व्याकरणिक संसक्ति की युक्तियाँ
शोध-सारांश
सामान्यतः वाक्यों एवं उपवाक्यों के बीच पाए जानेवाले संबंध का विवेचन व्याकरणिक संसक्ति के अंतर्गत किया जाता है। पाठ में व्याकरणिक रूप से संसक्ति की अनेक युक्तियाँ मिलती है। जिनके द्वारा पाठ की समस्त भाषिक इकाइयाँ संपृक्त होकर पाठ को गठित करती हैं। इसके अंतर्गत पाठ या कथनों की बाह्य संरचनाओं के अभिलक्षणों का उल्लेख किया जाता है। प्रस्तुत पत्र में व्याकरणिक संसक्ति की युक्तियाँ पर विस्तृत रूप से चर्चा की गई है।
प्रस्तावना
पाठ जिन वाक्यों से निर्मित होता है, उसे संयोजित करने वाली संरचना को बाह्य संरचना कहा जाता है। बाह्य संरचना के अंतर्गत वाक्य-रचना तथा शब्द एवं वाक्यांश का क्रम-विधान आता है। कथा-साहित्य अथवा किसी पाठ के वाचन और निर्माण के लिए बाह्य संरचना के स्तर पर अनेक महत्त्वपूर्ण विशेषताएँ प्राप्त होती हैं। जिनमें से एक महत्त्वपूर्ण विशेषता है क्रमिकता या रेखीयता (Linearity) की। यह रेखीय अनुक्रम ही पाठ में काल को उपस्थित करता है। साथ ही संरचना के बाह्य स्तर पर तार्किक संबंध और संसक्ति को दर्शाता है।
सामान्यतः संसक्ति का अर्थ चिपकना, एक-दूसरे से गुँथ जाना, अथवा कसकर एक-दूसरे अवयवों को पकड़ना है। भाषा की दृष्टि से संसक्ति का संबंध विभिन्न रूपात्मक भाषिक इकाइयों के संबंध से है। जिसे हम उपयुक्त, अन्वित या अनुकूल होना कहते हैं। संक्षेप में, संसक्ति वाक्य के विभिन्न शब्दों/पदों में औचित्यपूर्ण मेल है। हिंदी में इसके लिए संसंजन एवं संहति प्रतिशब्दों का भी प्रयोग किया जाता है। आचार्य विश्वनाथ ने इसे ही योग्यता कहा है। संसक्ति वास्तव में एक ही विचार या सिद्धांत के अंतर्गत एकीकरण या सम्मिलन है, जो वाक्यार्थ की अभिव्यक्ति और अर्थग्रहण के निमित्त आवश्यक है और जिसके कारण वाक्य के सभी शब्द एक ही भाव का संकेत करते हैं।
वास्तव में संसक्ति व्याकरणिक विश्लेषण की एक मुख्य संकल्पना है। जिसे व्याकरणिक विश्लेषण के महत्त्वपूर्ण उपागम के रूप में स्वीकार किया गया है। इसके अंतर्गत पाठ या कथनों की बाह्य संरचनाओं के अभिलक्षणों का उल्लेख किया जाता है। साथ ही वाक्यों के भिन्न-भिन्न अंशों को जोड़ा जाता है। जिससे पाठ/प्रोक्ति की व्यापक इकाई का निर्माण होता है। पाठ में व्याकरणिक संसक्ति की अनेक युक्तियाँ मिलती है। ये युक्तियाँ निम्नवत् है-
- संदर्भ ( Reference) – किसी भाषिक इकाई का अपनी निकटवर्ती इकाइयों के साथ पूर्व अथवा पश्च संबंध उसका संदर्भ कहलाता है। वास्तव में एक इकाई का प्रयोग आंशिक या पूर्णरूप में उसके संदर्भ द्वारा ही निर्धारित होता है।
