अनामिका की कविताओं में स्त्री भाषा एवं मुद्दे

सारांश

स्त्री भाषा एवं साहित्य की परम्परा में अनामिका एक सशक्त हस्ताक्षर के रूप में उपस्थित हैं। उनके लेखन ने स्त्री साहित्य को एक नयी बुलंदी पर पहुँचाया है। अपनी रचनाओं में उन्होंने स्त्री को केंद्र में रखकर उसके मन की परतों को खोलने का काम किया है। वे परतें जो उसके देशकाल और परिस्थितियों से बनती हैं। अनामिका की कविताओं में हमें एक ऐसी मानवीयता की उपस्थिति का अहसास होने लगता है, जो प्रेम, प्रकृति, धैर्य, संवेदनशीलता और सहनशीलता की प्रतिमूर्ति तो है, लेकिन वह अपने साथ होने वाले भेदभाव भरे व्यवहार को देख समझ रही है, उस पर बात कर रही है और उसे बदलने के लिए कृत संकल्पित है। उसे अपनी क्षमताओं का पूरी तरह अहसास है। अनामिका की स्त्री अपने समय, समाज की एक सक्रिय सहभागी और अवलोकन कर्ता है । वह समस्या के समाधान से पहले समस्या को ठीक से समझने की सोच लेकर अपने आस पास से लेकर दूर दूर तक की चीज़ों को उनके संदर्भों में समझने और उनमें अपने जीवन को देखने  की प्रक्रिया में शामिल है। दुनिया के विस्तार में खुद के साथ साथ परिवार, समाज, विश्व, प्रकृति को महत्त्व देने और उसमें अपनी भूमिका को ठीक से देखने का काम अनामिका की कवितायें करती हैं और एक संश्लिष्ट मानवीय बोध का विकास पाठक के भीतर करती हैं। अनामिका की कविताओं में आज़ादी, समानता और मुक्ति अपने व्यापक सन्दर्भों के साथ आती है। प्रस्तुत आलेख में अनामिका की कविताओं में स्त्री भाषा और मुद्दों पर चर्चा की गयी है। 

भूमिका

अनामिका के लेखन का दायरा बहुत विस्तृत है। उसमें कविता के साथ साथ, कविताओं के अनुवाद, उपन्यासों और वैचारिक विमर्श से संपन्न लेखन की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। पर उनकी कवितायें एक अलग ही स्थान रखती हैं। उनकी कविताओं से अगर उनका नाम हटा दिया जाए, तो भी वह तुरंत पहचान में आ जाती हैं कि यह कवितायें अनामिका ने ही लिखी होंगी। अनामिका की उपस्थिति कविता के हर शब्द में रहती है। उनकी बात कहने की अलग भाषा और शैली समकालीन कवियित्रियों में उनकी एक अलग पहचान बनाती है। अनामिका के जीवन अनुभवों का दायरा काफी विस्तृत है। ग्रामीण, कस्बाई और शहरी परिवेश के दैनंदिन अनुभव उनकी कविताओं के दायरे को बढ़ा देते हैं। 

कविताई का वितान 

अनामिका की कविताओं में आत्मीयता, साझापन अपनी पूरी शिद्दत के साथ आता है। सबके लिए उनकी रचनाओं में प्यार और अपनापन दिखता है, लेकिन जहाँ बात गलत है, वहाँ वह उसका प्रतिरोध करती है, पर व्यंग्य के माध्यम से। ताकि बात असरदार तरीके से व्यक्ति के पास पहुँच जाए। उनकी भाषा पाठक से संवाद करती चलती है। कई बार कड़वी बातें मजाक में कही जा रही हैं, लेकिन अपनी पूरी मारक शक्ति के साथ। अनामिका की कविताओं में बतरस का एक सुख भी है और किसी समझदार की समझावन भी कि कैसे हमारा साथी, परिवार, समाज एक बेहतर मनुष्य बनने की प्रक्रिया में आगे बढ़ सकता है? कैसे एक संवेदनशील दुनिया तैयार की जाए? जब वह बुद्ध के माध्यम से आम्रपाली को कहती हैं कि रह जायेगी करुना, रह जायेगी मैत्री। बाकी सब ढल जाएगा (अनामिका, भेड़िया, 2015), तब हम अनामिका की कविताओं के सार और उनकी कविताओं में व्याप्त करुना के मर्म को समझ सकते हैं।

