संज्ञानात्मक भाषाविज्ञान : एक परिचय

संज्ञानात्मक भाषाविज्ञान, भाषावैज्ञानिक विवेचन एवं अनुप्रयोग की एक अत्याधुनिक विचारधारा है, जो मानवीय भाषा का मनुष्य के मस्तिष्क एवं उसके सामाजिक–साँस्कृतिक-शारीरिक अनुभवों से संबंध का निरूपण करती है। संज्ञानात्मक भाषाविज्ञान, अन्य संज्ञानात्मक विज्ञानों, विशेषकर संज्ञानात्मक मनोविज्ञान के सिद्धांतों एवं निष्कर्षों से बहुत प्रभावित हुआ है। भाषा एवं बोध का तंत्रिका-तंत्र पर आधारित खोजों से (कैसे दृश्य संबंधी जैविक संरचना रंगों से संबंधित शब्द-व्यवस्था को नियंत्रित करती है (Kay & McDaniel, 1978) एवं आधुनिकतम भाषा का तंत्रिकीय सिद्धांत (Neural Theory of Language) के कलेवर में किए गए शोध (Gallese & Lakoff, 2005) संज्ञानात्मक भाषावैज्ञानिक सिद्धांतों के स्वरूप, प्रकृति एवं सामग्री पर दूरगामी प्रभाव हुआ है। वर्तमान में संज्ञानात्मक भाषावैज्ञानिक सिद्धांत इतने विस्तृत एवं परिष्कृत हो चुके हैं कि वे भविष्य कथन पर भी हाथ आजमा रहे हैं। इनको संज्ञानात्मक विज्ञान की ओर अभिमुख पद्धतियों के व्यापक क्षेत्र का उपयोग कर परीक्षण करके प्रमाणित किया जा सकता है।

1980 के दशक के अंत तक संपूर्ण यूरोप एवं उत्तरी अमेरिका में संज्ञानात्मक भाषाविज्ञान से संबंधित शोधों का प्रचार एवं प्रसार काफी हो चुका था और बहुत बड़ी संख्या में विश्व भर में फैले अनेक भाषाविद् अपने को संज्ञानात्मक भाषावैज्ञानिक के रूप में स्थापित कर चुके थे। क्रमशù रूपात्मक भाषाविज्ञान (Formal Linguistics) जिसने विश्व के जाने-माने भाषाविद् चॉमस्की की छत्रछाया में बुलंदियों को छुआ, की लोकप्रियता में गिरावट दर्ज होना शुरू हो गया। चॉमस्की के प्रजनक व्याकरण सिद्धांत का विकास लगभग पचास वर्षों में हुआ। यह 1965 में ‘आस्पेक्ट्स ऑफ द थियरी ऑफ सिन्टैक्स’ के प्रकाशन से शुरू होकर कई संशोधनों के साथ वर्तमान में यह मिनीमलिष्ट प्रोग्राम (1995 चॉमस्की) के रूप में प्रसिद्ध है। यहाँ चॉमस्की के प्रजनक व्याकरण सिद्धांत की प्रमुख बातों को संक्षिप्त रूप में रखना ठीक होगा, क्योंकि इन्हीं में से कुछ प्रमुख विशेषताओं के प्रतिरोध नें संज्ञानात्मक भाषाविज्ञान की नींव को मजबूती प्रदान की।

चॉमस्की का प्रजनक सिद्धांत

चॉमस्की का प्रजनक सिद्धांत मुख्य रूप से भाषा से संबंधित तीन विशिष्ट प्रश्नों के दायरे में भ्रमण करता है। ये तीनों प्रश्न हैं-

  1. भाषा के ज्ञान में क्या समाहित होता है? (Linguistic competence भाषिक अभिक्षमता)
  2. भाषा के ज्ञान का अर्जन कैसे होता है और इस अर्जित ज्ञान का वास्तविक परिस्थितियों में प्रयोग कैसे होता है? (Performance – भाषिक निष्पादन)
  3. भाषा प्रयोक्ता का भाषिक ज्ञान उसके मानस पटल पर आंतरिक व्याकरण (mental grammar) के रूप में अंकित होता है, जिसमें उस भाषा की शब्दावली, शब्द-संरचना, अर्थ और उस भाषा की ध्वनि व्यवस्था भी सम्मिलित होती है। इस प्रकार प्रयोक्ता का व्याकरण उसकी भाषिक क्षमता का मानसिक प्रतिरूपण (mental representation) है।