संदर्भ चूँकि पाठ में पूर्व एवं पश्च तत्त्वों के बीच संबंध बताता है, इसलिए इसे पूर्वभाग एवं पश्चभाग के आधार पर दो भागों में विभाजित किया जाता है। जब संदर्भ ‘पाठ’ के पूर्वभाग की ओर निर्देश करता है, तो वह अन्वादेश संदर्भ (Anaphoric Reference) कहलाता है तथा जब यह संदर्भ ‘पाठ’ के पश्चभाग की ओर निर्देश करता है तो इसे पश्चोन्मुखी संदर्भ (Cataphoric Reference) कहते हैं। पाठ में यह संयोजन ही संसक्ति उत्पन्न करते हैं। संदर्भ के प्रायः दो प्रकार है-
(1) अंतर्निर्देशी संदर्भ (Endophoric Reference) – पाठ में संसक्ति से संबंधित वे गुण और इकाइयाँ जिनका अर्थ पाठ में निहित हो तब उसे अंतनिर्देशी संदर्भ कहते हैं। इसके प्रायः दो प्रकार है-
(क) अन्वादेश संदर्भ (Anaphora Reference) – ‘अन्वादेश’ मूलतः एक प्रकार्यात्मक इकाई है, जो संज्ञा और सर्वनाम के आपसी संबंधों के आधार पर स्वयं को प्रतिफलित करता है। वास्तव में यह पाठ-संरचना के संरचक होते हैं, जो पाठ या वाक्य में प्रयुक्त संज्ञा पदों को सार्वनामिक कोटियों के माध्यम से जोड़ते हैं, जिससे प्रोक्ति/पाठ का विस्तार होता है। संक्षेप में, पाठ में प्रयुक्त सर्वनाम या अन्य भाषिक इकाई, जब पूर्व में आए किसी शब्द या पद का उल्लेख करती है तो उसे ‘अन्वादेश संदर्भ’ कहते हैं। इसे निम्न उदाहरण द्वारा समझा जा सकता है-
एक गाँव में एक लकड़हारा रहता था। वह बहुत परिश्रमी और ईमानदार था। एक बार वह नदी के किनारे एक पेड़ से लकड़ी काट रहा था।
उपर्युक्त उदाहरण में ‘लकड़हारा’ के लिए क्रमशः ‘वह’ सर्वनाम का प्रयोग किया गया है। जिसके द्वारा परवर्ती वाक्य, पूर्ववर्ती वाक्य से शृंखलित हुआ है। यह शृंखलन ‘पूर्व संदर्भ’ द्वारा हुआ है। इसलिए यह संदर्भ अन्वादेश संदर्भ कहलाएगा।
(ख) पश्चोन्मुखी संदर्भ (Cataphora Reference) – पश्चोन्मुखी संदर्भ, अन्वादेश संदर्भ के विपरीत कार्य करता है अर्थात् इसके अंतर्गत किसी संज्ञा शब्द के लिए प्रयुक्त सर्वनाम या अन्य भाषिक इकाई का पहले प्रयोग किया जाता है। तत्पश्चात संज्ञा शब्द का प्रयोग किया जाता है। दूसरे शब्दों में, सर्वनाम का प्रयोग जब सह-संदर्भी शब्द के पूर्व किया जाता है तब यह संदर्भ ‘पश्चोन्मुखी संदर्भ’ कहलाता है। इसे निम्न उदाहरण द्वारा सरलता से समझा जा सकता है-
उसके बारे में क्या सोचती होंगी सास और ननद! जिसके लिए उन्होंने क्या-क्या किया, वह यह कह रही है। ऐसा झूठ! क्या छवि बनी होगी सुषमा की वहाँ !
