हिंदी का नया वितान : सोशल मीडिया
साहित्य-सृजन केवल कोरे कागज़ को ‘कारे कागद’ में तब्दील करना भर नहीं है, और न ही स्याही से कुछ स्याह सतरे लिखना। साहित्य शब्दों के माध्यम से जीवन अनुभूति की वह संवेदी शब्द रचना है जो जीवन मूल्य व जीवन दर्शन को एक विश्व दृष्टि प्रदान करता है। साहित्य सृजन का यह उपक्रम अनादि काल से चला आ रहा है। बदलते समय के साथ लेखन ने विकास की जो यात्रा तय की है वह भोजपत्रों, ताम्रपत्रों से होते हुए कागज़ तक और अब उससे भी आगे डिजिटल लेखन तक पहुँच गया है। वर्तमान समय में मार्शल मैक्लूहान का ‘मीडियम इज मैसेज’ यानी माध्यम ही संदेश है की बात हावी हो रही है। वर्चुअल दुनिया की ताकत जोर पकड़ रही है,और हर कोई इस ताकत के साथ जोर आजमाइश कर लेना चाहता है। और चाहे भी क्यों नहीं; यह जो ‘वर्चुअल स्पेस’ है तकनीक का लोकतांत्रिकीकरण है। किसी को मनाही नहीं है अपनी बात कहने को, अपने विचार साझा करने को और न ही अपनी अनुभूति लिखने को।
वर्तमान समय में संप्रेषण विस्तार का एक सशक्त माध्यम है इंटरनेट, यानी सोशल मीडिया। अपनी संभावनाओं, आकांक्षाओं से लबरेज हिंदी जन मानस को अपनी ओर आकर्षित करता सोशल मीडिया बेबाकी और बेफिक्री से साहित्य का एक नया वितान रच रहा है जो समाज के हर एक हिस्से तक पहुँच रहा है। अभी तक साहित्य की पहुँच आमजन तक एक ख़ास विचारधारा एवं एक ख़ास आग्रह के साथ रही है। आमजन को केंद्र में रखकर साहित्य सृजन लगातार होता रहा है, लेकिन सोशल मीडिया ने आमजन को वह जगह मुहैया कराया है जहाँ वे अपनी सृजनशीलता को सृजित करते हैं और रचते हैं अपनी एक नई दुनिया; जिसको वे पहले ही रच लेना चाहते थे, अभिव्यक्त कर देना चाहते थे, लेकिन कोई नहीं था उन्हें छापने वाला। छापाखाना यानी छपने के अपने नियम कानून और उसके नियामक (प्रकाशक, सम्पादक) थे; जो नहीं चाहते थे अपने ‘ख़ास क्षेत्र’ में किसी और का दखल। एक ऐसा दखल जिससे उनकी रचनाधर्मिता पर सवाल खड़ा हो। लेकिन सोशल मीडिया ने सवाल करने व अपनी बात कहने और अपने यथार्थ, अपने कल्पना के परवाज को पंख देने के लिए वर्चुअल दुनिया खासकर ‘फेसबुक’ ने वह जगह दिया जिसकी सभी को दरकरार थी। हर कोई अपनी उद्दाम भावना को व्यक्त कर देना चाहता है। अभिव्यक्त करने की जल्दबाजी ऐसी कि समय से पहले ही पहुँच जाना चाहते हैं जहाँ भविष्य से कोई उम्मीद ही न रह जाय, जहाँ स्मृतियों को सहेजना न पड़े, और न ही बचाकर रखना पड़े अलिखित ज्ञान परंपरा को। सब कुछ लिख देने की हड़बड़ी इतनी कि भविष्य की आशंका ही न बचे। ‘स्वांत: सुखाय’ की प्रक्रिया ऐसी कि लेखन का मोह त्यागना मुश्किल,जो भी बन पाया है कच्चा-पक्का उसे सिराजना नहीं; और न ही उसे अनुभव का उम्र देकर सहेजना। वर्तमान की चिंता इतनी कि भविष्य के लिए एक पल भी ठहर कर इन्तजार करना मुमकिन नहीं।