चॉमस्की का प्रजनक व्याकरण मुख्य रूप से भाषा के सभी परंतु सिर्फ व्याकरणिक वाक्यों को पारिभाषित करता है। चॉमस्की ने कहा इस संबंध में जोर देकर कहा कि अगर एक बार हमारे सामान्यीकरण (generalizations) पूर्ण और सही हो जाएँ, तो उन्हें भाषिक नियमों के एक गुच्छ (व्याकरण) में बदलकर उस भाषा के सभी व्याकरणिक वाक्यों का निर्माण करने में सफलता को प्राप्त किया जा सकता है। इस सिद्धांत में प्रखरता से यह कहा गया है कि अगर इस प्रक्रिया से अगर ठीक-ठीक ढंग से व्याकरणिक नियमों का निर्माण कर लिया जाय तो उस भाषा के सभी वाक्यों (जो भविष्य में बोले या लिखे जा सकते हैं वे भी) को पारिभाषित किया जा सकता है या उनका निर्माण किया जा सकता है बिना किसी अव्याकरणिक वाक्य का उत्पादन किए हुए। चूँकि किसी भी मानवीय भाषा में संभावित वाक्यों की संख्या अनंत है और और हम भी नियमों को असीमित नहीं करना चाहते हैं तो एक सफल प्रजनक व्याकरण में प्रत्यावर्तन (recursion) का गुण होना अत्यावश्यक है। यहाँ प्रत्यावर्तन से तात्पर्य व्याकरण के ऐसे नियमों से है, जिनके आधार पर उस भाषा के अधिकतम वाक्यों का निर्माण हो सके। दूसरे शब्दों में व्याकरण के एक ही नियम का प्रयोग अनेक बार एक ही प्रकार के वाक्यों के निर्माण में होगा। इस अर्थ में चॉमस्की का प्रजनक व्याकरण पूर्णत: याँत्रिक है। अर्थात् एक बार नियमों के निर्माण के पश्चात इसमें मानव मस्तिष्क के हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं होगी। इस सिद्धांत के अंतर्गत भाषा को प्रतीकों के हेर-फेर (manipulation system) की गणित के रूप में व्याख्यायित किया जाता है। भाषा के इस गणितीय स्वरूप में, गणित की विषय वस्तु में हेरफेर को बिना उन प्रतीकों को समझे और बिना उन प्रतीकों के बाहर के संदर्भों यथा बातचीत का संदर्भ, विशिष्ट अर्थ, प्रोक्ति (discourse) इत्यादि को यथोचित महत्त्व ही दिया गया है।    

चॉमस्की के प्रजनक व्याकरण का प्रारंभ ही भाषिक अभिक्षमता (competence) और भाषा के वास्तविक निष्पादन (performance) के बीच के अंतर पर बल देने के साथ हुआ। मानव के भाषिक अभिक्षमता से तात्पर्य उसमें निहित समग्र भाषिक क्षमता से है। उदाहरण के लिए अगर हम किसी कोई ऐसी ध्वनि, शब्द या वाक्य दे दें, जिसका उसने कभी प्रयोग न किया हो, फिर भी वह व्यक्ति अपनी भाषिक अभिक्षमता के आधार पर अपनी भाषा में इसे व्याकरणिक, अव्याकरणिक या स्वीकार्य, अस्वीकार्य होने के संदर्भ में निर्णय करता है। यह भाषा प्रयोक्ता का अपनी भाषा की संरचना का आँतरिक व्याकरण जिसका प्रयोग वह वास्तविक भाषिक निष्पादन में करता है। चॉमस्की भाषिक निष्पादन को व्यक्तिगत एवं मानसिक गतिविधि मानते हैं जिसके अंतर्गत मानव मस्तिष्क में स्थापित भाषा कोड और इस कोड में मौजूद विभिन्न तत्त्वों के आधार पर भाषा के विशिष्ट संयोजनों का निष्पादन सम्मिलित है। चॉमस्की का यह द्विभाजीकरण (dichotomy) भाषा के अधिकतर सामाजिक पहलुओं को अनदेखा कर देता है। भाषा निष्पादन के अध्ययन में विशेषकर भाषा का समाज में प्रयोग के पहलू को चॉमस्की के प्रजनक सिद्धांत में प्रारंभ से ही अनदेखा कर दिया गया। भाषा के सामाजिक पहलू को अनदेखा करने का मुख्य कारण नैसर्गिक भाषाओं को अनुवांशिक (genetic) मान लेने से हुआ। भाषिक क्षमता के अध्ययन का केंद्र भाषा का वाक्यविन्यास और उन नियमों के निर्माण हो गए जिनका प्रयोग विभिन्न भाषिक इकाइयों के उत्पादन में होता है। इस प्रकार, चूँकि इस सिद्धांत में यह मान लिया है कि हमारे मस्तिष्क के भाषिक प्रभाग का सारा ध्यान भाषिक क्षमता एवं वाक्य संरचना में ही केंद्रित रहता है परिणामस्वरूप चॉम्सकियन परिदृश्य में भाषा को मुख्तया सामाजिक नहीं माना गया।