उपर्युक्त उदाहरण में ‘सुषमा’ के लिए ‘उसके’, ‘जिसके’ और ‘वह’ सह-संदर्भी का प्रयोग पहले किया गया है तत्पश्चात् अंत में ‘संज्ञा’ शब्द ‘सुषमा’ का प्रयोग किया गया है। अतः यह संदर्भ पश्चोन्मुखी संदर्भ कहलाता है। संक्षेप में कहा जा सकता है कि वाक्य में पूर्ववर्ती भाषिक इकाई से परवर्ती भाषिक इकाई का संकेत या ऐसे संकेत का परिणाम है- पश्चोन्मुखी संदर्भ।
(2) बहिर्निर्देशी संदर्भ (Exophoric Reference) – बहिनिर्देशी संदर्भ को प्रायः अंतर्निर्देशी संदर्भ से भिन्न प्रतिपादित किया जाता है। इस संदर्भ की पाठात्मक संसक्ति में कोई भूमिका नहीं होती। यह इसलिए क्योंकि यह पाठ के बाहर के संदर्भ को निर्देशित करता है।
- प्रतिस्थापन (Substitution) – मूल रूप से प्रतिस्थापन “के स्थान पर” अर्थात् एक ही शब्द या वाक्यांश की पुनरावृत्ति को रोकने के लिए विकल्प के रूप में प्रयुक्त होता है। वास्तव में यह शब्द अथवा वाक्य का प्रतिस्थापन है। जिस प्रकार संज्ञा के स्थान पर सर्वनाम का प्रयोग किया जाता है। यह युक्ति भी उसी प्रकार का कार्य करती है। इसे निम्न उदाहरण द्वारा समझा जा सकता है-
तुम्हें कौन-सी आईसक्रीम पसंद है।
मुझे गुलाबी वाली पसंद है।
उपर्युक्त उदाहरण में ‘तुम्हें कौन-सी आईसक्रीम पसंद है।’ के उत्तर में गुलाबी का आना ही प्रतिस्थापन है, अर्थात् यहाँ आईसक्रीम का प्रयोग न करते हुए गुलाबी शब्द का प्रयोग किया गया है, जो आईसक्रीम के प्रतिस्थापन के रूप में आया है।
- अध्याहार (Ellipsis) – संरचना के बाह्य तल पर जब किसी तत्त्व का लोप होता है तो उसे अध्याहार कहते हैं। दूसरे शब्दों में पाठ के अंतर्गत जब कुछ संरचनात्मक अवयवों का लोप कर दिया जाता है, लेकिन उन अव्ययों के न रहने पर भी उस प्रसंग में वाक्य को समझने में कोई बाधा नहीं होती अर्थात् श्रोता या पाठक शेष अवयवों को अपनी आंतरिक प्रतिभा के बल पर समझ लेता है तो वहाँ अध्याहार होता है। अध्याहार बहुधा बाद वाले कथन में होता है तथा इसे भाषा के प्रत्येक स्तर पर देखा जा सकता है।
आमतौर पर हम (मौखिक) संवाद अथवा संभाषण करते समय इसी प्रकार के वाक्यों का प्रयोग करते हैं, आधुनिक नाटकों, उपन्यासों और कहानियों में भी अध्याहार की इसी प्रक्रिया को देखा जा सकता है। अतः संक्षेप में कहा जा सकता है कि अध्याहार व्याकरणिक संसक्ति की एक महत्त्वपूर्ण युक्ति है। पाठ में अध्याहार कई प्रकार से होता है तथा इसके अनेक उदाहरण मिलते हैं। इसके निम्न प्रकार दृष्टव्य हैं-
1. कर्ता का अध्याहार –
( मैं ) तुम्हें सुबह से ढूँढ रहा हूँ।
1.2 आज्ञार्थक वाक्यों में कर्ता का अध्याहार –
( तुम ) जाओ!
( आप ) रुकिए!
उपर्युक्त प्रथम उदाहरण में ‘मैं’ कर्ता का अध्याहार हुआ है। इसी प्रकार आज्ञार्थक वाक्य ‘जाओ’ तथा ‘रुकिए’ में क्रमशः ‘तुम’ और ‘आप’ का लोप हुआ है किंतु लोप होने पर भी वाक्य में पूर्ण बोधगम्यता दृष्टिगोचर हो रही है।
2. कर्म का अध्याहार –
इनकी (बात) सुनो।
इस उदाहरण में ‘बात’ कर्म का अध्याहार हुआ है। किंतु अर्थ संप्रेषण में यह अपनी मुख्य भूमिका निभा रहा है। वस्तुतः अध्याहार में लेखक/वक्ता और पाठक/श्रोता का तालमेल ही प्रमाण होता है।
3. क्रिया का अध्याहार –
i. समाचारों के शीर्षक में प्रायः क्रिया का अध्याहार किया जाता है।
बिंद्रा को एशियन गेम्स में पहला मेडल
अमेरिका में मोदी का विरोध
स्टील कंपनियों के शेयर में गिरावट
उपर्युक्त उदाहरणों में क्रिया का अध्याहार किया गया है फिर भी वाक्यों के अर्थ का संप्रेषण सरलता से हो रहा है।
ii. लोकोक्तियों में भी कई बार क्रिया अध्याहृत रहती है।
हाथ कंगन को आरसी क्या?