सोशल मीडिया का जो अपना स्वरूप है वह स्थायित्व का नहीं है, विश्वास का नहीं है, गंभीरता का नहीं है। जनसत्ता के पूर्व संपादक ओम थानवी के अनुसार- ‘फेसबुक एक छिछोरा माध्यम है, विश्वसनीय नहीं।’ छिछलेपन का यह आरोप अनायास नहीं है बल्कि इसके पीछे की पूरी राजनीति है; जो सूचना क्रांति के इस दौर में ग्लोबल होती दुनिया की बुनियाद है। तेजी इतनी की सुबह का बहस दोपहर तक शिखर पर और शाम होते होते शून्य पर पहुँच जाता है, और फिर एक नये विमर्श की शुरूआत होती है और मामला साहित्यिक चोरी से होते हुए विमर्श का एक दूसरा ही रूप ले लेता है। सोशल मीडिया ने साहित्य के लिए जो उर्वर जमीन मुहैया करायी है उसमें साहित्य को फलने-फूलने, फैलने व विस्तारित होने की जितनी संभावना है, उतनी ही संभावना लतर (लता) बन किसी के सहारे टिके रहने की है और अपनी लानत मलानत करवाने की भी है। आरोपों को झेलते हुए साहित्य के लिए नये विंब विधान, नये शब्द और प्रतीक व अभिव्यक्ति के नये सोपान तैयार करता सोशल मीडिया विश्वास की दरकती संभावनाओं को सामने ले आ रहा है। और सामने ले आ रहा है ऐसे लेखकों, कवियों, विमर्शकारों को जो तेजी से बदलते शब्दों के आभासी संसार में सबकुछ बदल देने का प्रण लिए उतावले हैं बेहतर दुनिया की संकल्पना के साथ।
विक्टर ह्यूगो कहते हैं- जिस विचार का समय आ गया उसे दुनिया की कोई ताकत रोक नहीं सकती। 21 वीं सदी के दूसरे दशक का का विचार सोशल मीडिया है जो एक ‘चिप’ में सिमट गया है। यह सिमटना विचारों का प्रस्फुटन है, फैलना है, विस्तारित होना है। 5 हजार से अधिक लेखक व कवि की पैदाइश है सोशल मीडिया। एक कहावत है – जहाँ न पहुंचे रवि, वहाँ पहुंचे कवि। यही बात सोशल मीडिया पर भी लागू होती है। जहाँ मुख्यधारा की पहुँच नहीं है या यूं कहें कि जहाँ मुख्यधारा की मीडिया पहुंचना ही नहीं चाहती वहाँ सोशल मीडिया ने कवि की भूमिका का निर्वाह करते हुए अपनी पहुँच बनायी है। यह सच है कि मुनाफे के लिए बाजार अपने प्रच्छन्न रूपों में अपनी ताकत इन माध्यमों के साथ विस्तारित कर रह है। सब कुछ तय करने लगा है बाजार। हमारी संवेदना, हमारी भावना, हमारे जीवन मूल्य, जीवन आदर्श और हमारी नैतिकता भी तकनीक के भरोसे है। तकनीक का यह भरोसा ख़ुशी और उदासी तय करने लगे हैं; क्योंकि लाइक और कमेन्ट के भरोसे खुश होने का खुराक जो मिलता है। खुश होने का यह खुराक निरंतर नियोजित होता है तकनीक के उस पक्ष से जहाँ आम जन की पहुँच अभी-अभी हुई है।