इसके अलावा, चॉमस्की भाषा प्रभाग को एक ‘मानसिक अंग’ के रूप में देखते हैं जो अपने नियमों और सिद्धांतों के अनुसार कार्य करता है। प्रजनकवादी भाषाविदों के अनुसार भाषा मस्तिष्क में स्थित एक माड्यूल में स्थित होती है। यह भाषा माड्यूल पूर्णतः स्वायत्त होता है तथा अन्य संज्ञानात्मक योग्यताओं से बिल्कुल भिन्न होती है (Fodor, 1983)। चॉमस्की यह मानते हैं कि भाषा एक स्वतंत्र एवं अलग प्रभाग है जिनको सामान्य बोध (general cognition) अवलंब प्रदान करते हैं न कि सामान्य बोध पर भाषा निर्भर रहती है। चॉमस्की के अनुसार हमारे भाषा प्रभाग में कई उत्कृष्ट उप-अवयव होते हैं जो मुख्यत स्वतंत्र होते हैं पर ये आपस में विशिष्ट ढंग से पारस्परिक क्रिया करके हमारे समग्र भाषिक व्यहार का निष्पादन करते हैं। यद्यपि कई शिशु विभिन्न संज्ञानात्मक कार्यों को समान दक्षता से नहीं कर पाते और सभी शिशुओं का बौद्धिक स्तर भी समान नहीं होता तथापि तकरीबन सभी शिशु संपूर्ण भाषिक क्षमता को प्राप्त करने में सफल होते हैं। यह प्रमाण चॉमस्की के मॉड्युलैरिटी सिद्धांत को मजबूती प्रदान करते हैं।  

चॉमस्की के भाषा परिदृश्य में भाषा सार्वभौम (language universals) के पक्ष में यह दावा किया गया कि विश्व की सभी भाषाओं के बीच सैद्धांतिक समानताएँ पाई जा सकती हैं। भाषा सार्वभौम का होना यह प्रमाणित करता है कि भाषा अनुवांशिक है। चॉमस्की ने अपने सिद्धाँत में इसे अंतर्जातिता प्राक्कल्पना (Innateness Hypothesis) Chomsky 1962:529) कहा है। इस-परिकल्पना के अनुसार प्राकृतिक भाषा के कुछ विशिष्ट और संरचनात्मक पहलुओं का मानव मस्तिष्क में जन्म से ही प्रोग्राम रहता है। दूसरे शब्दों में भाषिक क्षमता: अपनी भाषा को शुद्ध एवं सही ढंग से प्रयोग करने की क्षमता, प्रत्येक स्वस्थ व्यक्ति को जन्म से सहज ही सुलभ रहती है। अंतर्जात भाषा प्रभाग की परिकल्पना के साथ यह मान लिया गया था कि बच्चे के विकास के दौरान बच्चे को उपलब्ध प्राकृतिक भाषा डाटा के बावजूद अंतर्जात व्याकरण के बिना भाषा अधिग्रहण दुष्कर ही नहीं अपितु, असंभव होगा।

चॉमस्की की भाषा संबंधी अवधारणा पूर्णरूपेण कार्तेसियन की मस्तिष्क संबंधी अवधारणा पर आधारित है जिसकी चर्चा चॉमस्की ने अपनी पुस्तक कार्तेसियन भाषाविज्ञान (Cartesian Linguistics (1966, Third edition in 2009) में बहुत ही विस्तार से प्रस्तुत किया है। 17वीं शदी के मशहूर फ्राँसीसी दार्शनिक, गणितज्ञ एवं वैज्ञनिक रेने देकार्ते (Rene Descartes) ने तर्क, विचार एवं भाषा को मस्तिष्क में स्थित होने के विचार को प्रतिपादित किया है। देकार्ते प्रतिपादित करता है कि मस्तिष्क स्वतंत्र रूप से कार्य करता है और इस प्रकार मानवीय शरीर बुद्धि एवं तर्क को प्रभावित या नियंत्रित नहीं करता है। देकार्ते गणित को मानवीय तर्क एवं युक्ति (reason) का सर्वोत्कृष्ट नमूना माना और इस प्रकार देकार्ते के लिए युक्ति (reason) ही भाषा थी और इस प्रकार भाषा गणितीय और अंतत विशुद्ध रूप से रुपात्मक हो कर रह गई। चॉमस्की के भाषाविज्ञान के बुनियादी सिद्धांत प्रत्यक्ष रूप से देकार्ते से प्रभावित हैं इसलिए चॉमस्की के लिए भाषा अंतर्जात (innate), सार्वभौमिक (universal) और विशुद्ध रूप से रूपात्मक (purely formal) है।