चोर-चोर मौसेरे भाई।
कहाँ राजा भोज, कहाँ गंगू तेली
4. वाक्यांश का अध्याहार –
अक्षय आ रहा है और अक्षद भी। (आ रहा है)
प्रायः वाक्य के किसी अंश की आवृत्ति से बचने के लिए लेखक द्वारा उस अंश का लोप कर दिया जाता है। उपर्युक्त उदाहरण में ‘आ रहा है’ का लोप कर के लेखक ने वाक्यांश अध्याहार प्रस्तुत किया है।
5. प्रश्नोत्तर में –
कभी-कभी किसी प्रश्न का उत्तर देते समय विधेय को छोड़कर शेष सारा वाक्य अध्याहृत कर दिया जाता है।
(क) यह पुस्तक किसकी है? श्रेयस की।
(ख) आप कब आएँगे? परसों।
प्रश्न का उत्तर ‘हाँ’ या ‘नहीं’ में देना संभव होता है, वहाँ उत्तर का शेष अंश अध्याहृत कर दिया जाता है। जैसे-
- क्या आप मेरी सहायता करेंगे? हाँ।
- क्या आप एक-दूसरे को जानते हैं? नहीं।
उपर्युक्त उदाहरणों द्वारा स्पष्ट होता है कि पाठ में कुछ वाक्य व्याकरणिक या बाह्य संरचनात्मक स्तर पर अपूर्ण होते हुए भी भाव-संप्रेषण की दृष्टि से अपने-आप में पूर्ण होते हैं।
- तुलना (Comparison) – जब किसी पाठ के पहले वाक्य में व्यक्त स्थिति और उसके कथ्य की दूसरे वाक्य से तुलना की जाती है। तब वहाँ इस प्रकार की संसक्ति युक्ति दृष्टव्य होती है। इसमें पाठ के वाक्यों को समता-विषमता अथवा आनुपातिक अल्पता-तीव्रता के सहारे परस्पर निबंधित किया जाता है। इससे संबंधित निम्नलिखित उदाहरण दृष्टव्य है-
सबसे पहले अगर हम पहनावे की बात करें तो जहाँ भारतीय संस्कृति का पहनावा सूट, साड़ी, कुर्ता-पाजामा आदि है तो वहीं पाश्चात्य संस्कृति का पहनावा पैंट-शर्ट, स्कर्ट-टॉप आदि है।
प्रस्तुत उदाहरण में भारतीय पहनावे एवं पाश्चात्य पहनावे का वर्णन किया गया है, अर्थात् यहाँ वाक्यों में (असमानता) भारतीय पहनावा सूट, साड़ी, कुर्ता-पाजामा की तुलना पाश्चात्य पहनावा पैंट-शर्ट, स्कर्ट-टॉप से की गई है। अतः यहाँ यह स्पष्टता वाक्यों के संसक्तिपूर्ण अनुबंधन और कथ्य के संसक्तिपूर्ण अनुबंधन से ही हो पाई है।
- कालपरक (Temporal) – कालपरक जैसा कि नाम से स्पष्ट है किसी एक काल को निरूपित करने वाला काल। यह भी व्याकरणिक संसक्ति की महत्त्वपूर्ण युक्तियों में से एक है। प्रायः हिंदी में काल के तीन भेद है।
5.1 वर्तमान कालपरक
5.2 भूतकालपरक
5.3 भविष्य कालपरक
जब किसी पाठ के वाक्यों के अंत में एक ही प्रकार का काल निरूपित होता है। तब वहाँ कालपरक संसक्ति उद्घाटित होती है। अनेक कहानीकारों की कहानियों में ऐसे संदर्भ बद्ध कालवाचकों का प्रयोग किया जाता है। साथ ही कविता एवं गज़लों में भी इसके अनेक उदाहरण मिलते हैं। इस युक्ति को प्रदर्शित करनेवाले उदाहरणों को देखा जा सकता है-
5.1 वर्तमान कालपरक : आज का युग विज्ञान, शोध व तकनीक का युग है। एक देश या समाज की प्रगति इन तीन चीजों से ही मापी जाती है। जो देश या समाज प्रौद्योगिकी रूप से उन्नत हैं, वह हर क्षेत्र में अव्वल हैं।
