भाषाविज्ञान के शास्त्रीय परंपरा के वाहक का असमय प्रयाण
शांतिनिकेतन में आगामी 29-30 नवंबर को होने वाले एक कार्यक्रम के संयोजक के नाते कार्यक्रम की तिथि से 10 दिन पहले से सबको फोन करने लगा था, ताकि सबके आने-जाने, रहने की स्थानीय व्यवस्था की जा सके। सबका कुछ न कुछ जवाब आया, लेकिन अकेले प्रो. वृषभ प्रसाद ही थे, जिनका न तो फोन उठा और न ही उन्होंने पलट कर फोन किया। जबकि सामान्य स्थितियों में यदि फोन नहीं उठ पाया, तो मेरे फोन का जवाब देते थे, चाहे एक बजे रात ही सही। चूँकि उन्होंने शुरू में ही आश्वस्त किया था कि ” 29 को तो नहीं आ पाएंगे, क्योंकि उन दिनों मुझे छत्तीसगढ़ में रहना है, वहाँ से तुम्हारे यहाँ कार्यक्रम में 30 को आ पाएंगे और उसके बाद दो-तीन दिन तुम्हारे घर रुकेंगे।” इसलिए उनका आने का कार्यक्रम जान लेना मेरे लिए और जरूरी होता जा रहा था, क्योंकि अपनी जीवन-चर्या से अलग कोई आपका अतिथि हो और आप अकेले घर संभाल रहे हों, तो उनकी जीवन-चर्या और समय के हिसाब से बहुत कुछ अलग करना होता है। चूँकि जैन सर जैन-परंपरा के हिसाब से रहते-खाते थे, तो जाहिर है कि तैयारी अलग से करनी थी। बहरहाल लगातार फोन न उठने के बीच एक दिन फोन उठा, तो उनके सहायक ने बताया कि “थोड़ी सी स्वास्थ्य की समस्या है, जैसे ही वे ठीक होंगे, वे आप से बात कर लेंगे। ऐसा सर ने आपसे कहने के लिए कहा है।” इसी बीच 18 नवंबर को एक फोन आया कि “भैया जैन सर नहीं रहे।” इस अशुभ सूचना के लिए उस दिन सही मामलों में मोबाईल नामक चीज से नफरत हो गई थी।
प्रो. वृषभ प्रसाद जैन 2006-07 के दौरान हिंदी विश्वविद्यालय में हम लोगों को एम॰ए॰ में भाषा-प्रौद्योगिकी पढ़ाया था और तब उन्होंने भाषिक संरचना और उसके संसाधन (Processing) को जिस तरह से समझाया था, वह अद्भुत और अभूतपूर्व था। उसमें न सिर्फ कंप्यूटर की लॉजिक थी, बल्कि भाषा का दर्शन भी समाहित था। चूँकि उन दिनों हम लोग विषय की नवीनता के कारण शिक्षकों की कमी के दौर से गुजर रहे थे, इसलिए ऐसे विशेषज्ञ एक थाती की तरह दिखने लगे। खैर उनका वह अकादमिक आश्रय दुर्भाग्य से बहुत दिनों तक नहीं मिल सका। क्योंकि अपने स्वाभिमान के कारण वे विद्यालय से जल्द ही निष्कासित कर दिये गए, जबकि एक शिक्षक के तौर पर इतने लोकतांत्रिक थे कि भाषा-प्रौद्योगिकी में हम लोगों के महज छ: महीनों के अपने अनुभवों के आधार पर भी हम ही लोगों के पाठ्यक्रम-निर्माण की कार्यशाला में सिर्फ अपनी जिद के कारण बैठाए थे, इस तर्क के साथ कि छात्रों को भी इन प्रक्रियाओं का हिस्सा होना चाहिए। जबकि उन स्थितियों में तमाम विश्वविद्यालयों के छात्रों को अतिथियों को स्टेशन से ले आने-जाने का काम दिया जाता है। एक छात्र के तौर पर उस कार्यशाला में देश के प्रतिष्ठित विशेषज्ञों के बगल में बैठकर और भाषा-प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में बिताए अपने 6-7 महीनों के अनुभवों को सबके सामने अधिकार के साथ रखने में, जो आत्मविश्वास मिला वह उसके बाद कभी नहीं गया, चाहे कितना भी बड़ा मंच रहा हो।