चॉमस्की के भाषावैज्ञानिक सिद्धांत में प्रमुख तकनीकी विचार यह है कि भाषा रूपात्मक है और इसका विकास गणितीय तर्क के सिद्धांतों पर हुआ है। रूपवादी दर्शन के नजरिए से तार्किक रूप के अध्ययन में अर्थ विज्ञान की कोई भूमिका नहीं है अपितु भाषा में जो कुछ भी है, वह वाक्य संरचना (syntax) ही है। सिंटेक्स का प्रारंभ मस्तिष्क में होता है और यह मान लिया गया कि मस्तिष्क में एक स्वायत्त वाक्य-विन्यास मॉड्यूल मौजूद है। इस परिकल्पना के अनुसार भाषा स्वायत्त है और इस प्रकार भाषा का वाक्य विन्यास भी स्वायत्त है जिस पर अर्थ या अन्य किसी बाहरी उद्दीपक या वास्तु स्थिति का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। दूसरे शब्दों में वाक्य-विन्यास मॉड्यूल कहीं से कोई निवेश (input) स्वीकार नहीं करता, जिसका कोई भी संबंध मस्तिष्क के किसी भी भाग जिसका संबंध बोध ग्रहण, शारीरिक प्रचालन, ध्यान, स्मृति, साँस्कृतिक ज्ञान इत्यादि से हो। अंतत अर्थ या वैयक्तिक शब्दावली को भाषा के मूल में स्थान नहीं दिया गया। चूँकि अर्थ के मूल में परिवर्तन, संदर्भ और उस भाषा के साँस्कृतिक पहलू भी विद्यमान रहते हैं। इसलिए चॉमस्की के भाषावैज्ञानिक सिद्धांत में अर्थ सिर्फ भाषिक निष्पादन का हिस्सा है न की भाषिक क्षमता का।

चॉमस्की के प्रजनक सिद्धांत में प्रतीकात्मक या आलंकारिक भाषा, जिसमें मुहावरे, रूपक और अर्थ विस्तार भी शामिल हैं को आमतौर पर नजर-अंदाज कर दिया जाता है और यदि उनको नजर-अंदाज न भी किया गया, तो उसे भाषा का विशिष्ट प्रयोग मान लिया जाता है। प्रजनक भाषाविज्ञान के अनुयायी भाषाविदों ने आलंकारिक भाषा और शाब्दिक भाषा के बीच है विभेद किया है और आलंकारिक भाषा को भाषा का समस्यात्मक, विशिष्ट एवं गढ़ा हुआ या काल्पनिक भाग मानते हैं। सिर्फ भाषा के वाक्य-विन्यास को महत्त्व देने वाली इस विचारधारा में आलंकारिक भाषा का कोई महत्त्व नहीं था और इसलिए इस इसके समर्थकों ने कोई गंभीर चिंतन नहीं प्रस्तुत किया। उन्होंने भाषा के इस भाग को अप्राकृतिक एवं अप्रत्याशित घटना माना है।

संक्षेप में, चॉमस्कियन प्रतिमान में भाषाविदों का सारा ध्यान भाषिक क्षमता का अध्ययन एवं विश्लेषण पर केंद्रित था जिसका सामाजिक संदर्भों से कोई सरोकार नहीं था। भाषा के आनुवंशिक पहलू पर ध्यान केंद्रित करने का कारण भाषा विज्ञान अपने संज्ञानात्मक संदर्भ से अलग हो गया। भाषा का संबध सिर्फ मस्तिष्क से मान लेने से यह मान लिया गया कि शरीर या ज्ञानेंद्रियों से हुए बोध का मनुष्य के विवेक और भाषा को आकार देने में प्रासंगिक नहीं हैं। भाषा के वाक्य-विन्यास को भाषा का एक स्वतंत्र मॉड्यूल मानकर महत्त्व देने से भाषा का आर्थीय पक्ष दबा रह गया। भाषा के विश्लेषण में रूपात्मक पक्ष को प्रमुख मान लेने से भाषा के वास्तविक संदर्भों में प्रयोग को महत्त्वहीन मान लिया गया। और अंत में भाषा सार्वभौम को उभारने के लिए भाषा के साँस्कृतिक संबधों का गला ही घोंट दिया गया।

संज्ञानात्मक भाषाविज्ञान

रूपात्मक भाषविज्ञान की गिरती लोकप्रियता एवं संज्ञानात्मक भाषाविज्ञान के व्यापक फैलाव के-कारणों से वर्ष 1989 में जर्मनी के ड्यूसबर्ग में संज्ञानात्मक भाषाविज्ञान के समर्थकों ने एक संगठन: अंतर्राष्ट्रीय संज्ञानात्मक भाषाविज्ञान एसोसिएशन (International Cognitive Linguistics Association) का गठन किया और इसके एक वर्ष पश्चात् ही संज्ञानात्मक भाषाविज्ञान पत्रिका (Journal of Cognitive Linguistics) की शुरूआत हुई। संज्ञानात्मक भाषाविज्ञान के शुरूआती पथप्रदर्शकों में से एक रोनाल्ड लैंगेकर (Ronald Langacker 1991b, p. xv) ने इस घटना को संज्ञानात्मक भाषाविज्ञान, जो कि एक स्थापित, आत्म सचेत बौद्धिक आँदोलन के रूप में है और का श्रीगणेश माना है।