प्रस्तुत उदाहरण वर्तमान कालिक संसक्ति को उद्घाटित कर रहा है। वास्तव में जब कोई पाठ अथवा रचना किसी एक काल को दर्शाती है तब वहाँ कालपरक संसक्ति दिखाई देती है। निम्नलिखित गज़ल भी इस वर्तमान कालपरक संसक्ति की युक्ति को उद्घाटित करती है-
गज़ल :
दुनिया जिसे कहते हैं जादू का खिलौना है
मिल जाये तो मिट्टी है खो जाये तो सोना है
5.2 भूतकालपरक : दिवाली की संध्या थी। श्रीनगर के घूरों और खंडहरों के भी भाग्य चमक उठे थे। कस्बे के लड़के और लड़कियां श्वेत थालियों में दीपक लिए मंदिर की ओर जा रहे थे। दीपों से उनके मुखारविंद प्रकाशमान थे।
वर्तमान एवं भूतकालपरक संसक्ति की युक्ति के तरह पाठ में भविष्य कालपरक संसक्ति भी मिलती है। इस संदर्भ में निम्नलिखित उदाहरण देखें-
5.3 भविष्य कालपरक : ‘मेरे सपनों के हिन्दुस्तान की यदि आत्मा ‘वेदांत’ होगी तो शरीर ‘इस्लाम’ होगा। शरीर के बिना आत्मा के अस्तित्व का विचार कोई भी नहीं करेगा।’
- अन्विति (Agreement) – अन्वय का अर्थ है ‘पीछे जाना’, ‘अनुरूप होना’, अथवा ‘समानता होना’। व्याकरण की शब्दावली में कहे तो इसका अर्थ है – व्याकरणिक एकरूपता। अर्थात् वाक्यों में पदों की परस्पर संगति को अन्विति कहा जाता है। डॉ. कविता रस्तोगी के अनुसार – “जब किसी वाक्यीय रचना में प्रयुक्त एकाधिक पद किसी समान व्याकरणिक लक्षण की रूपात्मक अभिव्यक्ति करें तो इस सादृश्य अभिव्यक्ति को अन्विति की संज्ञा देते हैं।” (रस्तोगी : 2000, 81)
अन्विति की दृष्टि से हर भाषा की अपनी विशेषता होती है। अन्विति में कर्ता या कर्म के साथ क्रिया की अन्विति सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है।
6.1 कर्ता और क्रिया की अन्विति – हिंदी में कर्ता के साथ क्रिया को अन्वित करते समय निम्नलिखित नियमों पर ध्यान देना आवश्यक है :
- यदि कर्ता के साथ कारक-चिह्न न लगा हो, तो क्रिया कर्ता के अनुसार होती है। जैसे-
लड़की खाना खा रही है,
लड़का रोटी खा रहा है।
- इसके विपरीत यदि कर्ता के साथ ‘ने’, ‘को’, ‘से’ आदि कारक-चिह्न लगे हो, तो कर्ता और क्रिया का अन्वय नहीं होता बल्कि वहाँ क्रिया कर्म के अनुसार निश्चित होती है। जैसे-
राम ने रोटी खाई,
सीता ने पत्र पढ़ा।
अर्थात् जब कर्ता के साथ ‘ने’ कारक-चिह्न जुड़ा होता है, तो क्रिया का लिंग और वचन कर्म के अनुसार निश्चित होता है।
- वाक्य में यदि एक ही लिंग, वचन, पुरुष के कारक-चिह्न रहित कर्ता ‘और’, ‘तथा’ आदि से जुड़े हो तो क्रिया उसी लिंग में बहुवचन में होती है। जैसे-
राम मोहन और दिनेश विदेश जा रहे हैं
पिताजी कल आएँगे।
- कर्ता के प्रति यदि आदर सूचित करना है, तो एकवचन कर्ता के साथ बहुवचन क्रिया आती है। जैसे-
पंडित जवाहरलाल नेहरू स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री थे। इनका जन्म 14 नवंबर, 1889 को इलाहाबाद में हुआ था। इनके पिता का नाम श्री मोतीलाल नेहरू तथा माता का नाम श्रीमती स्वरूपरानी था।
प्रस्तुत उदाहरण में ‘नेहरू’ के प्रति आदरार्थ व्यक्त करने के लिए बहुवचन क्रिया का प्रयोग हुआ है।
