उर्दू भाषा एवं साहित्य का उद्भव तथा विकास

उत्तर भारत में हिंद-आर्यायी भाषाओं का उद्भव 1500 ई.पू. में आर्यों के भारत आगमन से हुआ। जिस भाषा का सबसे पहले उद्भव हुआ, वह वैदिक संस्कृत थी, जिसका प्राचीनतम नमूना ऋग्वेद है। यही वैदिक संस्कृत सज-सँवर कर शास्त्रीय संस्कृत कहलाई, जिसे पाणिनी ने अष्ठाध्यायी में व्याकरित किया। लगभग 600 ई.पू. तक आते-आते यह भाषा एक विशेष वर्ग तक सीमित हो गई और इसका स्थान एक ऐसी लोक-भाषा ने ले लिया, जो उच्चारण एवं व्याकरण की दृष्टि से सरल और प्राकृतिक थी, अर्थात्  इसे ‘प्राकृत’ के नाम से जाना गया।

  प्राकृतों के उद्भव का युग 600 ई.पू. है। इन्हीं की कोख से 600 ई. में अपभ्रंशों ने जन्म लिया, जो लगभग चार सौ वर्ष तक फलती-फूलती रहीं। प्राकृतों के नमूने ‘पाली’ और सम्राट अशोक के लाटों की ‘भाषाएँ’ हैं। इन प्राकृतों ने जब साहित्यिक रूप धारण किया, तो लोक-भाषा के धारे की दिशा एवं दशा एक बार फिर बदली और जनसाधारण ने पुन: सरल और साधारण भाषा अपनाई, जो वास्तव में प्राकृतों का विकृत रूप था, जिसे ‘भ्रष्ट’ या ‘अपभ्रंश’ कहा गया। उत्तर भारत में इसका उद्भव और विकास 600 ई. से 1000 ई. तक होता रहा। 1000 ई. के उपरांत इसके विकास की गति धीमी हुई और इन्हीं अपभ्रंशों से बहुत-सी आधुनिक हिंद-आर्यायी भाषाओं के कोंपल फूटे। शूरसेनी अपभ्रंश से फूटे हुए कोंपल ने आगे चलकर दो डालों वाले वृक्ष का रूप धारण किया। भाषाविदों ने एक शाख को हिंदवी, हिंदी, गुजरी, दकनी, रेख्ता, उर्दू-ए-मुअल्ला, तुर्कमात, जबान-ए-देहली, देहलवी और उर्दू का नाम दिया। दूसरी डाली आज की हिंदी है, जो कालांतर से भाखा और भाषा के नाम से जानी जाती थी। उर्दू का वास्तविक आधार या स्रोत अपभ्रंश है, जो शूरसेनी प्राकृत से पैदा हूई। आरंभिक अवस्था में शूरसेनी का क्षेत्र वही था, जो प्राचीन काल में मध्यदेश अर्थात् उत्तर मध्य भारत कहलाता था, जहाँ संस्कृत के यौवन पर निखार आया था। संभवत: यह कहना अनुचित नहीं होगा कि उर्दू मध्यदेश की उसी प्राचीन भाषा की अंतिम कड़ी है। उर्दू के सुंदरीकरण का कार्य 1193 अर्थात् मुसलमानों के दिल्ली आगमन से प्रारंभ हुआ। सुनीति कुमार चटर्जी (1969) ने बहुत से ऐतिहासिक, सामाजिक और भाषावैज्ञानिक तथ्यों का आँकलन करने के उपरांत यह निष्कर्ष निकाला है कि ‘अगर मुसलमान उत्तर भारत में नहीं आते, तब भी आधुनिक हिंद-आर्यायी भाषाओं का जन्म होता, परंतु उनके साहित्यिक उद्भव एवं विकास में अवश्य देर हो जाती।’ शूरसेनी अपभ्रंश के चोला बदलने के उपरांत, जिस भाषा ने दो सौ वर्षों तक उत्तर भारत में अपनी विकास प्रक्रिया जारी रखा, वह आदि-उर्दू (Pre-Urdu) कहलाती है। आदि-उर्दू में लगभग उन्हीं ध्वनियों का प्रयोग मिलता है, जो अपभ्रंशों में पाई जाती हैं, तदुपरांत कुछ नई ध्वनियों का प्रयोग बाद के युग में हुआ, जिनका विवरण इस प्रकार है।

  1. अपभ्रंश में आठ स्वर क्रमश: अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ए और ओ पाए जाते हैं। आदि-उर्दू में दो नये स्वरों- ऐ और औ का अस्तित्व सामने आया। ये संस्कृत से लिये गए थे, जिनको मध्य हिंद-आर्यायी युग में ‘ए’ और ‘ओ’ से ही उच्चारित किया जाता था। 
  2. अपभ्रंश में ‘ड़’ और ‘ढ़’ व्यंजन नहीं थे, इन्हें उर्दू ने प्रयोग किया। 
  3. आदि उर्दू में ‘म’, ‘न’ और ‘ल’ की महाप्राण ध्वनियों ‘म्ह’, ‘ल्ह’ और ‘न्ह’ (कुम्हार, दूल्हा, नन्हा) का प्रयाग प्रारंभ हुआ, परंतु उर्दू में इन ध्वनियों से बनने वाले शब्द बहुत कम हैं। आदि-उर्दू व्याकरण के दृष्टिकोण से अपभ्रंश से अधिक निकट थी, परंतु शनै-शनै उर्दू ने अपना अलग-अलग रूप तैयार कर लिया।
  4. आरंभ में उर्दू के शब्द-भंडार प्राकृत और अपभ्रंश तक ही सीमित थे, बल्कि यदा-कदा तत्सम शब्दों का प्रयोग भी होता था। परंतु किसी भाषा के स्वरूप की पहचान उसके मानदण्डों से होती है, न कि शब्द-भंडार और लिपि से। भाषाविज्ञान में इसी पूँजी की सहायता से भाषा में आने वाले क्रमबद्ध बदलाव का पता लगाया जाता है। आदि-उर्दू के अध्ययन में जिन बिंदुओं को ध्यान में रखना होगा, वे निम्नलिखित हैं- 
  • बौध्द, सिध्दों, नाथों, जैनियों से संबंधित धार्मिक रचनाएँ – ये रचनाएँ पंजाब, गुजरात, ब्रज, अवध, भोजपुर और मैथिल इलाकों से संबंध रखती हैं। इसलिए स्वाभाविक है कि इनपर आँचलिक बोलियों का प्रभाव पड़े।
  • हेमचंद का प्रस्तुत किया हुआ अपभ्रंश के अंतिम चरण के नमूने – हेमचंद (1088 – 1172 ई.) एक जैन विद्वान थे। उन्होंने अपने व्याकरण ‘हेमचंद शब्दानुशासन’ में पूर्वी अपभ्रंश के अंतिम चरण के कुछ साहित्यिक नमूने दिए हैं, जिनसे प्रतीत होता है कि उस युग की भाषा किस सीमा तक उर्दू के साँचे में ढल रही थी। उदाहरणार्थ एक नमूना प्रस्तुत है-

“भल्ला हुआ जो मारया, बहणी म्हारा कन्तु

    लज्जो जाम्म तू बस्याहु जई भग्या घरू अंतु”

(भला हुआ बहन, जो मेरा स्वामी मारा गया, वह अगर भागकर घर आता, तो सहेलियों में मुझे लज्जित होना पड़ता)