संज्ञानात्मक भाषाविज्ञान भाषा के अध्ययन का एक नया दृष्टिकोण है जो भाषाई व्यवहार को अन्य सामान्य संज्ञानात्मक क्षमताओं एवं विचारों का ही एक अभिन्न हिस्सा मानता है। भाषाई व्यवहार को अन्य सामान्य संज्ञानात्मक क्षमताओं जैसे कि तर्क, स्मृति, ध्यान, या सीखने की मानसिक प्रक्रियाओं का प्रयोग करते हैं, से अलग नहीं किया जा सकता। संज्ञानात्मक भाषाविज्ञान का उभार सत्तर के दशक के उत्तरार्द्ध एवं अस्सी के दशक के शुरुआत में विशेषकर जॉर्ज लैकाफ़ (George Lakoff) (प्रजनक अर्थविज्ञान के संस्थापकों में से एक) एवं रोनाल्ड लैंगेकर (Ronald Langacker) (प्रजनक भाषाविज्ञान के पूर्व-अनुयायी) के कार्यों से हुआ, जो एक परिणाम के रूप में, संज्ञानात्मक भाषाविज्ञान को भाषाविज्ञान की एक नई रूपावली जो कि उस समय कि प्रबल एवं प्रतिष्ठित प्रजनक भाषाविज्ञान रूपावली, जिसने  भाषा को एक स्वायत्त संगठन माना है, के खिलाफ एक प्रतिक्रिया के रूप में देखा जा सकता है।

संज्ञानात्मक भाषाविज्ञान में भाषा को मनुष्य की सामान्य संज्ञानात्मक क्षमताओं के एक उत्पाद के रूप में समझा जाता है। नतीजतन, एक संज्ञानात्मक भाषाविद् को लैकाफ़ (1990: 40) द्वारा प्रस्तावित ‘संज्ञानात्मक प्रतिबद्धता’ (cognitive commitment) को स्वीकार करने के लिए तैयार होना चाहिए, जिसका तात्पर्य यह है कि भाषा और अन्य संज्ञानात्मक संकायों के बीच की कड़ी को गले लगाने के लिए भाषाविदों को तैयार होना चाहिए क्योंकि भाषिक सिद्धांत और पद्धतियों कि संगतता भाषा-बोध, मस्तिष्क और अनुभूतियों से संबंधित होती हैं।

संज्ञानात्मक भाषाविज्ञान को अगर बारीकी से समझे तो इसे एक आन्दोलन या उपक्रम के रूप में वर्णित  किया जा सकता है क्योंकि यह किसी एक सिद्धांत का नहीं अपितु एक दृष्टिकोण का निर्माण करता है जिसमें सामान्य सारगर्भित प्रतिबद्धताओं एवं पथप्रदर्शक सिद्धांतों के सेट को अपनाया गया है जिससे परिणामस्वरूप पूरक एवं अतिव्यापी (कभी कभी एक-दूसरे से प्रतिस्पर्धा करते हुए) सिद्धांतों के विविध श्रेणियों के विकास के लिए मार्ग प्रशस्त हुआ है। 

जॉर्ज लैकाफ़ (1990) के अनुसार संज्ञानात्मक भाषाविज्ञान कि दो मूलभूत चारित्रिक प्रतिबद्धताएँ हैं। ये प्रतिबद्धताएँ संज्ञानात्मक भाषाविज्ञान के प्रचालन (practice) के लिए अपनाई जाने वाली नीति एवं दृष्टिकोण की आधारशिला के रूप में कार्य करती हैं तथा ये उन मान्यताओं एवं प्रणालियों के तह में होती हैं जिनका प्रयोग संज्ञानात्मक भाषाविज्ञान कि दो प्रमुख शाखाओं – संज्ञानात्मक अर्थ विज्ञान, और व्याकरण के संज्ञानात्मक दृष्टिकोण, में होता है।