2. कर्म और क्रिया अन्विति – यदि कर्ता परसर्ग सहित हो और कर्म या पूरक परसर्ग रहित हो तो क्रिया की अन्विति कर्म या पूरक के लिंग, वचन और पुरुष के अनुसार होती है। जैसे-
वैदिक ने मिठाई खाई।
अंशुल ने चार सेब खाए।
3. शून्य अन्विति – शून्य अन्विति को ‘निरपेक्ष अन्विति’ भी कहते हैं। जब कर्ता और कर्म दोनों परसर्ग सहित हों तो क्रिया की अन्विति सदैव पुल्लिंग एक वचन में होती है, जैसे-
राम ने रावण को मारा।
अध्यापक ने सभी छात्रों को बुलाया।
अतः कहा जा सकता है कि वाक्य में विभिन्न पदों में लिंग, वचन आदि व्याकरणिक कोटियों की दृष्टि से पाई जानेवाली रूपावलीगत अनुरूपता को अन्विति कहते हैं। अन्विति यह संसक्ति की प्रमुख युक्ति है जो संपूर्ण पाठ में दृष्टिगोचर होती है तथा किसी भी पाठ को संसक्त करने में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
समुच्चयबोधकों को विभिन्न विद्वानों ने व्याकरणिक संसक्ति युक्तियों के अंतर्गत रखा है साथ ही इसे व्याकरणिक संसक्ति की युक्तियों में सबसे प्रमुख एवं सर्वाधिक प्रयुक्त होनेवाली युक्ति माना है, किंतु समुच्चयबोधकों को एंक्विस्ट ने मिलिक द्वारा प्रस्तावित वाक्य से वाक्य के बीच संबंध स्थिर करने वाली आठ प्रकार की आधारभूत तार्किक पद्धति का उल्लेख किया है। इससे स्पष्ट होता है कि समुच्चयबोधक तार्किक संबंध को उद्घाटित करते हैं।
वास्तव में किसी पाठ के अंतर्गत आनेवाले शब्दों, पदबंधों और वाक्यों को समुच्चयबोधकों द्वारा जोड़ा जाता है, इस जुड़ाव के पीछे कोई-न-कोई तर्क कार्य करता है, कौनसा शब्द किस शब्द के साथ आने की योग्यता रखता है, दोनों में किस प्रकार का संबंध है। इन सभी बातों के पीछे भी कोई-न-कोई तर्क ही कार्य करता है। अतः कहा जा सकता है कि समुच्चयबोधक एक ओर जुड़ाव का कार्य करते हैं, किंतु यह जुड़ाव तार्किक संबंध को स्पष्ट करता है। अतः समुच्चयबोधकों को व्याकरणिक संसक्ति के अंतर्गत न रखते हुए तार्किक संसक्ति के अंतर्गत रखना अधिक तर्कसंगत है।
निष्कर्ष
संसक्ति अपने आप में एक प्रक्रिया है क्योंकि बोलने-लिखने तथा पढ़ने-सुनने की प्रक्रिया में पाठ का स्वतः निर्माण होता जाता है। पाठ इस घात-प्रतिघात की प्रक्रिया का परिणाम है। और जब इस पाठ का विश्लेषण किया जाता है तब संसक्ति पर विचार किया जाता है। अतः संसक्ति एक प्रक्रिया के परिणाम को विश्लेषित करने की प्रक्रिया है। सामान्यतः यह पाठ मौखिक के स्थान पर लिखित रूप में होता है क्योंकि लिखित रूप में वह अधिक सहजता से उपलब्ध एवं दृष्टिगोचर होता है। अतः संसक्ति का संबंध विद्यमान तत्त्वों के पारस्परिक संबंध से है।
संसक्ति का विधान केवल बाह्य संरचनात्मक संकेत-चिह्नों के आधार पर ही किया जा सकता है। संक्षेप में कहा जा सकता है कि पाठ की निरंतरता में कई संसक्ति युक्तियाँ एक साथ आ सकती हैं और पृथक रूप से किसी संरचना को देखने पर उसके मूल संसक्त रूप में किसी एक प्रकार की संसक्ति को भी देखा जा सकता है।
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