  • डिंगल और पिंगल काव्य के नमूने – इस युग में भाषा के दो और भी रूप मिलते हैं। डिंगल और पिंगल। डिंगल मारवाड़ी का साहित्यिक रूप है। इसका प्रयोग दरबारों, विशेषकर मारवाड़ या मेवाड़ के दरबारों में किया जाता था। पिंगल, शूरसेनी अपभ्रंश और पश्चिमी हिंदी, राजस्थानी एवं पंजाबी के समन्वय का नमूना है। वीर गाथाओं में इसका प्रयोग बहुत होता था।  डिंगल और पिंगल में जो महाकाव्य लिखे गए उन पर वीर रस का प्रभाव सबसे अधिक है, उन्ही महाकाव्यों को ‘रासो’ कहा जाता है। निरपथनाला (बीसलदेव रासो), चंद्रबरदाई (पृथ्वीराज रासो), रूरज मल, इसर दास आदि इसी युग के कवि हैं। रासवों में पृथ्वीराज रासो का भाषाविदों ने बड़ा महत्त्व दिया है, परंतु इसकी भाषा की प्राचीनता पर प्रश्न उठाए गये हैं और यह कहा गया है कि भाषावैज्ञानिक दृष्टिकोण से उसका अंतिम भाग बारहवीं सती का न होकर सोलहवीं सती (सदी) का है।

5. भारत में मसऊद सा’द सलमान (पृ. 1125 से 1130 ई. के मध्य) की शायरी अरबी-फारसी लिपि में लिखित उर्दू का पहला नमूना है, परंतु उनका उर्दू ‘दीवान’ अब तक उपलब्ध नहीं हो सका है।  इसलिए हमें ‘तजकरों’ में वर्णित शायरी पर ही संतोष करना पड़ता है। अमीर ख़ुसरो (1253-1325 ई.) ने ‘गुर्रत-उल-कमाल’ की प्रस्तावना में मसऊद सा’द की हिंदवी कविता का उल्लेख किया है।

  उर्दू का वास्तविक उद्भव 1193 ई. अर्थात् मुसलमानों का पंजाब से दिल्ली आने और दिल्ली पर प्रभुत्व स्थापित करने से जोड़ कर देखा जाता है। दिल्ली आने वाले मुसलमानों में अरबी, फारसी, तुर्की और पश्तो बोलने वाले लोग थे, परंतु सबसे अधिक संख्या ‘मुअर्रब-व-मुफ़र्रस’ पंजाबी बोलने वालों की थी। क्याेंकि पंजाब में मुसलमान लगभग दो सौ वर्ष पूर्व आ चुके थे। बारहवीं सदी ई. में दिल्ली और उसके जवार में मुख्य रूप से चार भाषाएँ (बोलियाँ) प्रचलित थीं, जिन्हें हरियाणवी, ब्रज, मेवाती और खड़ी बोली के नाम से जाना जाता है। इन भाषाओं के मेल-जोल से एक नई भाषा का उदय हुआ, जिसे हिंदवी, हिंदूई, हिंदी, रेख्ता, उर्दू-ए-मुअल्ला, जबान-ए-देहली, ज़बान-ए-उर्दू और अंतत: उर्दू के नाम से प्रसिद्धि मिली। 1193 ई. के लगभग सौ वर्ष उपरांत 1294 ई. में यह भाषा दक्षिण भारत पहुँची। जहाँ वह साहित्यिक दृष्टिकोण से उत्तर भारत की तुलना में अधिक विस्तृत हुई। इसे दक्षिण भारत में गुजरी, दक्खिनी, दकनी और तुर्कमात के नाम से संबद्ध किया गया।

  उत्तर भारत में आदि उर्दू या आरंभिक उर्दू के नमूने बहुत कम मिलते हैं। जहाँ तक अमीर खुसरो की शायरी का प्रश्न है, तो वह बड़ी हद तक शंका के घेरे में है। अर्थात् तेरहवीं से सोलहवीं ई. के मध्य उत्तर भारत में उर्दू का कोई क़ाबिल-ए-ज़िक्र नमूना उपलब्ध नहीं है, जब कि दक्षिण भारत कर गई। 1200 ई. से 1700 ई. तक फ़ारसी के प्रभुत्व के कारण उत्तर भारत में उर्दू बड़ी हद तक बोल-चाल की भाषा बनी रही। इन पाँच सौ वर्षों में उर्दू की जो साहित्यिक एवं भाषाशास्त्रीय पूँजी उपलब्ध है, उसका विवरण कुछ यूँ है-

1- सूफ़ियों एवं भक्तों की हस्तलिपियाँ – सूफ़ियों और भक्तों की लिपियों को एकत्रित करके मोलवी अब्दुल हक़ न ”उर्दू की इब्तिदाई नशो नुमा में सूफ़िया-ए-किराम का काम” के नाम से प्रकाशित कर दिया है। जिस में शैख़ शरफ़ुद्दीन बू अली कलन्दर (पृ.1323 ई.), शैख शरफ़ुद्दीन यहिया मनेरी (पृ.1380 ई.) आदि के भाषा प्रयोग के नमूने कहावतों, छंदों, वाक्यों और शेरों के रूप में वर्णित हैं। उदाहरणार्थ –

  ” पौनों का चान्द भी बाला है”, आंख आई है ” (गन्ज शंकर)

  सजन सिकोर जाएंगे और नैन मरेंगे रोए

  बिधना ऐसी रैन को, भोर कदी न  होए (बू अली कलन्दर)

  काला हंसा न  मिला बसे समुन्दर तैर

  पंख पसारे थका हरे, र्निमल करे सैर

  दर्द रहे न  पीड़ (चाहिया मनेरी)

2. इस युग में इतिहास पर फारसी में लिखी पुस्तकों में उर्दू-हिंदी के शब्दों, मुहावरों और लोकोक्तियों का प्रयोग किया गया। उदाहरण स्वरूप मिनहाज सिराज की ‘तबकात-ए-नासिरी (125 ई) अमीर खुसरो ‘किरानुस्सादैन (1289 ईं), जियाउद्दीन बर्नी ‘तारीख-ए-फीरोज शाही (1356 ई) और सैय्यद मुबारक किरमानी (पृ. 1368) की ‘सैरूल औलिया’ प्रस्तुत किये जा सकते हैं।

3. अमीर खुसरो की गजलाें, पहेलियों और कहमुकरनियों में उर्दू/हिंदी का बड़ा सशक्त प्रयोग मिलता है, परंतु आधुनिक शोध से यह प्रमाणित हो चुका है कि खुसरो से संबंधित बहुत-सी रचनाएँ उनकी अपनी नहीं है। परंतु इस बात में कोई शंका नहीं कि वह अरबी, फारसी, तुर्की और संस्कृत के साथ-साथ उर्दू/हिंदी में भी दक्षता रखते थे। यह खुसरो का ही योगदान है कि उन्होंने रेख्तागोई की परंपरा स्थापित की, जिसमें खड़ी बोली के आरंभिक रूप देखने को मिलते हैं। विश्व साहित्य में खुसरो और शेक्सपीयर दो ऐसे रचनाकार हैं, जिनके नाम से लोगों ने अपनी रचनाएँ जोड़ कर स्वयं को सम्मानित किया। बहरहाल खुसरो से संबंधित एक रेख्ता प्रस्तुत करना इसलिए आवश्यक प्रतीत हो रहा है कि इसमें उर्दू/हिंदी के चरणबद्ध विकास की प्रक्रिया निहित है। 

ज़े-हाल-ए-मिस्कीं मकुन तग़ाफ़ुल दुराय नैनाँ बनाए बतियाँ 

कि ताब-ए-हिज्राँ नदारम ऐ जाँ न लेहू काहे लगाए छतियाँ 

शबान-ए-हिज्राँ दराज़ चूँ ज़ुल्फ़ ओ रोज़-ए-वसलत चूँ उम्र-ए-कोताह 

सखी पिया को जो मैं न देखूँ तो कैसे काटूँ अँधेरी रतियाँ 

यकायक अज़ दिल दो चश्म जादू ब-सद-फ़रेबम ब-बुर्द तस्कीं 

किसे पड़ी है जो जा सुनावे पियारे पी को हमारी बतियाँ 

चूँ शम-ए-सोज़ाँ चूँ ज़र्रा हैराँ ज़ मेहर-ए-आँ-मह बगश्तम आख़िर 

न नींद नैनाँ न अंग चैनाँ न आप आवे न भेजे पतियाँ 

ब-हक्क-ए-रोज़-ए-विसाल-ए-दिलबर कि दाद मारा ग़रीब ‘ख़ुसरव’ 

सपीत मन के वराय रखूँ जो जा के पाऊँ पिया की खतियाँ 

खुसरो के उपरांत नाम देव (1270-1350 ई.) कबीर दास (1398-1518 ई.) और गुरू नानक देव (1469-1539 ई) तीन अति महत्त्वपूर्ण नाम हैं। नामदेव मराठी, कबीर दास सधुक्कड़ी और गुरूनानक देव की पंजाबी में खड़ी बोली, अवधी, ब्रज, राजस्थानी और भोजपूरी के अलावा फारसी और अरबी के अनगिनत शब्द प्रयोग हुए हैं, जो हिंदी/उर्दू की आधारशिला साबित हुए । यहाँ नामदेव के कुछ दोहे उदाहरण स्वरूप प्रस्तुत हैं-

  माई न होती, बाप न  होते, कर्म न  होता काया

  हम नहीं होते, तुम नहीं होते, कौन कहाँ ते आता

  चन्द न  होता, सूर न  होता, पानी पवन मिलाया (चन्द = चन्द्र, सूर =सूर्य)

  शास्त्र न  होता, वेद न  होता, कर्म कहाँ ते आता !!