भाषा भावना और संवेदना का विषय है। और यह संवेदना स्मृतियों के संचित कोश से निकलती है। सब कुछ मशीनी हो जाना और बाजार के हवाले कर देना असंवेदनशीलता की निशानी है। जिस दौर में शब्दों का भाव पक्ष कमजोर होता चला जा है और विचार पक्ष भी टिकाऊ नहीं है,और अतिशयता इतनी कि इसे विचारों का विस्फोट कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा। तकनीक और विश्व बाज़ार को सामने रखकर हिंदी भाषा से उसके बनते हुए संबंधों को देखें तो पाते हैं कि विश्व बाज़ार के सांस्कृ़तिक पहलुओं को भारतीय समाज की अंदरूनी तहों में प्रवेश कराने में हिंदी की अहम भूमिका है और इसके लिए एक सशक्त भूमिका का निर्वहन किया है सोशल मीडिया ने। भाषा का संवेदी होना तकनीक के भरोसे संभव नहीं है और न ही संभव है इस दौर में मूल्य-सापेक्ष होना। तकनीक हमेशा से मूल्य-निरपेक्ष रहा है इसलिए भाषा के साथ भी उसका रवैया वही है। भाषा की स्वतंत्रता का सवाल ऐसा कि भदेस होने की पूर्णख्याली अपने प्रारम्भिक अवस्था से ही जारी है। ‘भाषा में भदेस हूँ, इतना कायर हूँ कि उत्तरप्रदेश हूँ’ की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता। सोशल मीडिया का दबाव हर भाषा अपने उपर महसूस कर रही है; और उसमें भी हिंदी थोड़ी ज्यादा। बाजार के साथ कदमताल करने की कोशिश में हिंदी ने अपना रूप विधान बदला है। कुछ लोग इसे भाषा का सहज प्रवाह कहते हैं तो कुछ लोग इसे भाषा का दूषित होना कहते हैं। हिंदी के बदले हिंग्लिश होने लगा है। सोशल मीडिया पर भाषिक स्वच्छंदता इतनी अधिक हावी है कि गाली-गलौज से रूबरू होना आम बात है। वाक्य संरचना और व्याकरणिक अवबोध से गुजरना आम चलन में है। साथ ही बाज़ारू भाषा और साहित्यिक भाषा के अंतर को कम किया है सोशल मीडिया ने। हिंदी के संदर्भ में यह बात पूरी तरह से सच है।
सोशल मीडिया और बाजार ने हिंदी भाषा का जो विस्तृत फ़लक बनाया है उसमें लगभग 75 करोड़ लोग इस भाषा व्यवहार से जुड़ते हैं। इस तरह से हिंदी भाषा स्वभावत: बाज़ार शक्तियों के इस्तेमाल के लिए एक प्रभावशाली उपकरण बन जाती है। बाज़ार संचालित यह भाषा बाज़ार से अलग होकर नहीं, बल्कि उसके साथ होकर एक मिश्रित भाषा को तैयार कर रही है जो बाज़ार को गांवों तक पहुंचा दें। पिछली शताब्दी के आखिरी दशक में जब विदेशी कंपनियां व्यापार के लिए भारत आयीं तो उनका हमारी देशी भाषाओं के साथ एक खास स्तर पर सम्मिलन हुआ। हिंदी के साथ विशेष तौर पर बाहरी सांस्कृातिक संदेश चोला बदलकर हमारे समाज की अंदरूनी तहों में उतरने लगे। 90 के दशक में हॉलीवुड के एक बड़े फिल्म निर्माता स्टीफन स्पिलबर्ग ने जब अपनी बहुचर्चित फिल्म जुरासिक पार्क को हिंदी में डब किया तो ऐसा लगा कि वे एक कारपोरेट रणनीति के तहत भाषा के व्यापार के लिए नये दरवाजे खोल रहे हैं। जुरासिक पार्क हिंदी में ‘डब’ होकर देश के छोटे-छोटे कस्बों और गाँवों तक पहुँच गयी। रूपर्ट मर्डोक ने भी भाषा के इस महत्व को समझा और स्टार टीवी के सभी कार्यक्रम हिंदी में तैयार करवाए। यह सिर्फ देशी भाषा में अनुवाद की बात नहीं थी, बल्कि उससे एक कदम आगे बढ़कर विदेशी सांस्कृतिक छवियों को देशी मिजाज़ के अनुकूल गढ़ना/बनाना भी था।