सामान्यीकरण प्रतिबद्धता

यह उन सामान्य सिद्धांतों के निरूपण का प्रतीक है जो मानव भाषा के सभी पहलुओं पर लागू होता है। यह लक्ष्य विज्ञान की मानक प्रतिबद्धता कि मात्र एक विशेष उप-अवस्था है जो यथासंभव विस्तृत सामान्यीकरण को संभव बनाता है। भाषाओं के अध्ययन के संज्ञानात्मक भाषावैज्ञानिक दृष्टिकोण के विपरीत, दूसरे उपलब्ध दृष्टिकोण भाषा को अध्ययन के लिए भाषा प्रभाग (language faculty) को सामान्यतयाः विभिन्न स्तरों यथा – स्वनिमविज्ञान (ध्वनि), अर्थविज्ञान (शब्दों एवं वाक्यों का अर्थ), संकेतप्रयोगविज्ञान (pragmatics) (कथनों के संदर्भ में अर्थ), रूपविज्ञान (शब्द संरचना), वाक्यविज्ञान (वाक्य संरचना), आदि-आदि, में विभाजित करके अध्यन करते हैं। परिणामस्वरूप, भाषा के इन सभी पक्षों को मिलाकर या उन पक्षों के मध्य अंतर्संबंधों पर सामान्यीकरण करने हेतु पर्याप्त आधार मिलने की संभावना काफी क्षीण हो जाती है। विशेषकर, रूपमूलक भाषाविज्ञान (formal linguistics) के संदर्भ में यह तथ्य एकदम सत्य है। रूपमूलक भाषाविज्ञान भाषा को निरूपित करने के लिए उन स्पष्ट याँत्रिक (बुद्धिरहित) साधनों (explicit mechanical devices) या प्रक्रियाओं का प्रयोग कर, जो पुरातन सिद्धांतों पर सटीक बैठते हैं, भाषा के सभी संभव व्याकरणिक वाक्यों को उत्पादित करने का प्रयत्न करता है। ये दृष्टिकोण विशुद्ध रूप से भाषा में नियमनिष्ठ रूपों को, कंप्यूटर विज्ञान, गणित एवं तर्कशास्त्र की तर्ज पर स्थापित करने का प्रयास करते हैं। रूपमूलक भाषाविज्ञान, मुख्य रूप से चॉमस्की के शोधपरक कार्यों (Noam Chomsky e.g., 1965, 1981, 1995), प्रजनक व्याकरण के विस्तार एवं साथ ही साथ रूपमूलक अर्थविज्ञान की परंपरा से जो कि भाषा के दार्शनिक रिचर्ड मोंटेग (Richard Montague 1970, 1973) से प्रभावित थी, से मूर्त रूप लेना प्रारंभ किया।

रूपमूलक भाषाविज्ञान के अंतर्गत प्रायः ही यह तर्क दिया जाता है कि भाषा के विभिन्न पक्ष जैसे ध्वनि, अर्थ, वाक्यविन्यास इत्यादि महत्त्वपूर्ण रूप से संरचना के भिन्न -भिन्न प्रकार के सिद्धांतों से संबंधित हैं जो उनके विभिन्न प्रकार के मूल रूपों (primitives) पर लागू होते हैं। उदाहरण के तौर पर वाक्यविन्यास ‘मॉड्यूल’ माइंड में एक क्षेत्र है जो कि वाक्यों में शब्दों के संयोजन से संबंधित है और जबकि स्वनप्रक्रिया ‘मॉड्यूल’ के लिए माइंड में दूसरा क्षेत्र है, जो कि भाषा विशेष द्वारा या किसी भी मानव भाषा द्वारा स्वीकार्य नियमों के आधार पर शब्दों में ध्वनियों के संयोजन से संबंधित है। माइंड के इस मॉड्यूल पर आधारित विचारधारा, आधुनिक भाषा विज्ञान जो कि भाषा के अध्ययन को विभिन्न उप-विषयों में ना सिर्फ व्यावहारिकता के आधार पर विभाजित करता है अपितु इसलिए भी करता है क्योंकि भाषा के विभिन्न घटक पूर्णरूपेण पृथक होते हैं और संगठनात्मक रूप से उनमें तारतम्यता भी नहीं होती, की अवधारणा को पुष्ट करता है। संज्ञानात्मक भाषाविद भी यह स्वीकार करते हैं कि कभी-कभी भाषा के अध्ययन को भावात्मक रूप से विभिन्न घटकों यथा वाक्यविज्ञान, स्वनविज्ञान, रूपविज्ञान, अर्थविज्ञान में विभाजित कर अध्ययन करना उपयोगी होता है। हालाँकि, सामान्यीकरण प्रतिबद्धता को देखते हुए, संज्ञानात्मक भाषाविद भाषा का अध्ययन यह मान कर नहीं करते कि भाषा के ‘मॉड्यूल’ या ‘उप-संरचनाएं’ काफी अलग तरीके से संबद्ध होते हैं या वास्तव में पूर्णरूपेण अलग मॉड्यूलों का अस्तित्व है। इस प्रकार, सामान्यीकरण प्रतिबद्धता उस प्रतिबद्धता का प्रतिनिधित्व करता है जो बिना किसी लाग लपेट के खुले तौर पर यह जाँच करता है कि किस प्रकार भाषाई ज्ञान के विभिन्न पहलुओं का अभ्युदय मानवीय संज्ञानात्मक योग्यताओं के एक सामान्य सेट पर आधारित होता है बनिस्पत यह मान लेने के कि भाषाई ज्ञान का प्रस्फुटन मस्तिष्क के मॉड्यूलों से होता है। 