  मैं अन्धले की टेक तेरा नाम खोन्दकारा (अन्धले = अन्धे)

  मैं गरीब, मैं मिस्कीन तेरा नाम है आधार (गरीब = ग़रीब)

उत्तर भारत में अमीर खुसरो के उपरांत लगभग तीन सौ वर्ष तक कोई संपूर्ण साहित्यिक रचना नहीं मिलती। इस लंबी साहित्यिक चुप्पी का कारण क्या रहा यह समझ में नहीं आता।  हालाँकि इसी अवधि में दक्षिण भारत में उर्दू/हिंदी को फलने-फूलने का स्वर्णमय अवसर प्राप्त हुआ। बहरहाल खुसरो के बाद उत्तर भारत में मोहम्मद अफजल (पृ. 1625) की बिकट कहानी (बारहमासा) सामने आती है, जो संभवत: 1625 ई. से पहले रची गई। इसमें फारसी शब्दों का ब्रजभाषा के साथ अनूठा प्रयोग हुआ है। यह शुद्ध साहित्यिक दृष्टिकोण से एक उच्च कोटि की रचना है, जिसमें फारसी और हिंदी साहित्यिक परंपराओं का समन्वय हुआ है। वास्तव में बिकट कहानी हिंदी कविता की परंपरा का उर्दू में पहला सशक्त उदाहरण है। इसमें प्रेम की अभिव्यक्ति स्त्री की ओर से हुआ है। बिकट कहानी या बारहमासा एक विरह गाथा है, जिसमें बिरहन अपने पति के बिरह में दिन-रात तड़पती है और अपने प्रेम भावना को वर्ष के बारह महीनों (सावन से आषाण) में ऋतु के अनुरूप व्यक्त करती है। बिकट कहानी का आरंभ इस प्रकार होता है।

  सुनो सखियों! बिकट मेरी कहानी

  भई हूं इश्क के ग़म सूं दिवानी   (सूं = से)

  ना मुझ को भूक दिन, न  नींद राता (भूक = भूख, राता = रात)

  बिरह के दर्द सूं सीना पराता

  तमामी लोक मुझ बूरी कहे री   (बूरी = बुरी)

  ख़िरद गुम कर्दा मजनूं हो रही  री

बिरहण नायिका अपने दु:ख को इस प्रकार व्यक्त करती है-

  सुनो सखियों कि रूत आसुज आई (रूट = ऋितु)

  पियारे की खबर अब लग न  पाई

  कहो कैसे जिवें पिऊ बाज नारी (बाज = बिना)

  जिन्हें रोवत गई है उम्र सारी

  लिखूं पतियां अरे, ऐ काग ! ले जा

  सलोने, सांवरे, सुन्दर पिया पा

  कलेजा काड़कर तुम को खिलाऊं (काड़ = काढ़, निकाल)

  तिरे दो पंख पर बलहारि जाऊं

बारहमासा में बारहवाँ अषाण का होता है, जो मिलन का महीना होता है। इस माह स्त्री का पिया अर्थात् पत्नि का पति परदेस से अपने घर लौटता है। इस अवसर पर अफ़जल ने एक से अधिक भाषाओं के स्वरूप का मिलाकर एक नई भाषा निर्माण की ओर कदम बढ़ाया है।

  चे: मी बीनम लटकता आवता है

  ब हुस्नश माह रा शर्मावता है

  किया है उन लिबास-ए जा फ़रानी

  भई हूं देख कर उस को दिवानी

  अरी मैं दोड़ के पांव पड़ी जाए

  पिया ने कर पकड़ लेनी, गले लाए

  बेहम्द अल्ला रहा ज्यू, मार पाया

  तमामी उम्र का दुखड़ा भुलाया

बिकट कहानी के अंत में बहुत कठिन है डगर पनघट की को इस प्रकार प्रस्तुत किया गया है।

  अरी आसां न  जानो इश्क करना

  तुमन इस आग यूं हरगिज न  पड़ना

  दरीं रह यक कदम बहबूदगी नीस्त

  बजुज अन्दोह या आसूदगी नीस्त

  अरे ये इश्क का फन्दा बिकट है

  निपट मुश्किल, निपट मुश्किल, निपट है

बिकट कहानी अर्थात्  बारहमासा के बाद दूसरी मुख्य रचनाओं में रौशन अली की रचना ‘आशूर नामा’ (1688 ई) है। इसमें करबला की घटनाओं को महाकाव्य की सूरत में प्रस्तुत किया गया है। इसमें कुल 3544 शेर हैं। रौशन अली एक लोक-धारा का कवि था, जिसने आशूर नामा में सत्रहवीं सदी की उस भाषा का प्रयोग किया है, जो उस समय पश्चिमी उत्तर प्रदेश में प्रचलित थी। आशूर नामा पढ़ने से प्रतीत होता है कि रोशन अली कविता की मात्राओं और बहर-व अवजान से अनभिज्ञ था। सत्रहवीं सदीं के अंतिम चरण तक की, जो मुख्य साहित्यिक प्रस्तुतियां सामने आ सकी हैं, उनमें इस्माईल अमरोहवी की मसनवी ‘वफातनामा-ए-बीबी (फातमा) (1693ई.), जियाउद्दीन खुसरो द्वारा लिखित काव्य शब्दकोश ‘खालिक-ए-बारी’ (1621 ई.) अजय चन्द पिस्रौनी चन्द भटनागर द्वारा संकलित ‘मिस्ल-ए-खालिक-ए बारी’ (1552-53 ई), हकीम युसुफी का काव्यरूपी शब्दकोश ‘कसीदा दर लुगात-ए-हिंदी’ (1543-55 ई) और उन्हीं की एक और कृति ‘रियाजा-उल’अदविया’ नाना प्रकार के जीव-जंतुओं और दवाओं के अरबी-फारसी नाम और उन के उर्दू/हिंदी पर्यायवाची वर्णित हैं। इस संबंध में शैख़ अब्दुलता अंसारी को ‘फिकह-ए-हिंदी’ (लगभग 1645 ई.) एक पद्य पुस्तिका है, जिसमें इस्लामी फिकह और दूसरे धार्मिक समस्याओं पर टिप्पणी मिलती है। अजय चन्द पिस्रौनी चन्द ने वास्तव में अपनी रचना को कुछ नाम नहीं दिया था, परंतु यह जियाउद्दीन खुसरो की सालिक-ए-बारी के स्वरूप से मिलती-जुलती है, इसलिए मोलवी अब्दुलहक ने इसे संकलित करते समय इसका नाम ‘मिस्ल-ए-खालिक-ए-बारी’ रख दिया। यह कृति इस दृष्टिकोण से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है कि इसमें खड़ी बोली का प्रभुत्व अपनी समकालीन रचनाओं की तुलना में अधिक है। दूसरी बात यह कि फारसी-अरबी शब्दों के प्रयोग एवं तद्भव प्रक्रिया के नमूने भी बड़ी मात्रा में मौजूद हैं। वास्तव में यह रचना अपने समय की पाठय-पुस्तक भी हैं। इसलिए इसके हर एक पाठ का अलग-अलग नाम रखा गया है। उदाहरणार्थ मदह, आगाज-ए-किताब, मदह-एबादशाह के अप्रांत हर एक पाठ का नामकरण ‘खाना’ से संबंधित है। जैसे मतबख़ ख़ाना, खजाना खाना, फील खाना, शुतुर खाना इत्यादि। इस पाठय-पुस्तक में अजय चन्द भटनागर ने हर एक पाठयक्रम के अंत में फारसी शब्दों एवं मुहावरों के उर्दू/हिंदी पर्यायवाची भी दिया है। जैसे :