अनामिका की तमाम कवितायें हैं जो न केवल स्त्री-लेखन और विमर्श को एक मजबूत जगह देती हैं, वहीं मानववाद को भी को भी स्थापित करती हैं। उदाहरण के रूप में कूड़े में पन्नियाँ, बेजगह, इतिहास, कचाकारा, भूमंडल, गनिका गली, प्रेम इंटरनेट पर, नमस्कार डॉ हज़ार चौंसठ, माँ यह दुख क्यों होता है, प्रसूति गृह में पिता, अनहद, वापसी, पगड़ी, इस्माईल खान एँड संस ईराक रिटर्नड, ढ से धमाका, सुभद्रा कुमारी चौहान, स्त्रियाँ, नमक, भेड़िया आदि आदि। इस आलेख में उनकी कुछ चुनिन्दा कविताओं पर बात की गयी। जिसमें वृद्धा धरती का नमक हैं, अनुवाद, स्त्रियाँ, जुएँ, पत्ता पत्ता बूटा बूटा, पूर्ण  ग्रहण, चल पुस्तकालय, खेद पत्र नमक, टैंक काल अदि प्रमुख है। सबसे पहले हम अनामिका की कविता वृद्धा धरती का नमक हैं को देखते हैं-

अब बस इतना जानती हूँ ‘जीर्णानि-वस्त्राणि के नाम पर

कपडे जब तार तार होने लगते हैं। 

बढ़ जाती है उनकी उपयोगिता

फटे हुए बनियान बन जाते हैं झाडन

और पुराने तौलिये पोंछे का कपड़ा

फटी हुई साड़ियाँ दुपट्टे बन जाती हैं,

बन जाती है बच्चों की फलिया। 

– (अनामिका, वृद्धाएँ धरती का नमक हैं, दि.न.)

यह एक ऐसी ख़ास कविता है, जो कुछ महत्त्वपूर्ण बातों की तरफ हमारा ध्यान ले जाती है।

यह कविता अनामिका की एक बेहद संवेदनशील दृष्टि की प्रतीक है। इस कविता में समाज और परिवार के हाशिये पर रह रही वृद्धाओं की उपस्थिति के बारे में बात की गयी है, जो अपने होने पर मानो शर्मिन्दा हैं। खुद को दूसरों की नज़रों से छिपा कर रख रही हैं, जबकि उस घर की तमाम व्यवस्थाएँ उनके रहने मात्र से ही बेहतर तरीके संचालित हो पा रही हैं। वृद्धाओं के जीवन से ही कविता में एक विरोधाभासी बात प्रकट होती है। जिस संस्कृत श्लोक में मृत शरीर की तुलना फटे वस्त्र से की गयी है, जिसे त्याग देना ही उचित होता है। उससे कोई मोह नहीं रखा जाता, वहीं अनामिका अपनी कविता में वृद्ध स्त्रियों द्वारा फटे कपड़ों के नाना प्रकार के प्रयोगों के बारे में बात करती हैं। वृद्धाओं के भीतर घर की हर चीज सहेजने और लगातार उसे उपयोगी बनाने की प्रवृत्ति है। परिवार, बच्चों की बेहतर परवरिश, भाषा, लोक कथाओं, लोक गीतों मुहावरों, कहावतों का संस्कार, बेहतर और पौष्टिक खानपान, तीज त्यौहार। परिवार में किसी वृद्धा की उपस्थिति घर में सब कुछ ठीक तरीके से होने को सुनिश्चित करती है लेकिन लोगों का दृष्टिकोण उसे लेकर एक जीर्ण शीर्ण वस्त्र से ज्यादा नहीं होता, जिसे त्यागने का परिवेश धीरे धीरे परिवार में बनने लगता है। इसी प्रकार से दूसरी कविता अनुवाद पर बात करते हैं, जो स्त्री के घरेलू श्रम के प्रति समाज की असंवेदनशीलता दिखाती है। उसके काम पर किसी का ध्यान नहीं जाता और वह स्त्री अपने घरेलू कामों के पहिये में लगातार गोल गोल घूमती रहती है। वही काम दिन ब दिन, साल दर साल। झाडू, पोंछा, बर्तन साफ़ करना, खाना बनाना, कपडे धोना आदि आदि। लगातार नीरस काम उसकी जिन्दगी को भी नीरस बना रहा है। यहाँ वह अपनी जिन्दगी की नीरसता दूर करने के लिए सबसे पहले इस काम को ही रस लेकर करना चाहती है। अनुवाद कविता में स्त्री इसी नीरसता का अनुवाद करना चाहती है क्योंकि उसके पास फिलहाल दूसरे विकल्प नहीं हैं-

अभी मुझे घर की उतरनों का

अनुवाद करना होगा

जल की भाषा में,

फिर जूठी प्लेटों का

किसी श्वेत पुष्प की पंखुड़ियों में

अनुवाद करूंगी मैं फिर थोड़ी देर खडी सोचूंगी

कि एक झाग भरे सिंक का

क्या मैं कभी कर सकूंगी

किसी राग में अनुवाद? (अनामिका, अनुवाद, दि.न.)

