देवनागरी को अपदस्थ करने की साजिश

पिछले दो दशकों में प्रभाव में आई सूचना-क्रांति से जनसंचार माध्यमों के अक्सर बदलते भाषा और प्रस्तुति के चलते भारतीय समाज के सामने अनेक चुनौतियाँ आई हैं, जिनमें सबसे ज्यादा चर्चा इन माध्यमों द्वारा खासकर दूरदर्शन सीरीयल और विज्ञापनों द्वारा परोसी जा रही भाषा और संस्कृति पर ही हुई है। भारत दुनियाभर के उत्पाद निर्माताओं के लिए एक बड़ा ख़रीददार और उपभोक्ता बाज़ार है। हमारे देश के भी काफ़ी उत्पाद दुनियाभर के बाज़ार में जाते रहे हैं, क्योंकि बाज़ार तो क्रय-विक्रय दोनों के लिए होता है और इसमें संचार माध्यमों का केंद्रीय महत्त्व है क्योंकि वे ही किसी भी उत्पाद को ख‍रीदने के लिए उपभोक्ता के मन में ललक पैदा करते हैं। इन्हीं माध्यमों और बाजार से भूमंडलीकरण की भाषा का प्रसार हो रहा है, जिसके परिणाम से मातृबोलियाँ धीरे-धीरे मर रही हैं। इस संदर्भ में भाषा पर आ रहे संकट को इस तरह से भी देखा जा सकता है कि स्थानीय या क्षेत्रीय भारतीय भाषाओं के सामने उच्चरित रूप भर बनकर रह जाने का ख़तरा है। हिंदी जैसी बड़ी भाषा को ही लें, जो आज वैश्विक भाषा के रूप में दर्ज है, इसपर भी कई मायने में काफी संकट मँडराता रहा है, क्योंकि संप्रेषण का सबसे महत्त्वपूर्ण माध्यम दूरदर्शन अपने विज्ञापनों और सीरीयलों के द्वारा इसके साथ छेड़छाड़ करती रहती है।

इंडियन आयडल से लेकर करोड़पति बनाने वाले लोकप्रिय कार्यक्रमों तक में अधिकतर यही पाया गया है की इसमें हिंदी में बोलने भर के लिए होता है, लेखन अँग्रेजी में ही होता है। लेकिन यह सच है कि इसी के सहारे हिंदी का पूरे भारतीय ही नहीं बल्कि वैश्विक विस्तार भी हुआ है। विज्ञापनों की भाषा के रूप में सामने आनेवाली हिंदी को युवा वर्ग ने उसे देश भर में अपने दैनिक भाषा कोष में शामिल कर लिया है। इसे हिंदी के संदर्भ में संचार माध्यम द्वारा बड़ी देन कहा जा सकता है। शुद्धतावादियों को भले ही यह भाषा नहीं पच रही हो, समाज में लोकप्रिय होती रही है। सूचना संचार प्रणाली किसी भी व्यवस्था के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण होती है। अँग्रेज रहे हों या आज के हमारे नेता या फिर समाजसेवी, सभी यह समझते रहे हैं कि असली सत्ता जनसंचार में निहित होती है। आज भी देखा जाए तो बाजार के माध्यम से अर्थ-व्यवस्था की जान जनसंचार माध्यमों में ही बसती है। जनसंचार माध्यमों का ताना-बाना अधिक जटिल और व्यापक होता है क्योंकि वे तुरंत और दूरगामी असर करते हैं। संचार क्रांति के विस्तार में इंटरनेट और वेबसाइट के द्वारा भी सूचना के आदान-प्रदान ने भाषा के लिए नए क्षेत्र भी मुहैया कराए हैं। परिणामस्वरूप भाषा में भी नए शब्दों, वाक्यों, अभिव्यक्तियों और वाक्य संयोजन की विधियों का समावेश हुआ है।