संज्ञानात्मक प्रतिबद्धता

संज्ञानात्मक प्रतिबद्धता, अन्य विषयों से मस्तिष्क और बुद्धि (mind and brain) के संबंध में प्राप्त ज्ञान के नींव पर भाषा के सामान्य सिद्धांतों को निरूपित करने वाली प्रतिबद्धता का प्रतिनिधित्व करता है। यह वही प्रतिबद्धता है जो कि संज्ञानात्मक भाषाविज्ञान को संज्ञानात्मक बनाता है और और यह एक ऐसा दृष्टिकोण है जिसकी प्रकृति मौलिक रूप से अंतःविषयी (interdisciplinary) है। जिस प्रकार सामान्यीकरण प्रतिबद्धता भाषा संगठन के सभी स्तरों पर समान पकड़ रखने वाले सिद्धांतों के खोज करने की तरफ अग्रसर करती है ठीक उसी प्रकार, संज्ञानात्मक प्रतिबद्धता को भाषाई संरचना के सिद्धांतों में, मानव बोध (cognition) के संबंध में जो कुछ भी ज्ञान संज्ञानात्मक और मस्तिष्क संबंधित विज्ञानों यथा- संज्ञानात्मक मनोविज्ञान, कृत्रिम मेधा, संज्ञानात्मक तंत्रिका विज्ञान, और दर्शन से ज्ञात है और को प्रतिबिंबित करना चाहिए। दूसरे शब्दों में, संज्ञानात्मक प्रतिबद्धता इस बात पर जोर देता है कि जो भी भाषा एवं भाषिक संरचना के मॉडलों का प्रतिपादन किया गया है उसको जो भी मानव मस्तिष्क के बारे में ज्ञात है और पर आधारित होना चाहिए ना कि विशुद्ध सौंदर्यशास्त्रीय तर्कोंपर।

संज्ञानात्मक भाषाविज्ञान को उपयोग एवं शोध के लिए मुख्य रूप से दो के मुख्य क्षेत्रों में विभाजित किया जा सकता है: संज्ञानात्मक अर्थविज्ञान और संज्ञानात्मक व्याकरण (व्याकरण के प्रति संज्ञानात्मक दृष्टिकोण।) संज्ञानात्मक अर्थविज्ञान के रूप में जाना जाने वाला संज्ञानात्मक भाषाविज्ञान का यह उप-अध्ययन क्षेत्र व्यक्ति के अनुभव, उसकी वैचारिक प्रणाली और भाषा कि अर्थगत संरचना के बीच के संबंधों के निरूपण से संबंधित है। विशिष्ट संदर्भ में, संज्ञानात्मक अर्थविज्ञान के क्षेत्र में काम करने वाले भाषाविद ज्ञान निरूपण (वैचारिक संरचना), और अर्थ निर्माण (अवधारणा) का विवेचन करते हैं। संज्ञानात्मक अर्थविज्ञानी भाषा को एक लेंस की तरह उपयोग करते हैं जिससे संज्ञानात्मक प्रक्रियायों कि जाँच की जाती है। संज्ञानात्मक व्याकरण मस्तिष्क की प्रकृति के बजाय भाषा के प्रतिरूपण से संबंधित है। हालाँकि ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि संज्ञानात्मक व्याकरण संज्ञानात्मक अर्थविज्ञान के निष्कर्षों को ही शोध का शुरूआती चरण मानता है। इस प्रकार हम सकते हैं कि व्याकरण के प्रति संज्ञानात्मक दृष्टिकोण अर्थ को ही केंद्र में रखता है।

संज्ञानात्मक भाषाविज्ञान के सबसे महत्त्वपूर्ण सिद्धांतों में से एक यह है कि भाषा में सब कुछ अर्थ में निहित होता है। इस प्रकार, अर्थ को अवधारणा के सृजित होने का कारण माना जाता है। जैसे भाषा विशेष के बोलने वाले संसार की व्याख्या मानव मूल्यों तथा अपने व्यक्तिगत अनुभवों (anthropocentrically) के आधार पर व्यक्तिनिष्ठ ढंग से, उस विशिष्ट संस्कृति के संदर्भ में करते हैं जो उनके आसपास विद्यमान है या जिनके वे सदस्य हैं; ठीक उसी प्रकार मनुष्य की वैचारिक प्रणाली को उसके व्यक्तिगत शारीरिक अनुभवों जैसे कि संकल्पनात्मक श्रेणियों, शब्दों के अर्थ, वाक्य एवं दूसरी भाषाई संरचनाओं इत्यादि को व्यक्ति जिस परिवेश में रहता है तथा वह जिनके साथ पारस्परिक क्रिया के लिए प्रत्यक्षण, गति एवं विभिन्न वस्तुओं के प्रबंधन एवं संचालन से प्राप्त अनुभवों के आधार पर व्यवहार करता है; के यथार्थपूर्ण एवं प्रत्यक्ष अनुभवों से प्रेरित एवं उन पर आधारित होना माना जाता है।

संज्ञानात्मक भाषाविज्ञान में भाषा को मूलतः प्रतीकात्मक माना जाता है। प्रतीकात्मकता को भाषा में संरचना के सभी स्तरों, यहाँ तक कि व्याकरणिक स्तर पर भी, विद्यमान माना जाता है। दूसरे शब्दों में, ऐसा कहा जा सकता है कि रूपविज्ञान, वाक्यविज्ञान एवं शब्दों कि अर्थगत संरचना की बुनियादी इकाइयाँ, न तो भाषावैज्ञानिक विश्लेषण के विभिन्न स्तरों (स्वनिमिक, शब्दरूपात्मक, वाक्यविन्यासात्मक, इत्यादि), जो कि मानव के भाषिक क्षमता (competence) के एक स्वायत्त हिस्से का गठन करती हैं, के साथ और न ही भाषा को संपूर्ण रूप में एक अलग और अनूठे संज्ञानात्मक संकाय के प्रतिनिधित्व के रूप के साथ, प्रतीकात्मक संरचनाओं के सांतत्यक का निर्माण करती हैं।