शिक्षा के मायने सिर्फ पाठ्यक्रम पूरा करना नहीं, बल्कि छात्रों का व्यक्तित्व बनाना होता है, जिसमें शिक्षा केंद्र में रहते हुए भी महज एक हिस्सा है, पूरा भाग नहीं। खैर शिक्षक भी सिर्फ कक्षा में शिक्षक नहीं होता है, बल्कि कई बार जीवन का प्रेरक भी होता है, इसलिए जैन सर विश्वविद्यालय से निष्कासन के बाद भी हम लोगों से संवाद तोड़ा नहीं। कभी चैट, कभी फोन से हम लोगों में संवाद बना रहा। बल्कि कई बार यदि मुझसे बात कर रहे हों, तो उनके द्वारा पढ़ाए गए और तत्कालीन मेरे सभी सहपाठियों का नाम लेकर हाल-चाल पूछते थे। सत्ता से उनका छत्तीस का आँकड़ा रहा, कभी स्वाभिमान और कभी अपनी सत्ताई निर्लिप्तता और उदासीनता के कारण। वरना अकादमिक दुनिया में जिस विभागाध्यक्ष, अधिष्ठाता और कुलपति की कुर्सियों के लेकर लोग किस स्तर तक गिर जाते रहे हैं, ऐसी कुर्सियाँ जैन सर को कभी बाँधकर नहीं रख पायीं। जबकि दिन-रात अकादमिक दुनिया की बेहतरी के साथ भाषाविज्ञान, संस्कृत ज्ञान परंपरा को आगे बढ़ाने की बारे में सोचते रहते थे। यह इसी का परिणाम है अपने लेखन और चिंतन हेतु भाषाविज्ञान के सबसे चुनौतीपूर्ण विषयों को चुना था। जैसे भारत में सर्वप्रथम मशीनी अनुवाद पर एक पूर्ण पुस्तक उनके द्वारा लिखित ‘अनुवाद और मशीनी अनुवाद’ पुस्तक सन् 1995 में प्रकाशित हो गई थी, इसमें सबसे महत्त्वपूर्ण यह है कि यह पुस्तक हिंदी में थी। इसके अलावा प्रतीकविज्ञान जैसे उलझे हुए विषय पर भी एक उनकी पुस्तक थी। इस क्रम में अमेरिकी छात्रों तक भारतीय ज्ञान परंपरा को पहुँचाने के क्रम में बाधा बन रही देवनागरी लिपि और संस्कृत और प्राकृत की वैज्ञानिक ध्वनि-व्यवस्था को साधने के लिए ‘जिनवाणी’ फॉन्ट का अमेरिका में एक संस्थान से मिलकर विकास करवाया और यही नहीं कई साहित्य का उस फॉन्ट में लिप्यंकन भी खुद किया, ताकि देवनागरी न समझ पाने वाले अमेरिकी छात्रों और समूहों तक भारतीय ज्ञान परंपरा में निहित ज्ञान पहुँच सके। इसके अलावा वे जैन धर्म-दर्शन के आधिकारिक प्रवक्ता भी थे। हाल ही में वे हिंदी में वर्तनी सुधारने के लिए एक पुस्तिका लिखकर हिंदी समाज को दे गए। इस क्रम में ‘भारतीय भाषा मंच’ के राष्ट्रीय संयोजक के रूप में उनकी सक्रियता और ऊर्जा किसी नए-नए पी-एच॰डी॰ के छात्र को भी धिक्कार सकने के लिए पर्याप्त थी, जिसमें वे न सिर्फ एक भाषाविद, भारतीय ज्ञान परंपरा के सजग प्रहरी, बल्कि एक कुशल संगठनकर्ता दिखते थे। अल्पसंख्यक भाषाओं के संवर्धन, हिंदी की संरचनात्मक समृद्धि के साथ भाषा के शोधों हेतु सांगठनिक और व्यक्तिगत स्तर पर अनेक पहलुओं से जुड़े थे। विगत कोरोना महामारी में एक समूह बनाकर गरीबों को भोजन करवाते रहे। इसलिए उनकी सक्रियताओं और दिशा विविध थी, मानों सब कुछ जल्दी-जल्दी कर लेने की जिद। यही नहीं यदि काम का नशा चढ़ता था, तो न सिर्फ खुद रात-रात भर जगकर काम करते, बल्कि करवाते भी थे। इसलिए प्रो. वृषभ प्रसाद जैन का असामयिक निधन न सिर्फ भाषाविज्ञान की शास्त्रीय परंपरा के लिए क्षति है, बल्कि देश-विदेश में जैन धर्म-दर्शन, मंत्रविज्ञान के साथ संस्कृत में निहित तार्किक ज्ञान के प्रचार की परंपरा के लिए भी बाधक है। प्रो. वृषभ प्रसाद जैन मूलत: उत्तर प्रदेश के एटा जिले के रहने वाले थे और लखनऊ में बस गए थे। लखनऊ, सम्पूर्णानन्द विश्वविद्यालय, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय के लखनऊ और मुख्यालय सहित अनेक केंद्रों पर पदस्थ रहे। इसके साथ विदेशों के सरकारी, गैर-सरकारी संगठनों से जुड़े थे। व्यापक परिवार से परे व्यक्तिगत परिवार में उनकी पत्नी संध्या जैन और पुत्र डॉ. वैदूर्य जैन हैं, जो आईआईआईटी, पुणे में कार्यरत हैं।
अपने पसंदीदा शिक्षक और समर्पित विद्वान प्रो.वृषभ प्रसाद जैन को एक बार पुन: श्रद्धांजलि!