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हिंदी जानने वाले एक दूसरे को जोड़ते हैं, तो वे ऐसा भाषा के द्वारा ही करते हैं। अत: संचार माध्यम की भाषा के रूप में प्रयुक्त होने पर हिंदी समस्त ज्ञान-विज्ञान और आधुनिक विषयों से सहज ही जुड़ गई है। इस सबसे हिंदी भाषा के सामर्थ्य में वृद्धि हुई है। माध्यमों के साथ मिलकर वह जनमत का निर्माण करने के लिए बुद्धिजीवियों और जनता के विचारों के प्रकटीकरण और प्रसारण का आधार बनती है, घटनाचक्र और समाचारों का गहन विश्लेषण करती है तथा वस्तु की प्रकृति के अनुकूल विज्ञापन की रचना करके उपभोक्ता को उसकी अपनी भाषा में बाज़ार से चुनाव की सुविधा मुहैया कराती है। आज व्यवहार क्षेत्र की व्यापकता के कारण संचार माध्यमों के सहारे हिंदी भाषा की भी संप्रेषण क्षमता का तीव्र विकास हो रहा है। हम देख सकते हैं कि राष्ट्रीय ही नहीं, विविध अंतरराष्ट्रीय चैनलों में हिंदी आज के आधुनिक संदर्भों को व्यक्त करने के अपने सामर्थ्य को वैश्विक-पटल के समक्ष प्रमाणित कर रही है। अंतरराष्ट्रीय शब्द कोष में इसके बहुत से शब्दों को स्थान दिया गया है। कहा जा सकता है कि वैश्विक संदर्भ में हिंदी की वास्तविक शक्ति को उभारने में समाचार-माध्यमों और विज्ञापनों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

संचार माध्यम की भाषा ने जनभाषा का रूप धारण करके व्यापक जन स्वीकृति प्राप्त की है। समाचार विश्लेषण तक में मिश्रित हिंदी का प्रयोग इसका प्रमुख उदाहरण है। अनेक प्रकार के धारावाहिकों का प्रदर्शन विभिन्न चैनलों पर जिस हिंदी में किया जा रहा है वह भारतीय संदर्भ में एकरूपी और एकरस नहीं होते हुए भी विषय के अनुरूप उसमें अनेक प्रकार के व्यावहारिक भाषा रूपों का मिश्रण उसे जनस्वीकृत स्वरूप प्रदान कर रहा है। संचार माध्यमों के कारण हिंदी भाषा बड़ी तेज़ी से संस्कृतनिष्ठ से सरलीकरण की ओर जा रही है। इससे उसे भारतीय समाज में ही नहीं बल्कि हिंदी के वैश्विक समाज में भी स्वीकृति प्राप्त हो रही है। ऐसा कहा जाता है कि हिंदी दूसरी सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा बन गई है आगे यह भी हो सकता है कि हिंदी दुनिया की प्रथम् सर्वाधिक व्यवहृत भाषा सिद्ध हो। हिंदी के इस वैश्विक विस्तार का बड़ा श्रेय भूमंडलीकरण और संचार माध्यमों के विस्तार को जाता है। यह नई हिंदी कुछ प्रतिशत अभिजात वर्ग की भाषा नहीं बल्कि अनेकानेक बोलियों में व्यक्त होने वाले ग्रामीण भारत की नई संपर्क भाषा भी होती जा रही है। इस भारत तक पहुँचने के लिए बड़ी-से-बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को भी हिंदी और भारतीय भाषाओं का सहारा लेना पड़ रहा है। हिंदी के इस रूप विस्तार के मूल में कहा जा सकता है कि गतिशीलता हिंदी का बुनियादी चरित्र है और हिंदी अपनी लचीली प्रकृति के कारण स्वयं को सामाजिक आवश्यकताओं के लिए आसानी से बदल लेती है। इसी कारण हिंदी के अनेक ऐसे क्षेत्रीय रूप विकसित हो गए हैं जिन पर उन क्षेत्रों की भाषा का प्रभाव साफ़-साफ़ दिखाई देता है। जैसे किसी दक्षिण-भारतीय के द्वारा बोली जाने वाली हिंदी, बंगाली या पूर्वोत्तर राज्य के निवासियों द्वारा प्रयोग की जाने वाली हिंदी पर उनके क्षेत्र की भाषा का प्रभाव दिख जाएगा। इस संदर्भ में कहा जा सकता है कि हिंदी व्याकरण और संरचना के प्रति अतिरिक्त सचेत नहीं रहती बल्कि पूरी उदारता के साथ इस प्रभाव को आत्मसात कर लेती है। यही प्रवृत्ति हिंदी के विकास का आधार है और जब तक यह है तब तक हिंदी का विकास रुक नहीं सकता।