लेकिन वह बहुत कोशिश के बाद भी एक चक्राकार गति में चल रहे नीरस घरेलू कामों को किसी रस या राग में तब्दील नहीं कर पाती है। झाग भरे सिंक का अनुवाद किसी राग में नहीं हो सकता अर्थात् लगातार जूठे बर्तनों को धोते-धोते उनमें कौन-सा उत्साह और संगीत पैदा हो सकता है, जिससे कुछ राहत मिले। कविता के इस हिस्से को पढ़ते हुए मलयालम फिल्म’ डी ग्रेट इंडियन किचिन की याद अनायास आ जाती है, वहाँ भी नायिका अपनी सारी इच्छाओं, सपनों को त्यागकर इस अनुवाद का बहुत प्रयास करने की कोशिश करती है, पर असफल रहती है और खुद को बचाने के लिए अंत में वह स्वयं को इस प्रक्रिया से ही अलग कर लेती है। क्योंकि इस अनुवाद की शर्त पर वह अपने सपनों की बलि चढाने को बिलकुल तैयार नहीं है। फिर भी आज हजारों ऐसी स्त्रियाँ है, जो लगातार इस संभावना या कहें कि भ्रम में रहती हैं कि उनके दैनंदिन काम भी एक राग या फूलों की महक और सुन्दरता उनके जीवन में उपलब्ध करायेंगे। पर यह भ्रम ही रह जाता है। सपने छोड़ने की पीड़ा दूर तक उनको सालती रहती है।

अनामिका जी की कविताओं में बहनापे को एक महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है। समाज और देश दुनिया में जहाँ भाईचारे, भाई-भाई, बंधुत्व का राज रहा है, वहाँ अनामिका बहनापे को मजबूती से अपनी कविताओं के माध्यम से सामने लेकर आती हैं। कहा जाता है कि स्त्री ही स्त्री की दुश्मन होती है, पर वह यहाँ इस बात को बहनापे की अवधारणा के साथ खारिज करती हैं। अनामिका की कविता जुएँ इस सन्दर्भ में काफी महत्त्वपूर्ण कविता है। जुएँ उसी के देखी जाती हैं, जो आपका बहुत प्रिय, विश्वासपात्र और मित्रवत होता है। जुएँ देखना आत्मीयता का प्रतीक है। भक्त कालीन संत कवयित्री जना बाई कृष्ण को अपने प्रिय सखा के रूप में बुलाती हैं कि वह आकर उनके कामों में हाथ बंटाए और उनके जुएँ भी देख दें। साथ, प्रेम और अपनेपन की तीव्रता यहाँ हमें दिख सकती है-

दरअसल-

जो चुनी जा रही थीं-

सिर्फ जुएँ नहीं थीं

घर के वे सारे खटराग थे

जिनसे भन्नाया पड़ा था उनका माथा (अनामिका, जुएँ, दि.न.)

भाषा में इस तरह के प्रयोग कविता की संवेदना को बढाने का काम करते हैं, जहाँ अनामिका बताती हैं कि स्त्रियाँ सिर्फ एक दूसरे के जुएँ ही नहीं देखतीं, बल्कि उनके दिमाग के तनाव को भी कम कर देती हैं, धीरे-धीरे उनकी छोटी बड़ी समस्याओं को सुनते समझाते। ऐसी समस्याएँ जिसे कई बार लोग न समझ पाते हैं न समझना चाहते हैं। शादी के बाद लगातार जिम्मेदारियों के बोझ से भरी हुई स्त्री का सिर प्यार से शायद ही कोई सहलाता होगा। घर के तमाम खटरागों में उलझी स्त्री को सुलझाने की काम उसके साथ की स्त्री ही करती है, जो कभी बहन के रूप में तो कभी देवरानी या जेठानी या पड़ोसी के रूप में सामने आती है। जिससे अपने मन की बातें कहकर स्त्री कुछ समय का सुकून भी पा जाती है। इन्हें किसी काउंसलर की भी जरूरत नहीं पड़ती है। लेकिन आज के दौर की यह भी हकीकत है कि लोगों के पास ऐसे विश्वस्त संबंधों का जबरदस्त अभाव हो गया है, जिससे वह अपने दिल की बात करके कुछ सुकून पा जाएँ। इसलिए हम आजकल मनोचिकित्सकों के पास अच्छी खासी भीड़ भी देख रहे हैं। ऐसे ही संबंधों की मजबूती पर आधारित अनामिका की एक कविता मौसियाँ भी है-

बालों के बहाने

वे गांठें सुलझाती हैं जीवन की

करती हैं परिहास, सुनाती हैं किस्से

और फिर हंसती-हंसाती

दबी सधी आवाज में बताती जाती हैं-

चटनी-अचार-मूंगबड़ियों और बेस्वाद संबंध

चटपटा बनाने के गुप्त मसाले और नुस्खे-

सारी उन तकलीफों के जिन पर

ध्यान भी नहीं जाता औरों का (अनामिका, मौसियाँ, दि.न.)