  गुफ्तम न  त्वानम = कह न  सकूं

  तन्हा मान्दन = रहे अकेला

  जाग सियह है = कौव्वा काला

  होवत ‘माही’, ‘महली’ जान

  जुज़ ‘नान’ दर हिंदी ‘रोटी’

  ‘बज्म’, ‘मंजलिस’ ‘सभा’ पहचान इत्यादि

जियाउद्दीन खुसरो की ‘खालिक-ए-बारी’ में भी यही परिपाटी अपनाई गई है। इसी प्रकार हकीम यूसुकी की रचना ‘कसीदा दर लुगात-ए-हिंदी’ में भी यही तरीका देखने को मिलता है। उदाहरण प्रस्तुत है-

  आख चश्म-व-नाक बीनी बून अब्रू होंट लब

  दन्द दन्दां कारा गर्दन गोता जानो मून्ड सर

  खाल पोस्ट-व पज मगज-ब-इस्तख्वा गोविन्द हाड़

  उन्गली अन्गुश्त बाशुद अन्गुठा अन्गुश्त नर

  हस्त पेशानी मथा-व-सीना छाती दस्त हथ

  रेशम अस्त अब्रेशम-व-काला सियह उजला सपेद

  सुरमा काजल मिर्च फिलफिल साद मोता ऊद अगर

  (आखं = चश्म, नाम = बीनी, बून = अब्रू, होंट = लब)

1193 ई से 1707 ई. तक उर्दू के विकास की गति धीमी थी। औरंगजेब की मृत्यु के बाद उर्दू ने राजदरबार और राजपरिवार में स्वयं को स्थापित किया, क्योंकि औरंगजेब की मृत्यु के बाद  मुगल साम्राज्य के सूर्य को ग्रहण लग गया साथ ही साथ फारसी भी दरबारों से दूर होती गई और यह देखता (गिरी-पड़ी) बोल-चाल के साथ-साथ सृजनात्मकता का माध्यम बनी। इससे पूर्व कि 1707 ई के उपरांत उर्दू भाषा एवं साहित्य पर दृष्टि डाली जाय। एक कवि की गजल प्रस्तुत करना चाहूंगा, जो भाषा प्रयोग, साँस्कृतिक एवं साहित्यिक उपयोगिता और सृजनात्मकता की दृष्टिकोण से उद्भुत समन्वय की उदाहरण है। पण्डित चन्द्रभाव ब्रह्मण (1574 ई – 1662 ई) की यह रचना न  केवल भारतीय और फारस की संस्कृति को उजागर करती है, बल्कि हिंदी-उर्दू का भारत मिलाप भी कराती है। उदाहरण-

  खुदा ने किस शहर अन्दर हमन को लाए डाला है

  ना दिलबर है न  साकी है न  शीशा है न  प्याला है

  पिया के नाव की सिमरन किया चाहूं, करूं किस से

  ना तस्बी है न  सिमरन है न  कन्ठी है न  माला है

  खुबां के बाग में रौनक होवे तो किस तरह मारा

  ना दोना है न  मरवा है न  सोसन है न  लाला है

  पिया के नाव आशिक कों कतल बा अज्ब देखे हूं

  ना बरही है न  करही है न  खन्जर है न  भाला है

  ‘बरहमन’ वास्ते श्नान के फिरता है बगिया में

  ना गंगा है न  जमुना है न  नद्दी है न  नाला हैं!!

उत्तर भारत में उर्दू शायरी का सुचारू रूप से विकास अठारवीं सदी से होता है और मीरजाफर जेटल्ली (पृ. 1713 ई) जैसा बेबाक शायर हमारे सामने आता है। जिसे फक्कड़ और अपशब्द प्रायोगिक कहकर नजर-अन्दाज किया जाता है। लेकिन उसने जिस प्रकार से सामाजिक कुरीतियों और व्यक्ति विशेष के दुराचारों को तीखे शब्दों में व्यक्त किया है, उसका कोई दूसरा उदाहरण उस समय में तो कम से कम नहीं मिलता है। उसने न  ही राजा को छोड़ा न  ही प्रजा को। जेटल्ली के बाद का युग फायज देहलवी के नाम से संबंधित है। फायज (पृ. 1738 ई) के यहाँ उर्दू भाषा का प्रयोग अपनी चरम सीमा पर है। उदाहरण-

  जब सजीले खिराम करते है

  हर तरफ कत्ल-ए-आम करते हैं

  मुख दिखा, हब बना, लिबास संवार

  आशिकों को गुलाम करते हैं

  शोख मेरा, बुतां में जब जावे

  उस को अपना इमाम करते हैं।

उत्तर भारत में पद्यों की रचना एवं संरचना पर दृष्टि डालने के उपरांत अगर गद्य साहित्य पर नजर डाली जाय, तो फजल अली फजली का नाम सबसे पहले आता है। फजली की रचना करबलकथा 1732-33 ई. में लिखी गई। यह रचना मुल्ला हुसैन बाइज काशिफी की फारसी पुस्तक ‘रौजतुरशोहदा’ का स्वतंत्र अनुवाद है। ‘करबल कथा’ से पहले उत्तर भारत में गद्य का कोई भी नमूना उपलब्ध नहीं हुआ है। ‘करबल कथा’ की शैली कुछ इस प्रकार की है।

  तब मां बहनें और फूफियां खेमें से दौड़ी और अलीअबकर के पाव पड़ रोने लगी।

  अज़रत भी रूख्सत न  देते थे, और अली अकबर रो-रो आजजी कर सौगनध देते  थे।

इस युग की दूसरी अहम रचना ‘किस्स-ए-मेह्र अफरोज-व-दिलबर’ है जो 1732-59 ई. के मध्य लिखी गई। इसका रचयिता मोहम्मद इसवी खां बहादुर है। यह एक दास्तान है। इसकी भाषा बहुत ही सरल और आधुनिक है। उदाहरण प्रस्तुत है-

“बल्ख का एक बादशाह था। शाह आलम इसका नांव था। एक बार ऐसी इत्तिफाक होता है कि शिकार में वह अपनी फौज से इलाहिदा पड़ जाता है और राह भूल जाता है। देखे तो क्या – एक जंगल बहुत दिलचस्प है और तालाब व इमारतें बहुत अच्छी हैं और दरख्त बहुत से सधन हैं। बादशाह को जो वह जगह अच्छी लगती है सो घोडे क़ों तो एक तरफ अटका दिया और आप रात के ताईं वहाँ  रहता है। तो वह जजह अलमास बानो परी की है। सो रात के ताईं वहा फर्श होता है। वह आती है। राग,नाच होता है। बादशाह जो उस परी की सूरत देखता है (तो) बेइख्तियार आशि होता है।”