बाज़ारीकरण से आर्थिक उदारीकरण, सूचना-क्रांति तथा जीवनशैली के वैश्वीकरण की जो स्थितियाँ भारत सामने आईं, उनमें पड़कर हिंदी भाषा के अभिव्यक्ति कौशल यानी हिंदी का विकास ही हुआ। यदि अभिव्यक्ति माध्यम अँग्रेजी हुई होती तो अँग्रेजी का प्रचार होता। लेकिन आज प्रचार माध्यमों की भाषा हिंदी है तो बाजारीकरण के द्वारा उत्पन्न स्थितियों से ही। अँग्रेजी भले ही विश्व भाषा हो, भारत में वह डेढ़-दो प्रतिशत की ही भाषा है। इसीलिए भारत के बाज़ार की भाषाएँ भारतीय भाषाएँ ही हो सकती हैं, अँग्रेजी नहीं। इसका एक और कारण भारत रूपी इस बड़े बाज़ार में सबसे बड़ा उपभोक्ता वर्ग मध्य और निम्न वर्ग का आर्थिक समाज है, जो अँग्रेजी की अपेक्षा अपनी मातृभाषा या राष्ट्रभाषा से अधिक प्रभावित होती है। इसमें कोई संदेह नहीं कि बाजार की भाषा उत्पाद, विषय वस्तु या विचार के प्रचार प्रसार के लिए सामान्य से विशिष्ट भाषा का रूप ग्रहण करती है तथा अपने अपरंपरागत भाषा प्रयोग के कारण ही समाज के ध्यानाकर्षण का केंद्र होती है। विज्ञापन में प्रयुक्त होने वाली हिंदी भाषाविज्ञान में खरी उतरे या नहीं समाज में इस तरह की हिंदी स्वीकार्य हुई है और जीवंत भाषा के रूप में निश्चित रूप से दर्ज हुई है। लेकिन इन सबके बीच हम एक महत्त्वपूर्ण बात को नजर-अंदाज कर रहे हैं, वह है संचार-माध्यमों के द्वारा प्रयुक्त हो रही हिंदी के साथ अन्य भाषा खासकर अँग्रेजी का शुरू से ही शामिल रहना। इसको लेकर हिंदी के हियायती भी लगभग चुप ही रहते हैं जबकि इस पर गौर किया जाए तो यह आगे जाकर विचित्र स्थिति को पैदा कर सकता है। देश के स्वतंत्रता से पूर्व भी अँग्रेजी शासन में अनपढ या कम शिक्षित हिंदुस्तानी फौजियों को रोमन लिपि लिखाई जाती थी, ताकि उसमें वे अपनी भाषा लिख सकें। जिसके पीछे उनका उद्देश्य रोमन लिपि सीखाना था और मानना था कि इसी बहाने वे टूटी-फूटी अँग्रेजी भी सीख लेंगे। अँग्रेजी के प्रसार की यह कूटनीति सफल नहीं हो पाई। अब ठीक इसी तरह का काम जाने या अंजाने में ही सही, लेकिन बहुराष्ट्रीय कंपनियों और साथ ही कुछ राष्ट्रीय कंपनियों के विज्ञापन निर्माताओं द्वारा किया जा रहा है। आज केबिल और डिजिटल चैनलों पर चौबीस घण्टे प्रसारित कार्यक्रम भारत में हर वर्ग के लोग देखते हैं। समाचारों और मनोरंजन के कार्यक्रम और उनके बीच विज्ञापन के प्रसारण हर समय चलते रहते हैं, जिनके आकर्षण में डूबे लोग समाचार पत्र और पुस्तकें कम पढते हैं। विज्ञापन की भाषा प्रायः अँग्रेजी होती जा रही है, पर जो विज्ञापन हिंदी में प्रसारित होते हैं, उनकी हिंदी अँग्रेजी मिश्रित होती है। कोई भी विज्ञापन देख लीजिए, उसमें ऐसी शब्दावली मिल जाएगी, जिसे मध्यवर्ग का शिक्षित वर्ग ही समझ सकता है, जनसाधारण नहीं, जो अँग्रेजी नहीं जानता। उसमें तरह-तरह के शेंपू, साबुन, मंजन, पानी साफ करने की मशीन, मोबाइल, कार आदि से संबंधित विज्ञापन होते हैं। संचार-माध्यमों में ज्यादा लोकप्रिय भाषा हिंदी और इसमें भी अँग्रेजी मिश्रित हिंदी ज्यादा लोकप्रिय है, क्योंकि इन चैनलों के दर्शक भारत से बाहर भी बड़ी संख्या में हैं, जो हिंदी के इस रूप को अँग्रेजी के चलते आसानी से समझ लेते हैं। इस नजरिए से भले ही कहा जा सकता है कि हिंदी का प्रचार-प्रसार हो रहा है लेकिन कहीं-न-कहीं इनके मूल में धीरे-धीरे रोमन लिपि का प्रभाव दिखने लगता है। विज्ञापनों के ही संदर्भ में बात करें, तो रोज ऐसे बीसियों विज्ञापन दिख जाएंगे, जिनमें पहले हिंदी या यूं कहें कि देवनागरी लिपि की प्रधानता थी लेकिन अब धीरे-धीरे रोमन लिपि की प्रधानता नजर आने लगी है। कह सकते हैं कि यह हिंदी अब अँग्रेजी की ओर बढ़ने लगी है। इन सबमें यह साफ नजर आता है कि निम्नवर्ग को धीरे-धीरे नजर-अंदाज कर नई भाषा को बनाई जा रही है, जो मध्यवर्ग, उच्चवर्ग के लोगों के जीवन का अभिन्न अंग बनती जा रही है। कहा जा सकता है कि ये मध्यवर्ग, उच्चवर्ग और शिक्षित लोगों के लिए अधिक हैं, जनसाधारण के लिए नहीं। इस मिश्रित भाषा के बारे में कहा जाता है कि ये हिंदी भाषी जनता के साथ गैर हिंदी भाषी जनता के लिए भी होते हैं। इसलिए इनमें अँग्रेजी हिंदी का मिश्रण एक अनिवार्यता है। लेकिन ऐसा ही है तो अँग्रेजी में विज्ञापन आते हैं इसके साथ भी यह तर्क पेश किया जा सकता है। इसमें मिश्रित भाषा के समर्थकों को आपत्ति भी नहीं होनी चाहिए। हिंदी में जो विज्ञापन छपते हैं उनमें अँग्रेजी का अनावश्यक दखल होता है।