यह कविता भी हमें स्त्रियों की आपस समझदारी, सहयोग और प्रेम भरे साथ के प्रभाव और उसकी जरूरत के बारे में बताती है। इस कविता में अनामिका चटनी अचार के साथ बेस्वाद संबंधों को चटपटा बनाने की बात कर स्त्री की रसोई और उसके निजी संबंधों के माध्यम से एक खिड़की खोलती हैं। जो अनुवाद कविता की याद दिलाती है। शायद यही साथ, सहयोग, बहनापा अपनी स्थिति से बदलाव या उसका अनुवाद करने की प्रेरणा देता है। पूर्ण ग्रहण कविता में भी हम इस बहनापे को देख सकते हैं, जो बिछड़ी वृद्ध बहनें चाँद और धरती कई वर्षों बाद मिलती हैं-

ठुड्डी उठाई जो चाँद ने धरती की तो

बिलकुल सहर गई !

                 तेज बुखार था उसे                        

रह गई थी सिर्फ झुर्रियों की पोटली!

वह रूप कहाँ गया?  (अनामिका, पूर्ण ग्रहण , 2015)

चाँद अब तक कविताओं में चन्दा मामा या नायिका का चेहरा था, पर उसे इस कविता में धरती की बहन के रूप में चित्रित किया गया है, जो ग्रहण के समय अपनी बहन धरती के पास आती है और उसका उजड़ा सौन्दर्य देखकर सदमें में आ जाती है। धरती को लेकर पर्यावरणीय चिंता को कवयित्री ने दो बहनों चाँद और धरती के  रूपक से जोड़कर प्रस्तुत किया है।  

इसी बहनापे को उन्होंने भाषा से भी जोड़ा है। भाषा भी आखिर है तो स्त्रीलिंग। उसे भी बहनापे की महत्ता पता है। इसी भाषा से निकली हिंदी जिसे तमाम लोक भाषाओं का साथ मिला। इस साथ ने हिंदी को काफी संपन्न और मजबूत किया। उसी मजबूती को अनामिका की कविता हिंदी साहित्य का घरेलू इतिहास दर्शाती है-

साझा मातृत्व मिला इसको

दादी-नानी-ताई-मामी-मौसी

या बगल की बुआ का!

सब लोकभाषाएँ थीं इसकी माएँ (हिंदी साहित्य का घरेलू इतिहास , 2019 )

भाषा से लोकभाषा के संबंध, संस्कार और जुड़ाव से भाषा की सम्पन्नता और मजबूती के रिश्ते को यह कविता प्रदर्शित करती है। हिंदी भाषा को लेकर शुद्धतावादी या संस्कृतनिष्ठ भाषा होने के लिए कई प्रकार के दबाव देखने को मिलते हैं, पर अनामिका जी भाषा के इस सीमित दायरे को तोड़कर उसे अन्य लोकभाषाओं के साथ मातृत्व भाव से जोड़कर उसकी मजबूती की वकालत करती हैं।              

अनामिका जी ने अपनी कविताओं में लोककथाओं का भरपूर प्रयोग किया है। उन लोक कथाओं का विखंडन कर उन्हें अलग अलग सन्दर्भों में समझने का सशक्त प्रयास इन कविताओं में हमें मिलता है। भेड़िया कविता लोक कथाओं के साथ अनामिका जी की रचनाओं के जुड़ाव को दिखाती है-

क्या सचमुच झूठ बोलता था वह बच्चा?

क्या औरतें और बच्चे आवेग में भय के, जो बोलते हैं, वह होता है झूठ?

दुनिया का पहला कथावाचक ये ही तो थे-

रूपकों में अपनी बात करने वाले!

पर्वत चोटी का घनघोर-सा-अकेलापन

उस नन्ही-सी जान की खातिर

किसी भेड़िये से कम होगा क्या? (अनामिका, भेड़िया, 2015)

