्य पढ़तें हैं, तो मैथिली के विद्यापति को महान हिंदी का कवि मानतें हैं, सूरदास और मीरा के पदों को हम हिंदी के पद मानतें हैं, जबकि वह ब्रजभाषा है। इस तरह देखा जाय तो मातृभाषा ब्रजभाषा हो सकती है और या अवधी, मगही, भोजपूरी, मैथिली हो सकती है और बुंदेलखंडी हो सकती है लेकिन हिंदी नहीं हो सकती है। संविधान में हिंदी को तो राजभाषा घोशित कर दिया गया, लेकिन वह अभी भी प्रष्नांकित है। क्योंकि संविधान के नियमों में छेद भी बना हुआ है और इसी कारण अँग्रेजी एक अनिवार्य रूप से हमारे सामने मौजूद है। वैसे अधिक भाषाएँ सीखने में कहीं कोई बुराई नहीं है अँग्रेजी भी हमारे देश की भाषा है और उसे भी सीखा जाना चाहिए। अब तो लोग परस्पर भारतीय भाषाओं के प्रश्न भी उठाने लगे हैं। क्षेत्रीयतावाद और प्रांतीयतावाद के कारण हमें नुकसान पहुँचता है। इसका एक मात्र रास्ता है कंप्यूटर, जो इन सबका एकीकरण करने में सक्षम है और इस लिहाज से जो काम हो रहा है, वो कई स्तरों पर है। एक तो सरकार के स्तर पर, सरकार के अनुदानों से चलने वाली, जो कंपनियाँ है जैसे- सी-डैक और अन्य आईआईटी संस्थाएँ हैं, दूसरी ओर माइक्रोसॉफ्ट, गूगल और याहू जैसी प्राइवेट संस्थाएँ हैं, जो भाषा-प्रौद्योगिकी क्षेत्र में कार्यरत हैं।

अरिमर्दन कुमार त्रिपाठी – ऐसे में भाषा के मानकीकरण की समस्या तो फिर आ रही है……।

अशोक चक्रधर – देखिए इन निजी संस्थाओं के लिए भाषा कोई मरने-मारने वाला मामला नहीं है, बल्कि ये सब सिर्फ बाजार है और उनके ग्राहक को कौन-सी चीज उपयोगी लगती है, यह महत्त्वपूर्ण है। इसमें आप चाहेगें तो ‘द’ में हलंत लगाकर ‘प्रौद्योगिकी’ लिखना है कि ‘द्य’ लिखना यह आप पर निर्भर करेगा बाजार, तो इन दोनों का विकल्प दे देगा। यह ऐसे संक्रमण का समय है और जहाँ मानकीकरण एक मात्र चिंता का विषय है अन्यथा कंप्यूटर पर हिंदी की उपलब्धता की ऐसी समस्या नहीं जैसा कि बताया जाता है। आज हिंदी के लिए अनेक सॉफ्टवेयर हैं, जिनका विकास हो रहा है जैसे- मंत्रा, प्रवाचक, वाचांतर, श्रुतलेखन, ओसीआर प्रणालियाँ आदि। आज आवश्यकता इस बात की है कि हिंदी की ढेर सारी सामग्री इंटरनेट पर डाली जाय और इसमें कॉपी राइट मुक्त साहित्य को ओसीआर की सहायता से आसानी से यह काम किया जा सकता है, जैसे- हिंदी विश्वविद्यालय में हिंदी-समय का कार्य हो रहा है, उसको भी इस पद्धति से कराना चाहिए, जिससे टंकण की जटिलता से बचा जा सकता है। इस प्रकार आने वाला समय ओसीआर के लिए उज्ज्वल है।

अरिमर्दन कुमार त्रिपाठी – भारत में ई-गर्वनेंस की बात हो रही है क्या आपको लगता है कि इसका लाभ आम आदमी को मिल पाएगा, विषेशकर ऐसे समय में जबकि देश में कंप्यूटर-साक्षरता की दर बहुत कम है। अशोक चक्रधर- वो तो हमें दूर करना होगा, आज साक्षरता के मायने बदल रहे हैं अब साक्षरता का मतलब यह है कि आपको कंप्यूटर की जानकारी भी है और तभी आप साक्षर माने जाएंगें। जब तक आप इन नए उपकरणों से दोस्ती नहीं बढ़ाएँगे, तब तक आप नई पीढ़ी से संवाद ही नहीं कायम कर पाएंगे और यह तो एक सबसे बड़ी चुनौती है ही कि हम कैसे इस खाई को पाटें और सभी को कंप्यूटर साक्षर बनाएँ? सभी को कंप्यूटर साक्षर बनाया जा सकता अगर सिर्फ कागज, कलम से काम चलता, लेकिन इसमें आपको एक अदद हार्डवेयर उपकरण चाहिए, जिसके बिना आप नहीं सीख सकते। देश की आबादी का एक बड़ा हिस्सा आज भी गरीबी रेखा के नीचे जीवन-यापन कर रहा है उसको कंप्यूटर और फॉन्ट से क्या लेना-देना है। यह तो एक समस्या है ही, लेकिन निराश नहीं होना चाहिए धीरे-धीरे वह स्थिति भी आएगी। मध्य प्रदेश में ई-गवर्नमेंट के साथ-साथ गाँव-गाँव में कंप्यूटर दिए जा रहे हैं, ये तो हर प्रांत की अपनी स्थिति पर निर्भर करता है और आप जानतें हैं कितनी भी केंद्रीय शिक्षा नीति बना लीजिए। ये शिक्षा नीति राज्य का अधिकार है और प्राथमिक शिक्षा राज्य के अंतर्गत आती है। इसमें स्थानीय सरकारों को पहल करनी चाहिए।