  भाषावैज्ञानिक दृष्टिकोण से एक और मुख्य रचना ‘नवादिर-उल-अल्फाज’ है, जिसे सिराजुद्दीन खान ‘आरजू’ (1687 – 1755 ईं) ने संकलित किया। यह एक शब्दकोश है, जो मीरअब्दुल वासेअ हांसवी द्वारा लिखित/संकलित शब्दकोश ‘ग़राएब-उल-लुग़ात’ की त्रुटिरहित प्रति है। अठारहवीं सदी के आरंभ में उर्दू भाषा जिन भाषा वैज्ञानिक बदलावों से दो-चार हुई, उनकी  झलक इस शब्दकोश की शब्दावली के माध्यम से देखी जा सकती है। इस के उपरांत मोहम्मद अता हुसैन खान ‘तहसीन’ की ‘नौतर्ज-ए-मोरस्सा’ (1798) मिलती है, जो फारसी की प्रसिद्ध दास्तान ‘चहारदरवेश’ का साहित्यिक अनुवाद है। ‘नौतर्ज-ए-मोरस्सा’ की शैली बड़ी हद तक सुसज्जित परंतु कृत्रिम लगती है। इसमें अरबी-फारसी शब्दों की भरमार है। इसी युग में शाह रफीउद्दीन देहलवी ने 1788 ई. में और शाह अब्दुल कादिर देहलवी ने 1790 ई. में पवित्र ग्रन्थ ‘कुरआन’ का सरल उर्दू में अनुवाद किया। अठारहवीं सदी ई के प्रारंभ में उत्तर एवं दक्षिण भारत के लोगों का मेल-जोल, वली औरंगाबादी के दीवान का दिल्ली पर प्रभाव और मुग़ल साम्राज्य के दरबार में उर्दू भाषा की साहित्यिक मान्यता के असर से उत्तर भारत में उर्दू शायरी के सुचारू विकास के उपरांत उर्दू भाषा के इतिहास का एक नया युग प्रारंभ होता है, अर्थात्  उर्दू अपनी भाषावैज्ञानिक प्राचीनता और परंपरावादी खैय्ये का बहिष्कार करती है और एक नए हब में प्रकट होती है। इस युग के भाषा की सबसे मुख्य विशेषता यह है कि इसने नए मुहावरों और शब्दावली का प्रयोग किया और फलस्वरूप पंजाबी, हरियाणी और ब्रज का प्रभाव कम हुआ तथा खड़ी बोली अंतत: उर्दू की पहचान ठहरी। अर्थात् वो फारसीनिष्ठ शायर, जो अपना स्वाद बढ़ाने के लिये कभी-कभी उर्दू में शेर कह लेते थे, अब उर्दू की सृजनात्मक शक्ति का अपनी रचनाओं में प्रयोग करने लगे। इस संबंध में अब्दुल कादिर ‘बेदल’, सा दुल्लाह ‘गुलशन’, सिराजुद्दीन अली खान ‘आरजू’ मुर्तुजा कुली खान ‘फिराक’, अशरफ अली खान ‘फिगां’, आदि महत्त्वपूर्ण शायर स्वीकार किये जाते हैं, जब कि बुनियादी तौर पर ये सभी फारसी के शायर थे। इन शायरों के उपरांत जिन रचनाकारों ने उर्दू में प्रयोगितावाद का झण्डा फहराया, उनमें शाह मुबारक ‘आबरू’, शाह हातिम, मुलाम मुस्तफा खान ‘यक रंग’, शैख शरफूद्दीन ‘मजमून’ मोहम्मद शाकिर ‘नाजी’ और मिर्जा मजहर ‘जान-ए-जाना’ मुख्यरूप से आते है। इन्होंने अपने चिन्तन और भावनाओं को संजीदगी से उर्दू में व्यक्त किया। इसी युग में मुशायरों की शुरूआत भी हुई और अठारहवी सदी ई. के अंत तक मीर तकी मीर मोहम्मद रफीअ सौदा मीर दर्द और  मीर हसन जैसे महान शायरों का उदय हुआ। इस शायरों की शायरी बड़ी हद तक दकनी प्रभाव से मुक्त हुई। साथ ही ठेठ हिंदीं शब्दावली के स्थान पर फारसी-अरबी मुहावरों और कहावतों में उर्दूपन पैदा कर के उनका सदुपयोग किया गया। इस प्रकार 1800 ई. तक उत्तर भारत में एक साफ सुथरी साहित्यिक और अकसाली भाषा उभर कर सामने आई, जिसके यौवन को निखारने में इब्राहिम ‘जौक’, मिर्जा गालिब, मीर अनीस, ख्वाजा हैदर अली आतिश, इमाम बख्श नासिख और दया शंकर ‘नसीम’ आदी का सराहनीय योगदान है। इन शायरों ने अपने रचनात्मक कौशल से उर्दू को विश्व साहित्य में अग्रणीय स्थान दिलाया।

दकनी या दक्खिनी प्राचीन उर्दू का वह रूप है जिसका साहित्यिक उद्भव दकन और गुजरात में चौदहवीं सदी के अंतिम चरण से सत्रहवीं सदी के अंत तक हुआ। यह भाषा अवधी की समकालीन है। इसका संपूर्ण शब्द-भंडार हिंदआयीई भाषाओं पर आधारित है और व्याकरण का ढाँचा भी हिंद-आर्यायी भाषाओं से मेल खाता है। बहमनी साम्राज्य से पहले यह भाषा हिंदी या हिंदवी के नाम से जानी जाती रही। कुरेशी ने अपनी रचना ‘भोगमल’ (1615 ई) में सर्व प्रथम इसे ‘दक्खिनी’ के नाम से पुकारा। मसऊद हुसैन खान के अनुसार दकनी की तुलना के गुजरी रात का पुराना नाम है। हाशमी बीजापुरी ने अपनी मसनबी युसुफगुलैखा में इस प्रकार व्यक्त किया है।

  तिरे शेर दकनी का है जग में नाव

  नको भूत कर दूसरी बोली मिलाऊ (नको = मत, नही भूत = भूल)

दक्षिणी भारतीय भाषाओं में इसका नाम ‘तुर्कमाट’, तिलन्गनी में ‘तुर्कमआट’ और कन्नड़ में ‘तुर्क मआत’ रहा। तमिल और मलयालम के कुछ क्षेत्रों में उर्दू को अब भी इसी नाम से पुकारा जाता है। परंतु यह सारे नाम 1294 ई. अर्थात्  अलाउद्दीन खिलजी के सेनापति मलिक काफूर के देवगिरी पर हमले और वहाँ के राजा रामदेव और उसके पुत्र शंकर द्वारा अधीनता स्वीकार करने के उपरांत ही प्रयोग में आए होगें। क्योंकि मलिक काफूर ने माबर (मलीबार) और वारंगल से रामेश्वरम् तक धावा बोला था और लौटते समय द्रविड़ों की बगावतें रोकने के लिये बहुत से तुर्क सरदारों को इन क्षेत्रों में ‘अमीर-ए-सिदा’ नियुक्त किया था। ये ‘अम्मीर’ सौ-सौ गाँवों के व्यवस्थापक होते थे। इनकी भाषा दिल्ली और उसके आस-पास बोली जाने वाली बोलियों से प्रभावित थी, जिनमें वे अरबी, फारसी और तुर्की के शब्द प्रयोग करते थे। यही कारण है कि उर्दू को उन क्षेत्रों में तुर्कमार कहा जाता था है।