इस कविता में अनामिका ने महिलाओं और बच्चों के भय पर बात की है। भय और आवेग में जो बातें कही जा रही हैं, उनका क्या अर्थ हो सकता है? जिसे हम झूठ समझ रहे हैं, क्या वह सच में झूठ है? या किसी का अपना यथार्थ है। भय से बार बार भेड़िया चिल्लाकर लोगों को अपने पास बुला ले रहा था, अंत में वह मारा जाता है क्योंकि जब वास्तव में भेड़िया आया तो लोगों ने बच्चे की पुकार को झूठ समझ लिया। इस कहानी से सभी को नैतिक शिक्षा दी गयी कि झूठ नहीं बोलना चाहिए, अन्यथा एक दो बार के बाद कोई भी आपकी बात पर विश्वास नहीं करेगा। बच्चा मारा गया क्योंकि उसने झूठ बोला। पर अनामिका बच्चे के मनोविज्ञान समझाते हुए बताती हैं कि एक बच्चे के लिए सूने पहाड़ों का एकांत क्या उतना ही डरावना नहीं होगा, जितना कि एक जंगली जानवर। उसके भय और उसकी असुरक्षा को समझाने का प्रयास करती हैं। अनामिका बच्चों और महिलाओं की भाषा में रूपकों के प्रयोग की शैली को भी केंद्र में लाती हैं। वह इस बात की माँग करती हैं कि महिलाओं और बच्चों की बात को ठीक ठीक तरीके से सुनने और समझने की कितनी गहरी जरूरत है? जो कहा जा रहा है, उसकी तह को समझना बहुत जरूरी है। उसके लिए स्त्रियों की बात को गंभीरता से लेना बहुत जरूरी है, लेकिन समाज में गहरे पैठी पितृसत्तात्मक व्यवस्था और लैंगिक भेदभाव हमेशा स्त्री सन्दर्भों को सदियों से अगंभीरता से लेते आये हैं, इस मुद्दे को अनामिका की स्त्रियाँ कविता पुरजोर तरीके से उठाती है। अब स्त्रियाँ इस अगंभीरता को सहने के लिए बिल्कुल तैयार नहीं हैं-

एक दिन हमने कहा

हम भी इंसान हैं-

हमें कायदे से पढो एक-एक अक्षर

जैसे पढ़ा होगा बी। ए। के बाद

नौकरी का पहला विज्ञापन !

देखो तो ऐसे

जैसे कि ठिठुरते हुए देखी जाती है

बहुत दूर जलती हुई आग! (अनामिका, स्त्रियाँ, दि.न.)

इस कविता में कवयित्री स्त्री के प्रति होने वाले बर्ताव में, भाषा में भूमिकाओं में बदलाव की माँग कर रही है। वह उसे चना जोर गरम की पुड़िया के कागज़ की तरह लापरवाही से देखा जाना नहीं पसंद करती, बल्कि वह चाहती है कि उसे उसी गंभीरता के साथ जाना, समझा और सुना/पढ़ा जाए, जैसे कि नौकरी के पहले विज्ञापन को पढ़ा, समझा जाता है। उसे एक बोझ या जिम्मेदारी की तरह नहीं बल्कि, सम्भावना, संवेदना और मजबूत सहारे के रूप में देखा जाए। स्त्री को नजरंदाज कर देने वाली किसी नजर को बर्दाश्त नहीं किया जा सकता, चाहे इसके लिए कोई भी टैग क्यों न लगा दिया जाए।

अनामिका की ‘चल पुस्तकालय’ कविता स्त्री शिक्षा से एक कदम आगे जाकर स्त्री की बौद्धिक जरूरत पर बात करती हैं। चल पुस्तकालय का प्रयोग घर में व्यस्त ऐसी तमाम स्त्रियाँ करती हैं, जिन्हें पढ़ने का शौक है, पर पुस्तकालय तक उनकी पहुँच नहीं है। ऐसी स्त्रियों के लिए पुस्तकालय ही उनके पास पहुँचता है। यहाँ उन स्त्रियों की मुलाक़ात तमाम लेखकों से उनकी पुस्तकों के माध्यम से होती है। ये लेखक उनकी बौद्धिक जरूरतों की पूर्ति करते हैं, उन्हें दुनिया भर से जोड़ने का काम करते हैं। इस कविता को देखते हैं –

यहाँ वेद कुरान के पड़ोस में निश्चिन्त सोए थे।

सट-सटकर बैठे थे तालस्तॉय-चेखव, रवीन्द्र और प्रेमचंद

यशपाल, स्वेताएवा और जैनेंद्र

जिनसे उमगकर मिलाने वाले थे न वे

घर के सब काम काज निबटाकर

‘चल पुस्तकालय’ चली आई

उन सब गृहणियों के जीवन का

पहला और अंतिम रोमाँस

वही थे! (अनामिका, भेड़िया, 2015)