यह विश्व बाज़ार का हिंदी भाषा के साथ बनने वाला एक नये तरह का संबंध है। हिंदी के इसी डिजिटल होने पर पत्रकार रवीश कुमार कहते हैं- ‘इंटरनेट ने हिंदी में नई प्रतिभाओं को सामने लाने में अहम भूमिका अदा की है। पहले प्रकाशकों और लेखकों के एक गठजोड़ के कारण नई रचनाओं और रचनाकारों के दर्शन दुर्लभ हो जाते थे। लेकिन अब इंटरनेट ने उन्हें अपनी रचना या विचारों को आमजन तक पहुंचाने के लिए सभी बाधाओं को खत्म करते हुए उनकी राह आसान कर दी है। यह आसान राह आसान मंजिल भी बना रही है। ऐसी मंजिल जिस पर टिके रहने की किसी को जरूरत नहीं। सोशल मीडिया ने बदल दीये हैं लोकप्रियता के पैमाने। लेखकों और पाठकों के बीच बढ़ गया है संवाद और सीधा हो गया है जुड़ाव, लेकिन यह जुड़ाव कितना साहित्य सापेक्ष है और कितना लेखक-निरपेक्ष यह कहना मुश्किल है। पिछले कुछ सालों में फेसबुक ने संवादहीनता को तोड़ा है और लेखक–पाठक को सीधे जोड़ा है। यह जुड़ाव एक नये तरह का सबंध बना रहा है जिसमें पाठक भी लेखक बनने की प्रक्रिया में शामिल है। इस संदर्भ में राजकमल प्रकाशन के संपादकीय निदेशक सत्यानन्द निरूपम की यह बात दृष्टव्य है- “लोकप्रिय साहित्य के प्रसार में सोशल मीडिया की भूमिका अभी निर्णायक है। अगर सोशल मीडिया को हमारे समय से घटा कर देखें तो और कोई प्रभावी जरिया नहीं है, जिससे टारगेट पाठक तक कोई भी प्रकाशक या लेखक अपनी किसी पुस्तक को इतनी आसानी से पहुंचा सकता हो। इस प्लेटफ़ॉर्म की सबसे खूबसूरत बात यह है कि इसके जरिए न केवल पुस्तक के बारे में लोगों को बताया जा रहा है, बल्कि बेचा भी जा रहा है और लोग खरीद कर पढ़ने के बाद इसकी खबर भी वहां साझा कर रहे हैं। दरअसल सोशल मीडिया लोकप्रिय साहित्य के प्रसार के लिए एक तरह का 360 डिग्री सोल्यूशन है।” यानी साहित्य के प्रचार-प्रसार के मातहत सब कुछ मौजूद है, सर्वसुलभ है।
डिजिटल दुनिया के इसी संदर्भ में देखें, तो हिंदी का पहला वेब पोर्टल सन 2000 में अस्तित्व में आया और तभी से इंटरनेट पर हिंदी ने अपनी पकड़ मजबूत बनाई। इंटरनेट पर केवल नई पीढ़ी ही नहीं है, बल्कि पुरानी पीढ़ी भी इसमें बढ़-चढ़ कर हिस्सेदारी कर रही है। इंटरनेट ने हिंदी को प्रकाशकों के चंगुल से मुक्त कराने का भी भरसक प्रयास किया है। इंटरनेट पर हिंदी का सफर रोमन लिपि से प्रारंभ होता है और फॉन्ट जैसी समस्याओं से जूझते हुए धीरे-धीरे यह देवनागरी लिपि तक पहुंचता है। यूनीकोड, मंगल जैसे यूनीवर्सल फॉन्टों ने देवनागरी लिपि को कंप्यूटर पर एक नया जीवन दिया है। आज इंटरनेट पर हिंदी से संबंधित लगभग 200 से अधिक ई-पत्रिकाएं देवनागरी