  उर्दू/हिंदी बोलने वालों का सबसे बड़ा जथ्था मोहम्मद तुगलक के युग में दक्षिण भारत पहुँचा। तुगलक ने 1327 ई. में देवगीरि पर न  केवल विजय प्राप्त की, बल्कि उसके पास ही एक नया शहर भी बसाया, जिसका नाम दौलताबाद रखा। इस शहर के संस्कृति-निर्माण एवं निर्धारण के लिए उसने सूफियों और संतों को बड़ी संख्या में यहाँ भेजा। कहा जाता है कि सूफी संतों की चोदह सौ पालकियां यहाँ आई थी और हर पालकी के साथ कहारों और उन के शिष्यों एवं अनुयायियों की संख्या भी अच्छी-खासी थी। यह सभी सूफी संत उत्तर भारत या फिर इराक अफगान से आए थे। इनमें सैय्यद यूसुफ हुसैनी (शाह राजू), शैख बुरहानुद्दीन गरीब, शैख मुन्तखबुद्दीन जरबख्श, अमीर हसन अलाई, सनजरी और शैख जैनुद्दीन खुल्दाबादी मुख्य है। यह सभी सूफी संत तसब्बुफ के प्रचार हेतु अपनी भाषाओं में उस क्षेत्र की बोलियों को भी मिलाकर बोलते थे, जिस क्षेत्र में वह सूफीवाद का प्रचार कर रहे होते थे। मोहम्मद तुगलक की सख्त नीतियों से छुब्ध होकर दौलताबाद वालों ने इस्माइल मग़ की अनुवाई में बगावत कर दी और मग को अपना ‘अमीर’ बनाया। इस्माईल मग के बाद अलाउद्दीन हसन बहमन शाह ने बागडोर सम्हाला और गुलबर्गा में बहमनी सल्तनत की बुनियाद डाली, जो बाद में बीदर स्थानांतरित हुई। बहमनों ने 1347 ई. से 1527 तक राज किया। इस साम्राज्य के अट्ठारह राजा हुए। इसके चौदहवें बादशाह महमूद शाह बहमनी (1482-1518 ई) के युग में यह सल्तनत पाँच नई सल्तनतों में विभाजित हो गई। उसके बाद 1527 ई. तक यह नाम मात्र की सल्तनत रही। नई हुकूमत कायम करने वालों में अमीर कासिम बरीद ने 1487 ई. में बीदर में बरीद शाही की बुनियाद डाली और 1619 ई. तक यह स्वतंत्र राज्य रहा, तदुपरांत बीजापुर का अधीनस्थ हो गया। 1487 ई. में ही उमाद शाह ने बिरार में उमादशाही की बुनियाद रखी। 1490 ई. में अहमद जिनाम शाह ने अहमद नगर में निजाम शाही सल्तनत कायम की, जो 1633 ई. तक स्थापित रही उसके बाद मुगलों ने इस पर प्रभुत्व स्थापित कर लिया। 1490 ई. में ही युसुफ आदिल शाह ने बीजापुर में अदिलशाही हूकमत कायम की, जो। 1686 ई. तक चली और पाँचवी सल्तनत  1512 ई. में कुतुब शाह ने गोलकुण्डा में स्थापित की। 1686 ई. एवं 1687 ई. में मुग़लों ने इन सल्तनतों पर भी कब्जा कर लिया।

इस ऐतिहासिक घटनाचक्र को दर्ज करने का तात्पर्य यह है कि दकन के स्वतंत्र राज्यों ने उर्दू के विकास और मुद्रण एवं प्रसारण में जो खुलकर भाग लिया,  बहमनी साम्राज्य के स्थापत्य के साथ ही उर्दू लेखन की गति तीव्र हो गई और आदिलशाहियों एवं कुतुबशाहियों ने तो स्वयं भी इस भाषा में लिखा। कुतुबशाही बादशाहों ने न  केवल यह कि उर्दू को अपने दरबार में सर्वोच्च स्थान दिया, बल्कि इसे साहित्य लेखन और संचार का माध्यम भी बनाया। दकन में उर्दू के विकास का एक मुख्य कारण यह भी था कि उत्तर भारत से प्रवास कर दक्षिण भारत आने वालों में अधिकतर लोगों की मातृभाषा उर्दू ही थी। अब्दुल कादिर सरवरी ने लिखा है कि

  “दकन में इस भाषा (उर्दू) के जल्द विकसित होने और साहित्यिक भाषा के तौर पर स्वीकार कर लिये जाने का एक कारण यह था कि दक्षिण भारत के बहुभाषीय क्षेत्रों में उत्तर से आने वालों के लिए एकता या मेल-जोल का अकेला सहारा यही भाषा थी।”

  दकन में प्राथमिक स्तर पर उूर्द के नमूने बहमनी युग से ही मिलते हैं। शुरू में इसका प्रयोग धर्म, तसब्वुफ और भक्ति चेतना के लिए किया गया। इस संबंध में पहला नाम शैख़ ऐनुद्दीन गन्जुलइल्म (1306-1392 ईं) का आता है, परंतु साक्ष्य के तौर पर इनकी कोई भी रचना इस समय उपलब्ध नहीं है। दूसरा नाम ख्याजा बन्दा नवाज गेसू दराज (पृ. 1421 ई) का है, जो फिरोज शाह बहमनी (1397-1422 ई) के युग में गुलबर्गा आए थे। हिदायत नामा इनकी रचना है, जो तसब्बुफ के विषय पर लिखी गई है। इनके नाम से एक और रचना मे राजुल आशिकीन प्रस्तुत किया जाता है, परंतु यह पुस्तक वास्तव में मखदूम शाह हुसैनी की लिखी हुई है, जो बहुत बाद की है। बहमनी युग की सबसे प्रसिद्ध रचना मसनवी कदम राव पदम राव है।  इसका शायर फखरूद्दीन निजामी है। यह मसनवी अहमदशाहवली बहमनी (1421-1434 ई.) है। मीरां जी ने सूफीवाद पर कई कविताएँ लिखीं, जिनमें  ‘खुश नामा’, ‘खुशनग्ज़’, शहादतुल हकीकत, और मग्ज-ए-मरगूब (शहर-ए-मरसूब-उल कुलूब) अहम हैं। मीरां जी पर हिंदी छन्दों एवं मात्राओं का पड़ा प्रभाव है। इसी युग में शाह अशरफ बयाबानी (1459-1528 ई.) ने ‘लाजिमुल मुब्तदी’, ‘वाहिद-ए-बारी’, और ‘नौसरहार’ लिखी। ‘वाहिद-ए-बारी’ एक काव्यरूपी शब्दकोश है और नौसरहार तात्विक एवं कलात्मक दृष्टिकोण से एक मसनवी है, परंतु विषय-वस्तु के लिहाज से मर्सिया है। इसमें इमामहुसैन की शहादत और कर्बला की घटनाओं का वर्णन है। बहमनी युग के उपरांत बीजापुर में अदिल शाही और गोलकुण्डा में कुतुब शाही राज्य स्थापित हुए। आदिल शाहियों में इब्राहीम आदिल शाह (1580-1627 ई) उर्दू का महान शायर था। उसने मसनवियां, गज़लें और गीत लिखे। उसके गीतो का संकलन ‘नौरस’ ने नाम से मुद्रित हुआ। आदिल शाह जगत गुरू के नाम से भी जाना जाता था, उसकी  शैली और शब्दावली आधुनिक उर्दू से अधिक हिंदी के निकट है। आदिल शाह एक साहित्यिक व्यक्तित्व का स्वामी था, उसके दरबार में नुसूती, हाशमी और रूस्तमी जैसे प्रसिद्ध कवि थे। नुसूती (1657-1672 ई.) उस का दरबारी शायर था, जो दकनी का बहुत महत्त्वपूर्ण कवि माना जाता है। ‘गुलशन-ए-इश्क’ और अलीनामा उसकी  प्रसिद्ध मसनवियां हैं। हाशमी भी बीजापुर का मशहूर शायर था ‘यूसुफ गुलैखा’ उसकी  प्रसिद्ध मसनवी है। रूस्तमी की मसनवी खावरनामा एक संपूर्ण महाकाव्य है , इसमें 25 हजार अशआर हैं। इस युग में गद्य का नमूना प्रस्तुत करने वाले शाहमीरां जी शम्स-उल-उश्शाक के सुपुत्र शाह बुरहानुद्दीन जानम हैं। सूफीवाद पर इनकी  पुस्तक कलमतुल हकायक उस युग के गद्य शैली की र्निधारक रचना स्वीकार की जाती है। इरशाद नामा उनकी काव्यरचना है। इसी युग में शाह मीरा जी के पोते अमीनुद्दीन आला ने तसब्बुफ के विषय पर कई पुस्त्किाएं लिखी, जिनमें  ‘गंज-ए-मख्फी’, ‘कलमतुल असरार’ और वजूदिया अहम हैं। इस युग के दूसरी प्रसिद्ध रचनाओं में अब्दूल की ‘इब्राहीमनामा’, मलिक खुश्नूद की ‘जन्नत सिंगार’, हसन शौकी की फतहनामा निजाम शाह, सनअती की किस्सा-ए-बेनजीर, मुकीमी की फतहनामा बखरी आदि हैं। भाषा प्रयोग की दृष्टिकोण से समान्यत: आदिल शाही युग और आदिल शाही राज से जुड़े कवियों ने हिदी शब्दावली प्रेम मार्गी रीति एवं भारतीय सौंदर्यशास्त्र का खुलकर प्रयोग किया। जगतगुरू अली आदिल शाह की ‘नौरस’ और अब्दुल की मसनवी ‘इब्राहीम नामा (1604 ई) इस के अग्रणीय उदाहरण हैं।’ बीजापुर की तुलना में गोलकुण्डा ने साहित्यिक संरक्षण के संबंध में कम योगदान नहीं दिया। यहाँ का पाँचवाँ बादशाह मोहम्मद कुली कुतुबशाह (1580- 1612 ई) एक महान कवि था। वह कुतुबशाह और मआनी तखल्लुस करता था। उसने उर्दू में पाँच हजार से अधिक अशआर कहे हैं। और उस समय तक प्रचलित उर्दू-हिंदी की कोई ऐसी विद्या नहीं है, जिसको उसने नहीं बरता हो।  मोहम्मद कुली कुतुब शाह की कविताओं पर भारतीय संस्कृति, समाज और जीवन शैली तथा देव मालाई तत्त्व का गहरा प्रभाव है। उसकी  कविताओं में भारतीय पात्र, रस्म-रिवाज, फूल फल, वस्त्र अर्थात् हर वस्तु भारतीयता के चोले में प्रकाशित होती हैं। मोहम्मद कुली कुतुबशाह के उपरांत उसके उत्तराधिकारियों में मोहम्मद कुतुब शाह, अब्दुल्लाह, कुतुब शाह और अबुलहन ताना शाह भी उच्च कोटि के कवि थे। परन्तु जो प्रसिद्धि मोहम्मद कुली कुतुब शाह को मिली, वह इनमें से किसी को नहीं मिल सकी। कुतुब शाही राज्य के अतिमहत्त्वपूर्ण कवियों में मुल्ला वजही, इब्ने निशाती और गौव्वसी के नाम आते हैं। वजही की ‘सबरस’ उर्दू की पहली गद्य की रचना है, जिसमें कहानी के नमूने मिलते हैं। उसकी  मसनवी ‘कुतुब मुश्तरी’ (1609 ई.) कुली कुतूम शाह और भाग मती की प्रेम कथा पर आधारित है। भागमतीने ‘हैदर महल’ की उपाधि प्राप्त किया और हैदराबाद शहर इन्हीं के नाम से बसाया गया। गव्वासी अब्दुल्लाह कुतुब शाह का दरबारी शायर था, उसकी  दो मसनवियां ‘सैफुल मुलूक व बदीउज्जमाल’, ‘मैना सतवन्ती’ और ‘तूती नामा’ बहुत प्रसिद्ध हैं। इब्न-ए-निशाती भी इस युग का महत्त्वपूर्ण कवि है इसने फ़ारसी के एक किस्से ‘बिसातीनुल उन्स’ से प्रभावित होकर ‘फूल बन’ (1655 ई) लिखी। यह दास्तान के रंग में लिखी गई मसनवी हैं जिस में उर्दू। हिंदी का बड़ा सुन्दर संगम देखने को मिलता है। बीजापुर की तुलना में गोलकुण्डा वालों ने प्रयोगात्मकता का बहुत ही सूघड़ परिचय दिया। सामान्य स्तर पर यहाँ के साहित्यकारों ने अपनी शैली को फ़ारसी तत्त्व से सुसज्जित किया। इसका महत्त्वपूर्ण कारण यह हो सकता है कि गोलकुण्डा राज्य का ईरान से बड़ा करीबी संबंध था और बौध्दिक स्तर पर भी वे इरानी सूफ़ियों और बुध्दिजीवियों से प्रभावित थे। दूसरी बात यह कि बीजापुर सल्तनत ने कई बार अपनी प्रशासनिक भाषा बदली, जब कि गोलकुण्डा में फ़ारसी ही प्रशासनिक भाषा रही।