इस कविता में तमाम देशी विदेशी लेखकों का जिक्र आता है, जिनकी उपस्थिति उनकी पुस्तकों के माध्यम से आज भी जीवंत है। जिनके बीच इतना प्यार और अपनापन है कि उसमें वेद और कुरान एक साथ अपनी जगह साझा करते हैं, वास्तविक दुनिया में भले ही यह कठिन हो। स्त्री के संबंध इन लेखकों लेखिकाओं के साथ काफी मजबूत बनते हैं क्योंकि इन्हीं से उन स्त्रियों को मुक्ति, आत्म सम्मान और संघर्ष की प्रेरणा मिलती है। लेकिन जहाँ ये नहीं हैं, वहाँ भी स्त्री के कुछ ऐसे संबंध होते हैं, जो उसे कुछ समय के लिए हौसला दे जाते हैं। ऐसा ही संबंध कवयित्री डाकिये और महिलाओं के बीच तलाशती हैं। स्त्रियों के लिए डाकिया बहुत भरोसेमंद व्यक्ति है। जो स्त्री के लिए सबकी खैरियत की खबर लाता है और उसकी खैरियत की खबर उसके हित चिंतकों के पास पहुँचा देता है (भले ही वह झूठी हो)। डाकिया उस स्त्री को उसके सारे बिछड़े संबंधों के साथ जोड़ने की एक कड़ी बन जाता है। इसलिए वह स्त्री का बहुत भरोसेमंद होता है, तब जबकि उस स्त्री को पढ़ना भी न आता हो –

डाकिया बहुत प्यारा सा आदमी था-

एकदम भरोसे के काबिल-

औरतों का अपना आदमी-

ज्योतिबा फुले, रानाडे, विद्यासागर का

 एक परिवर्धित पाकेट संस्करण

‘ट्रंककाल’ कविता लड़कियों के पितृसत्तात्मक समाजीकरण पर बात करती है, जिसमें घर से हज़ार किलोमीटर दूर जाकर भी एक अदृश्य सा नियंत्रण लड़कियों के ऊपर काम करता है। उच्च शिक्षा लेने के बाद भी उनके भीतर वह शक्ति पैदा नहीं हो पा रही है, जिससे वह स्वयं का एक मजबूत व्यक्तित्व के रूप में विकसित कर पायें। बाहर पढ़ने के बाद घर लौटकर उनकी एक ही मंजिल है, विवाह। या नौकरी का लंबा इंतज़ार जो उस स्त्री को धीरे धीरे अहिल्या की तरह एक पत्थर में बदल रहा हैखेद पत्र कविता को देखते हैं-

हर बार सोचती हूँ यों ही खड़ी- खड़ी

ग़ालिब के बारे में-

‘डायम पड़ा हुआ तेरे दर पर नहीं हूँ मैं.

ख़ाक ऐसी जिन्दगी की पत्थर नहीं हूँ मैं’

पत्थर नहीं हूँ पर पत्थर हूँ

पत्थर नहीं हूँ तो कैसे खडी हूँ

अहिल्या सी

अभ्यागत मुद्रा में

 पिछले छः घंटों से यों ही

अदद एक मुहर के लिए 

(अनामिका, नायिका भेद:नवेलिका थेरी बोली लंगट सिंह कॉलेज के आचार्य से, 2015)

यह अनामिका की भाषा की विशेषता है कि उसमें लोक कथाएँ, किवदंतियां, मुहावरों, कहावतों के साथ-साथ विभिन्न लेखकों, शायरों की रचनाओं, संगीत, काव्यशास्त्र, विविध भाषाओं के शब्दों की उपस्थिति भरपूर मिलती है, जो अनामिका की कविताओं को साहित्य के क्षेत्र में अग्रणी स्थान देती है। अनामिका की रचनाओं ने स्त्री साहित्य को एक अलग मजबूत पहचान दी है। उक्त कविता में हम ग़ालिब के शेर का प्रयोग देख सकते हैं। जहाँ पत्थर न होने और होने के बीच एक लड़की खडी है। उसे बार-बार उस बड़े से form और उसके सारे कागजों को बार-बार अटेस्ट करवाना पड़ता है।  हर बार खेद पत्र के साथ उसे नौकरी न मिलने की सूचना मिलती है और वह फिर से नए form को भरने और अटेस्ट करवाने की प्रक्रिया में लग जाती है। यह प्रक्रिया उसे धीरे-धीरे एक जड़ व्यक्ति में तब्दील करती चली जा रही है क्योंकि उसका इंतज़ार ही ख़त्म नहीं हो रहा। इस सरकारी तंत्र और बेरोजगारी के युवाओं खासतौर पर लड़कियों पर पड़ने वाले प्रभाव को यह कविता दिखाती है। महिलाओं के लिए रोजगार पाना आज भी टेड़ी खीर है क्योंकि यह मान कर चला जाता है कि इनके पति तो रोजगार करते ही होंगे। इनकी जगह किसी पुरुष को ही रोजगार दिया जाये, क्योंकि वह परिवार चलाने का मुख्य स्रोत है। इस सोच के कारण महिलायें ज्यादा बेरोजगार रह जाती हैं, या उन्हें निचले स्तर के ही काम मिल पाते हैं। नमक कविता खेद पत्र कविता के दर्द को और स्पष्ट करती है –

वो जो खड़े हैं न –

सरकारी दफ्तर-

शाही नमकदान हैं.