अरिमर्दन कुमार त्रिपाठी – क्या आपको नहीं लगता कि वर्तमान में हिंदी के मानकीकरण के साथ इसके फॉण्टों के मानकीकरण की बात होनी चाहिए।

अशोक चक्रधर– बिल्कुल होना चाहिए। इसमें सबसे पहले तो इस बात पर जोर दिया जाना चाहिए कि जो भी सॉफ्टवेयर तैयार हो रहे हैं उनको जब तक शत  प्रतिशत शुद्धता न प्राप्त हो, तब तक आम प्रयोग के लिए उपलब्ध न कराए जाएं? आज अलग-अलग फॉन्टों की अलग-अलग इनकोडिंग होती है और इससे अधिक दिक्कत आती है और यदि इस्की से यूनिकोड पर आएँ हैं, तो जितने फॉन्ट परिवर्तक बने हैं, उनमें शत प्रतिशत परिवर्तन नहीं हो पाता है। आज ढेर सारे फॉन्ट कन्वर्टर भी उपलब्ध हैं, लेकिन यहाँ भी शत प्रतिशत शुद्धता का मामला आता है। इसीलिए जनता के मन में इनके प्रति अरुचि का भाव पैदा न हो, इस लिए इनको बिना शुद्ध किए सामने लाने से बचना चाहिए, हमें इन कंपनियों और सरकारी-अर्धसरकारी कंपनियों पर दबाव डालना चाहिए कि आप क्यों नहीं कोई पूर्ण शुद्धता वाला सॉफ्टवेयर बना देते। कंप्यूटर मना नहीं करेगा कि वह अनुवाद नहीं करेगा। समस्याएँ बहुत सारी है और उन समस्याओं से जूझने के लिए व्यापक सोच और दूरदृष्टि के साथ काम करना चाहिए साथ ही भाषाओं के स्थानीयकरण पर काम होना चाहिए, जिसमें एक तरफ इसके सौंदर्यबोध का सवाल आएगा तो दूसरी तरफ मानकीकरण का।

अरिमर्दन कुमार त्रिपाठी – भाषा-कंप्यूटिंग पर आज जितनी संस्थाएँ शोध-कार्य कर रहीं हैं, उनमें एक ही मशीनी अनुवाद के लिए अलग-अलग योजना है, तो भिन्न-भिन्न पद्धति है। क्या इनमें आपसी समन्वय का अभाव नहीं दिखता?

अशोक चक्रधर- हमारा देश, ज्ञान की खोज ‘एकला चलो’ की पद्धति से करता है और मिलकर काम करेंगे, तो शायद एक जैसे निष्कर्षों पर पहुँचेंगे, अगर ऐसा न हुआ होता, तो हमारे यहाँ साहित्य के इतने सिद्धांत न होते, रस सिद्धांत के विरोध में अलंकार नहीं आता, अलंकार के विरोध में रीतिकाल नहीं आता। फिर सबको घाल-मेल करने वाला औचित्य आ गया कि ये भी सही है वो भी सही है। जब तक एक धारा नहीं मिलती, तब तक अलग-अलग छतरियों के नीचे काम होने दिजिए। इसमें इनकी पद्धतियाँ भले ही भिन्न हों भाषा इनका सबका केंद्रीय बिंदु है, इसलिए कोई निराशा का मामला नहीं है। जो हो रहा है उसे होने दीजिए, उसमें बौद्धिक चिंतन की आवश्यकता है और एक सार्थक समालोचना होनी चाहिए। भाषाशास्त्रियों का, तकनीकी विशेषज्ञों का समन्यवय होना चाहिए। इसमें अब तक गड़बड़ी इसलिए है कि तकनीकी विशेषज्ञ भाषाशास्त्री नहीं होते और भाषाशास्त्रियों को तकनीक का प्रायः ज्ञान नहीं होता है। अब भाषा, तकनीक और साहित्य का त्रिकोण बनेगा, तब एक बेहतर स्थिति होगी, इसलिए इन सब मुद्दों पर काम करने की आवश्यकता है और इन सबका समन्वय होगा तो परिणाम अवश्य मिलेगा।

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