  बीजापुर और गोलकुण्डा के इलावा गुजरात ने भी उर्दू के विकास प्रक्रिया में सहयोग किया। गुजराती साहित्य को मुख्य रूप में तीन युगों में विभाजित कर के समझा जाता है। इसका प्रथम चरण 1000-1400 ई, द्वितीय चरण 1400-1700 ई. तथा तृतीय चरण अर्थात्  आधुनिक काल 1700 ई. से हमारे युग तक माना जाता है। गुजरात में अरबी-फ़ारसी बहुत पहले से प्रचलित थी, परंतु धार्मिक भाषा के रूप में । लेकिन फ़ारसी ने वहाँ  की संस्कृति और व्यवहार  को भी प्रभावित किया। फलस्वरूप गुजराती रचना ‘तमिल इन्द’ (1290 ई.) के उपरांत हुआ, जब राजा करण बाघेला के मंत्री माघो ने अलाउद्दीन ख़िलजी को गुजरात पर धावा बोलने का न्योता दिया। अलाउद्दीन ने अलग़ ख़ान के नेतृत्व में फ़ौज भेजी। अलग़ ख़ान ने गुजरात को जीत कर दिल्ली सल्तनत का राज्य बना दिया। मोहम्मद शाह द्वितीय ने 1400 ई. में ज़फर ख़ान को गुजरात का सूबेदार मनोनीत किया। जब अमीरान-ए-सिदा ने बग़ावत की, तो ज़फ़र ख़ान के बेटे तातारख़ान ने बाप को क़ैद कर के ख़ुदमुख्तारी की घोषणा कर दी और सात वर्ष के बाद गुजरात एक पूर्ण रूप से स्वतंत्र राज्य बना। यह लोग मूलत: भारतीय थे और गुजरात से बड़ा प्रेम करते थे अर्थात्  दिल्ली सल्तनत से छुब्ध जनता ने इनका खुलकर साथ दिया और एक साफ़ सुथरा समाज सामने आया। इसका प्रमाण गुजराती रचना ‘कान्ह डे प्रबंध’ (1456 ई.) में भाषा के स्तर पर इस प्रकार मिलता है कि इसमें हिंदू-मुस्लिम विभाजन की बजाय सांझा संस्कृति की छवि उभरती है इस पुस्तक की शैली भी गुजराती लोक-भाषा तथा अरबी-फ़ारसी की बिगड़ी शक्ल में उभरती है। इस चरण में हिंदू धर्म के मानने वाले अपने धर्म, समाज और साहित्य को व्यवस्थित करने में जागरूकता का प्रमाण दे रहे थे। परंतु नागर ब्राह्मणों ने फ़ारसी सीखना प्रारंभ कर दिया था,  क्योंकि साहित्यिक परंपरा की बुनियाद पड़ी । सुफ़ियों ने इसे अपने भाव एवं मत प्रकट करने का साधन बनाया। ख़ानक़ोहां और दायरों में महफ़िल-ए-सिमाअ के दौरान कौव्वालियां और भा’त इसी भाषा में होती थीं। उस युग का एक शब्दकोश ‘बहरूल फ़ज़ाइल’ (1433 ई.) में उसके संकलन कर्ता फ़जलुद्दीन बलख़ी ने उन हिंदवी शब्दों को इकट्ठा किया, जो फ़ारसी शायरी में प्रयोग किए जा सकते थे। इसके चौदहवें पाठ का शीर्षक था ”दर अल्फ़ाज़-ए-हिंदवी कि दर नज्मबकार आयद” । बलख़ी ने शब्दकोश संकलित करते समय भारतीय कला, भूगोल, संगीत और सौन्दर्य शास्त्र से संबंधित शब्दावली एकत्रित करने पर विशेष ध्यान दिया है। बल्ख़ी ने बहरूल फ़ज़ाइल में इस भाषा को हिंदी/हिंदवी का नाम दिया है। चौदहवीं से सोलहवी ई. तक यहाँ सूफ़ीवाद, शायरी का सबसे महत्त्वपुर्ण विषय था। इसमें इस्लामी सोच और वेदान्त का प्रभाव मिलजुल कर एक ऐसी सूरत आख्तियार कर गया था कि यह उन लोगों में अपनाइयत का आभास जगाने लगा, जो शुद्ध हिंदू से मुसलमान हो गए थे। गुजरात के उस युग का सूफ़ीवाद जिस रंग में नजर आता है, वह रंग कहीं और दिखाई नहीं देता। इस दौर की शायरी में भारतीय तथा कर्नाटकी संगीत परंपरा का बड़ा सुचारू रूप से प्रयोग हुआ है। पात्रों में भी ख़ुदा, उसे के रसूल, एक अद्वैत्ववाद और श्रीकृष्णावतार के बहुआयामी पहलुओं पर प्रकाश डाला गया है। भक्ति काल का प्रभाव, कृष्ण भक्ति, निर्गुण इत्यादि जैसे दार्शनिक विषयों तथा हिंदी विद्याओं का खूब-खूब प्रयोग हुआ है। जकरी और दोहा इस युग का सबसे प्रसिद्ध विद्याएँ हैं। जकरी वास्तव में जिकरी या जिक्र का गुजरी रूप है, परंतु इसकी व्युत्पत्ति जिगरी से भी सम्भव है, जो संगीत की शब्दावली है। इसमें साधारण तौर पर खुदा, खुदा के रसूल, पीर और मुर्शिद का जिक्र आध्यात्मिक तरीकें से शुद्ध हिंदी वजन औ बहर तथा साधारण शब्दों का प्रयोग होता था। रागों तथा रागनियों का भी ध्यान रखा जाता था। उदाहरण के तौर पर शैख़ बाजिन (1388-1506 ई) की रचना ‘खजाइन-ए-रहमतुल्लाह’ प्रस्तुत किया जा सकता है। वास्तव में यह पुस्तक फारसी में है, परंतु कहीं-कहीं उर्दू शेर भी हैं। शेख़ बाजिंन ने अपनी भाषा को कहीं ‘जबान-ए-देहलवीं और कहीं जबान-ए-हिंदी कहा है। इस युग का दूसरा महत्त्वपूर्ण नाम काजी महमूद दरियाई (1469-1535ई) का है। इश्क-ए-हकीकी अर्थात्  ईश्वर प्रेम उनकी  शायरी की बुनियाद है। दरियाई की शैली, शब्दावली, सुर, लय, मात्राएं तथा विद्याएँ सबकी सब हिंदी की हैं। उन्होंने अपनी कविता को समय या पहर के हिसाब से राग-रागनियों में ढाला तथा उनका नामकरण किया है। उदाहरण स्वरूप उन के जकरियों के र्शीषक इस प्रकार हैं- जकरी दर माख, जकरी दर पर्दा, बलावल, टोड़ी, भाकरा, दर पर्दा राम कली, तौहीद, तर्क-ए-गरूर इत्यादि। 