बड़ी नफासत से छिड़क देते हैं हरदम हमारे जले पर

जिनके चेहरे पर नमक है

पूछिए उन औरतों से-कितना भारी पड़ता है उनको

उनके चेहरे का नमक ! 

(अनामिका, नायिका भेद:नवेलिका थेरी बोली लंगट सिंह कॉलेज के आचार्य से, 2015)

अनामिका की कवितायें समाज के हालात और उसमें महिलाओं के अलग अलग स्तरों के संघर्ष को सामने लाती है। स्त्री के चेहरे का नमक उसे कैसे भारी पड़ता है इसे हम समाज में महिलाओं की तरफ बढ़ने वाली हर कुत्सित नज़र से समझ सकते हैं। लेकिन बात जब अपने अस्तित्व की है तो अब संघर्ष बड़ा हो जाता है। अब स्त्री स्वयं को सिर्फ सौन्दर्य के मानकों के अनुरूप नहीं देख रही है, या सिर्फ शृंगार रस को ही अपने भीतर नहीं महसूस करती, बल्कि अब उसका धीरे धीरे बढ़ने वाला आत्मविश्वास उसके भीतर नौ रसों के आस्वादन की स्थितियां रख रहा है, लेकिन घर, बाहर, मायका, ससुराल, नौकरी, ; पति, बच्चे आदि की एक साथ संभालने वाली जिम्मेदारियां उसके रसों में कई तरह के बदलाव लायी हैं। एक साथ कई मूड और विचारों में रहने के स्थिति। कहा जाता रहा है कि महिलायें एक समय में एक साथ दो विपरीत विचारों के बारे में सोच रही होती हैं। ‘नायिका भेद’ कविता इसी बात की पुष्टि करती है.-

शृंगार में बहती है कुछ भयाभहता,

शांत भी वीभत्स या रौद्र से जा मिला है!

हर क्षण हमारा है नौ रसों का काकटेल

और हम भी हैं शायद मिश्र-प्रजाति वाले

बांस का टूसा (अनामिका, नायिका भेद:नवेलिका थेरी बोली लंगट सिंह कॉलेज के आचार्य से, 2015)

बांस का टूसा, “हमारा मार-उर मत कोई, हम त खुट्टा चीराब लोई.” या धूप है कि सौतिया डाह,बाबा?(वितृष्णा थेरी अब बोल पडीं मेरे ही भीतर से), किसे खेत की मूली हो जैसी लोक भाषा का प्रयोग अनामिका की कविता को स्त्री कविता और भाषा के एक अलग मुकाम पर ले जाता है। लोकभाषा के साथ साथ अनेकों कहानीकारों की रचनाओं के सन्दर्भ लेकर भी अनामिका की कई महत्त्वपूर्ण कवितायें मिलती हैं। जो उस रचना को वर्त्तमान सन्दर्भों और मुद्दों के साथ जोड़कर प्रासंगिक कर देती है। उनमें से ‘पत्ता-पत्ता बूटा-बूटा’ को देखा जा सकता है।

माँ  प्रेमचंद की कहानियों में

वो जो एक हामिद था-

दादी के चिमटे वाला

यह जो इत्नी  मारामारी हुई है-

कहाँ गयी होगी उसकी दादी?

कहाँ गया होगा उसका चिमटा? (अनामिका, पत्ता पत्ता बूटा बूटा , दि.न.)

यह कविता दंगों की विभीषिका के बीच हमें हामिद, उसकी दादी और उसके चिमटे की याद दिलाती है। प्रेमचन की कहानी ईदगाह  हर पाठक को उसके बचपन में लेकर जाती है और हामिद के साथ एक गहरा रिश्ता बनाती है। जैसे कि हामिद हमारा बेहद अपना है। उसकी चिंताओं को हमारी चिंता बनाती है। ऐसे में  दंगों में फ़ैली नफ़रत के बीच हामिद से मुहबब्त कैसे भूली जा सकते है ? उसकी परवाह, उसकी चिंता , उसका ख्याल हमें यह बताता है कि अभी भी हम भारत की साझी विरासत का हिस्सा हैं। हमें यह सशक्त और सक्रिय प्रयास करना होगा ताकि  बच्चों की मासूमियत और उनका बचपन दंगों और उन्मादी नफ़रत की भेंट न चढ़े। अनामिका की यह कविता जबरदस्त तरीके से साम्प्रदायिकता के विरोध खडी होती है ।