विज्ञापनों में हिंदी शब्दों को रोमन लिपि में जाता है। यह एक तर्कपूर्ण नीति नहीं है, जिसमें किसी भी भाषा और लिपि पर विदेशी भाषा और विदेशी लिपि को थोप दिया जाता है। जानबूझकर ध्यानाकर्षण के बहाने रोमन लिपि का प्रयोग कर उसे कमजोर और लचर बनाना हिंदी के लिए आगे चलकर खतरनाक स्थिति पैदा करना है। पर विज्ञापनदाता मध्य और उच्च वर्ग तक अपनी पकड़ बनाने के चलते अँग्रेजी के मोह में इतने फँसे हैं कि हिंदी को रोमन लिपि के तरह बनाकर चलाना चाहते हैं। यहाँ रोमन या इस तरह के किसी लिपि विरोध नहीं किया जा रहा है और न ही जनता में प्रचलित अँग्रेजी शब्दों के व्यवहार का पर उनका प्रयोग हिंदी की प्रकृति के अनुसार हो ऐसा सुझाव पेश किया जा रहा है। यह मानते हुए कि हिंदी भाषा को भ्रष्ट करने करना खतरनाक होगा। सूचना, समाचार और विज्ञापनों के माध्यम से इन्हीं माध्यमों के द्वारा हिंदी को बिगाड़ने और देवनागरी लिपि को रोमन लिपि द्वारा अपदस्थ करने का विरोध होना चाहिए।

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