शाह जीवगामधनि (पृ. 1565) ने सर्व सुखाय सर्व बुध्दाय की नीति अपनाया है। इनकी  तुलना में शैख बाजिन क्लिष्ट हो जाते हैं। जीवगामधनी की शायरी की आत्मा इस्लामी है। परंतु उसको व्यक्त करने का माध्यम शुद्ध हिंदी है, जिस पर हिंदू दर्शन का बड़ा गहरा रंग है। दूसरे शब्दों में उनकी शायरी गुजरी उर्दू कविता में हिंदी परंपरा की चरम सीमा है, जिस पर आखिरी दौर में कहीं-कहीं फारसी शायरी की परंपरा भी देखने को मिलती है। परंतु खूब मोहम्मद चिश्ती (पृ. 1614) के यहाँ आते-आते फारसी शैली, कहावतों, रोजमर्रों तथा शब्दावली का व्यवस्थित प्रयोग प्रारंभ हो जाता है। वह जकरी, दोहरा और उक्दा जैसी विद्याओं की बजाय मसनवी को अपने बोध व्यक्त करने का माध्यम बनाते है। उनकी  मसनबी खूब तरंग (1578 ई) में फडरसी शैली तथा ध्वनियों का प्रभाव खुल कर सामने आता है। उन्होंने ‘अम्बाजे खूबी’ में ‘उज्रख्वाही’ के र्शीषक में लिखा है कि ‘बा अल्फाज-ए-अजमी-व-अरबी आमेज अस्त’ (हिंदी तथा अरबी शब्दों का समन्वय) से अपना काव्य र्निमाण किया है। और उनके मतानुसार अजमी का अथ्र मुजरी है। एक और जगह लिखते हैं कि मसनवी गुजराती रा खिताब खूबतरंग-व-दादम (यह मसनवी गुजरी में कही गई है, जो जिसका रंग चोखा है) ! खूब तरन्ज में एक शेर इस प्रकार है-

  ज्यूँ दिल अरब-व-अजम

  सुन बोली, बोली गुजरात

अर्थात्  वह अपनी भाषा को हिंदी या हिंदवी की बजाय गुजरी या गुजराती कहते हैं। अकबर के गुजरात विजय (1572 ई.) के उपरांत वहाँ सूफीवाद का स्वरूप बड़ी हद तक बदलता दिखाई पड़ता है। जब 1591 ई. में खूब मोहम्मद चिश्ती ने अपनी मसनवी ‘खूब वस्त्र’ की फारसी में व्याख्या अमवाजे खूबी के नाम से किया, तो यह बात खुल कर लिखी कि इस भाषा अर्थात्  गुजरी (प्राचीन उर्दू) में व्यक्त करने की वह क्षमता नहीं है कि जिससे सूफीवाद के गाढ़े और गहरे रंग को दिखाया जा सके। उन्होंने अपनी काव्य पत्रिका ‘द्वन्दा-द्वन्दा’ में इसी लिये उन्होंने फारसी तथा हिंदी उरूज (काव्यशास्त्र) का तुलनात्मक अध्ययन किया, जिससे उर्दू भाषा को अनुकूल शक्ति प्राप्त हुई। अब गुजरात में उर्दू साहित्य और विशेषकर उर्दू कविता पर फारसी विद्याओं, वजन, बहर, अलंकारों, मुहावरों तथा शैली का प्रभुत्व हो गया। अमीन गुजराती की मसनवी युसुफ जुलैखा (1697 ई) तक आते आते यह भाषा स्वयं को इस प्रकार व्यक्त करती है-

  जमाने शाह अवरंगजेब के में

  लिखी युसुफ जुलैखा को अमीं में !!

  इलाही तें मुझे तौफीक जो दी

  तो मैं भी फारसी में गूजरी की

  मेरा मतलब है यों सब कोई जाने

  हकीकत उसकी  सब कोई पचहाने (पचहाने = पहचाने)

अमीन गुजराती की दूसरी रचनाओं में ‘तवल्लुद नामा’ में राजनामा और वफात नामा हैं, जो हजरत मोहम्मद के जीवन को बताती हैं। गुजरात के दूसरे शायरों में अहमद गुजराती, मोहम्मद फतह बल्खी ‘गोधरी’ तथा मिस्कीन महत्त्वपूर्ण हैं। गुजराती साहित्य के अध्ययन से पता चलता हैं कि इसकी भाषा में वह लचक नहीं है, जो दकनी/दाक्खिनी शायरों की भाषा में हैं। दकन तथा गुजरात के साहित्य की भाषा एवं शैली अपने आरंभिक चरण में उस भाषा प्रवाह का परिचय नहीं दे पाई, जिस की शुरूआत वली से हुई। वली दकनी/अवरंगाबादी तथा सिराज औरंगाबादी ने इस भाषा को सही अर्थों में प्रवीणता तथा दक्षता से सुशोभित किया।

संदर्भिका

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