ऐसी ही अनामिका की तमाम कवितायें हैं, जो स्त्री भाषा एवं स्त्री मुद्दों की दृष्टि से खजाने की तरह हैं, जितनी बार आप उन्हें पढ़ते हैं, उतनी ही बार कुछ न कुछ नए अर्थ संदर्भ इन कविताओं से निकलते हैं। अनामिका की  कवितायें उस स्त्री को केंद्र में रखकर अपनी बात करती हैं, जो हाशिये पर है,पर अब वह अपनी इस हाशियाग्रस्त स्थिति को सहने के लिए तैयार नहीं है। इसके लिए वह किसी क्रांति की राह नहीं देखती बल्कि अपने रोजमर्रा के जीवन में से अवसर निकालती है कि वह कुछ ऐसा करे जो उसकी स्थिति में बदलाव लाये। कई बार यह संभव होता है। कई बार नहीं भी। लेकिन वह सविनय अवज्ञा की राह पर ही डटी रहती हैं। उनकी कवितायें सामाजिक विसंगतियों पर कुठाराघात करती हैं। अनामिका की कवितायें इतिहास और वर्त्तमान, निजी और सार्वजनिक, घर और बाहर, पितृसत्ता और नारीवाद के बीच आवाजाही करती रहती हैं, ताकि सम्यक तरीके से समाज में स्त्री की जटिल स्थितियों को समझा जा सके। अनामिका की कविता स्त्री को प्रकृति के रूप में दिखाती हैं, जिसके पास सबके लिए छाँव है, आसरा है और वह आँख के बदले आँख की पितृसत्तात्मक राजनीति में बिलकुल भरोसा नहीं करती। अनामिका की कवितायें  किसी आन्दोलन की हिस्सा बनते स्त्रियों को नहीं दर्शातीं पर उन स्त्रियों का हर प्रयास उनके अपनी जगह से पितृसत्ता के खिलाफ खड़े होने का आन्दोलन ही है। हमें आधी आबादी में अपनी मुक्ति के विविध रास्तों को भी देखने समझने की जरूरत है। रास्ते अलग अलग हो सकते हैं पर स्त्री मुक्ति की मंजिल एक ही है।

संदर्भ

  • अनामिका. (2015). नायिका भेद:नवेलिका थेरी बोली लंगट सिंह कॉलेज के आचार्य से. अनामिका में, टोकरी में दिगंत (पृ. 73). नई दिल्ली: राजकमल.
  • अनामिका. (2015). पूर्ण ग्रहण . टोकरी में दिगंत (पृ. 131). में नई दिल्ली: राजकमल.
  • अनामिका. (2015). भेड़िया. अनामिका में, टोकरी में दिगंत (पृ. 99). नई दिल्ली: राजकमल.
  • अनामिका. (२०२१ ). साखी .
  • अनामिका. (दि.न.). अनामिका की कवितायें . हिंदवी : https://www.hindwi.org/poets/anamika/kavita से पुनर्प्राप्त
  • अनामिका. (दि.न.). अनुवाद . कविता कोश: https://www.hindwi.org/kavita/anuwad-anamika-kavita?sort=popularity-desc से पुनर्प्राप्त
  • अनामिका. (दि.न.). जुएँ . कविता कोश : http://kavitakosh.org/kk/%E0%A4%9C%E0%A5%81%E0%A4%8F%E0%A4%81_/_%E0%A4%85%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%AE%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A4%BE से पुनर्प्राप्त
  • अनामिका. (दि.न.). ट्रंक काल. हिंदवी: https://www.hindwi.org/kavita/trankkaul-anamika-kavita?sort=popularity-desc से पुनर्प्राप्त
  • अनामिका. (दि.न.). पत्ता पत्ता बूटा बूटा . हिंदवी : https://www.hindwi.org/kavita/patta-patta-buta-buta-anamika-kavita?sort=popularity-desc से पुनर्प्राप्त
  • अनामिका. (दि.न.). मौसियाँ. हिंदवी: https://www.hindwi.org/kavita/mausiyan-anamika-kavita?sort=popularity-desc से पुनर्प्राप्त
  • अनामिका. (दि.न.). वृद्धाएँ धरती का नमक हैं . हिंदवी : https://www.hindwi.org/kavita/wriddhayen-dharti-ka-namak-hain-anamika-kavita-15?sort=popularity-desc से पुनर्प्राप्त
  • अनामिका. (दि.न.). स्त्रियाँ . हिंदवी : https://www.hindwi.org/kavita/striyan-anamika-kavita?sort=popularity-desc से पुनर्प्राप्त
  • रेखा सेठी. (2021). अनामिका की कविता :लोक संवेदना का मानवीय राग . साखी, 136-148 .
  • हिंदी साहित्य का घरेलू इतिहास . (2019). अनामिका में, पानी को सब याद था (पृ. 11-14 ). नई दिल्ली: राजकमल.

Tags:

Culture, Feminism, Literature