संज्ञानात्मक भाषाविज्ञान में शाब्दिक (literal) और आलंकारिक (figurative) भाषा के बीच कोई सुस्पष्ट एवं सुनिश्चित सीमा रेखा नहीं खींची गई है। रूपक (metaphor) एवं लक्षणा (metonymy) तो मनुष्य के आलंकारिक विचारों (figurative thoughts) कि अभिव्यक्ति के साधन हैं, फलस्वरूप, सामान्य रूप से इन्हें मानव के प्रतीकात्मक विचारों के एक अभिलक्षण के रूप में देखा जा सकता है। इसके अलावा, संज्ञानात्मक भाषाविज्ञान, न तो चॉमस्की के प्रजनक भाषाविज्ञान कि तरह आंतरिक संरचना (deep structure) की अवधारणा को रखता है और न ही वाक्यविन्यासात्मक रचनांतरण को ही स्वीकार करता है।

संज्ञानात्मक भाषाविज्ञान भाषा व्यवहार में भाषिक अनियमितताओं और व्यक्तिगत विशिष्टताओं पर हमेशा ध्यान रखता है तथा यह भाषिक अर्थों एवं भाषेतर संदर्भों (extra-linguistics contexts) भाषा से अविभाज्य मानता है। संज्ञानात्मक भाषाविज्ञान ने वर्गीकरण (categorization) करने कि अवधारणा को भी पुनर्परिभाषित करने का कार्य किया है। यह वर्गीकरण में अचैतन्य एवं भाषा में निहित वर्गीकरण की स्वचालित मानसिक प्रक्रिया के प्रयोग के परिणामस्वरूप विभिन्न तत्त्वों के बीच के असीमित अंतरों को कम करके संज्ञानात्मक की स्वीकार्यता के स्तर पर लाने कि अवधारणा देता है। इस अर्थ में, संज्ञानात्मक भाषाविज्ञान ने वर्गीकरण कि प्रोटोटाइप सिद्धांत (prototype theory) को, शास्त्रीय सिद्धांत या अरस्तु के वर्गीकरण के सिद्धांत के विरुद्ध, एक विकल्प के रूप में आगे बढ़ाया है। इस प्रकार के संज्ञानात्मक मॉडल में जहाँ एक ओर तो समूह के सदस्यों को प्रोटोटाइपों में वर्गीकृत किया जा सकता है वहीं दूसरी ओर समूह के उन सदस्यों को भी अभिप्रेरित तरीके से (रूपक, लक्षणा, पारिवारिक सादृश्यता का सिद्धांत, क्रमबद्धता, अर्थ की व्यवस्था के माध्यम द्वारा) वर्गीकृत किया जा सकता है जो न्यूनाधिक रूप से प्रोटोटाइप से विपथी होते हैं।

निष्कर्ष के रूप में हम कर सकते है कि संज्ञानात्मक भाषविज्ञान उद्यम की मुख्य विशेषता व्याकरणिक विवरणों के मूल में भी अर्थ को महत्त्व देना और भाषा के उपयोग आधारित दृष्टिकोण का समर्थन करना है। भाषा के उपयोग आधारित दृष्टिकोण से संबंधित सभी प्रासंगिक विशेषताओं यथा: अर्थ, शब्दावली, भाषिक निष्पादन, एवं भाषा का वास्तविक संदर्भों मे प्रयोग जिनका चॉमस्की के भाषावैज्ञानिक विचारों में तरजीह नहीं दी गई, ये सभी विशेषताएँ संज्ञानात्मक भाषाविज्ञान के सैद्धांतिक और वर्णनात्मक तंत्र में प्रमुखता से मौजूद हैं। भाषा के उपयोग आधारित मॉडल पर ध्यान केंद्रित करने से भाषा के मनोवैज्ञानिक, सामाजिक, साँस्कृतिक और संज्ञानात्मक पहलू भाषा में स्वयमेव ही में शामिल हो जाते है और इनकी भाषा अधिगम एवं भाषा अर्जन में महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। प्राकृतिक-पारिपोषित विवाद (nature- nurture debate) में संज्ञानात्मक भाषाविज्ञान भाषा अधिगम एवं भाषा अर्जन के क्षेत्र में हो रहे प्रयोगाश्रित शोधों से भाषा के-पारिपोषित होने सी अपनी परिकल्पना को उत्तरोत्तर मजबूती प्रदान की है।

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Grammar, Language, Neurolinguistics