लिपि में उपलब्ध हैं। वर्तमान समय में स्वतंत्र अभिव्यक्ति के लिए ब्लॉग एक महत्त्वपूर्ण साधन बन चुका है जो हर समय सुगमता से ब्लागर और पाठक दोनों के लिए उपलब्ध है। आलोक कुमार हिंदी के पहले ब्लागर हैं जिन्होंने ब्लॉग ‘नौ-दो-ग्यारह’ बनाया। आज हिंदी में ब्लॉगों की संख्या एक लाख के ऊपर पहुंच चुकी है। इनमें से लगभग दस हजार अति सक्रिय और बीस हजार सक्रिय की श्रेणी में आते हैं। आलोक कुमार ने ही इंटरनेट पर पहली बार ‘चिट्ठा’ शब्द का इस्तेमाल किया जो अब ख्याति प्राप्त कर चुका है।
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय,वर्धा ने हिंदी के डिजिटल दुनिया में काफी अहम योगदान किया है। इसकी वेबसाइट हिंदी समय डॉट कॉम (http://www.hindisamay.com/)पर हिंदी के लगभग एक हजार रचनाकारों की रचनाएं उपलब्ध है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल, हजारीप्रसाद द्विवेदी, श्यामसुंदर दास आदि की ग्रंथावलियों के साथ-साथ समकालीन रचनाकारों की रचनाओं को भी इसमें स्थान दिया गया है। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा ने हिंदी प्रेमियों, शिक्षकों, शोधार्थियों को एक चलता-फिरता पुस्तकालय मुहैया कराया है, जिसकी जितनी भी प्रशंसा की जाए कम है। वर्धा हिंदी शब्द कोश,मानक हिंदी प्रयोग कोश (http://www.ehindipk.in)ने हिंदी के संवर्धन, विकास एवं आभासी दुनिया के लिए सहज रूप से हिंदी को पहुंचाने में अग्रणी भूमिका का निर्वहन बहुत ही ज़िम्मेदारी से कर रहा है। अब तो हिंदी के कई सर्च इंजन हैं जो किसी भी वेबसाइट का चंद मिनटों में हिंदी अनुवाद करके पाठकों के समक्ष प्रस्तुत कर देते हैं। गूगल,याहू, और फेसबुक भी हिंदी में उपलब्ध हैं। इंटरनेट की दुनिया ने तेजी से अपना कलेवर और मिज़ाज बदला है। भाषाई वर्चस्व को तोड़कर इंटनेट का बाज़ार बोलियों तक पहुँच गया है। अब तो स्थिति यहाँ तक आ गई हैं कि कंप्यूटर और मोबाइल में कीपैड की आवश्यकता बहुत जरूरी नहीं जान पड़ता। बोलने मात्र से ही शब्द लिख जाते हैं। वैसे यहाँ भी अपने प्रारम्भिक चरण में है। हिंदी अब कंप्यूटर से निकल कर मोबाइल में न केवल पहुंच चुकी है बल्कि भारी संख्या में लोग इसका उपयोग भी कर रहे हैं। मोबाइल तक हिंदी की पहुंच ने देश में देवनागरी लिपि के समक्ष खड़ी चुनौती को काफी हद तक मिटा दिया है। कंप्यूटर और मोबाइल ही आज के कागज कलम दवात हैं, ‘रोटोमैक पेन हैं जिससे लिखते लिखते लव हो जाता है।’ सोशल मीडिया का हिंदी में विस्तृत पैमाने पर प्रयोग शुरू हुए अभी ठीक से एक दशक भी नहीं हुआ है लेकिन इसका प्रभाव व विस्तार सकारात्मक है।
समग्रता में जहाँ बाज़ार भाषा को विस्तार देता है तो वहीं साहित्य गहराई। सोशल मीडिया ने हिंदी साहित्य और हिंदी भाषा को विस्तार तो दिया है, लेकिन इसके स्वरूप को भी परिवर्तित किया है।140 शब्द की ट्विटर कहानियों ने अपनी एक अलग जगह बनायी है। कम शब्दों में एक कहानी लिखने की प्रक्रिया लघु कहानी कही जाती थी लेकिन 140 शब्द की कहानी और उसके बाद पांच शब्द की कहानी भी अपनी बात लोगों तक पहुँचाने में सफल रही है। यह दीगर बात है कि इस तरह की कहानियों में शिल्प, भाषा व कथानक की गुंजाईश बहुत ही कम रहती है। भाषा को जहाँ एक तरफ देश, काल और परिस्थितियां प्रभावित करती रहीं हैं, वहीं दूसरी तरफ तकनीक भी भाषा को प्रभावित करती है। सोशल मीडिया ने हिंदी साहित्य के सामने भाषा की एक चुनौती रखी कि कम शब्दों में कह दो अपनी बात और जुड़ जाओ तकनीक के उस हिस्से से जहाँ हिंदी साहित्य की हिस्सेदारी अभी हाशिए पर थी। अपने शुरूआती दिनों में हिंदी को परेशानियों से दो-चार होना पड़ा। संघर्ष करना पड़ा अपने वजूद के लिए, लड़ना पड़ा स्थापित होने के लिए, और जूझना पड़ा उस मुकाम को हासिल करने के लिए जहां आज वह है। सब कुछ के बावजूद तकनीक के इस निकष पर खरी उतरी है हिंदी। हिंदी भाषा के बाद चुनौती थी तकनीक के साथ जुड़कर साहित्य सृजन की। (देह रूपी भाषा और आत्मा रूपी साहित्य) तकनीक के साथ देह जुड़ने के बाद आत्मा जुड़ने में समय नहीं लगा और न ही कोई झिझक रहा। इस मिलन के बाद हिंदी साहित्य ने अपनी जो रफ्तार पकड़ी उससे लगातार आगे बढ़ रही है। लेकिन उसका यह बढ़ना एकाकी है। सोशल मीडिया का जो स्वरूप है उसमें साहित्य के लिए वह जगह नहीं जिसकी जरूरत साहित्य को होती है। स्थायित्व के अभाव में सोशल मीडिया में साहित्य फौरी तौर पर एक सूचना तक है।
यह सच है कि साहित्य सृजन यथार्थ का चित्रण नहीं, बल्कि इसमें कल्पना का भाव अभिव्यंजित होता है। लेकिन जब सोशल मीडिया पर साहित्य सृजन होता है तो उसमें यह भाव अलग तरीके से आता है। तमाम अतिरेकों के बावजूद सोशल मीडिया पर हिंदी साहित्य का प्रसार बढ़ता जा रहा है, इसलिए बढ़ रही है हिंदी साहित्य की रचनाधर्मिता। हिंदी की इस रचनाधर्मिता ने हिंदी को नए तरह से गढ़ा है और विस्तारित भी किया है।
संदर्भ सूची
- रवींद्र जाधव केशव मोरे. (2016) हिन्दी और मीडिया: बदलती प्रवृत्ति (सं.). दिल्ली : वाणी प्रकाशन
- हंस ( हिन्दी मासिक पत्रिका) सितंबर 2018
- शर्मा, सुशील कुमार. बदलते परिदृश्य में हिन्दी भाषा की स्वीकार्यता http://hindi.webdunia.com/my-blog/hindi-language-118091400025_1.html
- दास, रवीद्र कुमार. सोशल मीडिया साहित्य के प्रसार में अच्छी भूमिका निभा रहा है https://www.patrika.com/special-news/social-media-is-playing-a-good-role-in-the-dissemination-of-literature-1-1879087/
- सोशल मीडिया और हिन्दी साहित्य https://hindi.pratilipi.com/read?id=4915320182538240