एक उगते हुए सूरज अस्त होना
जो हुआ उसका आभास तो तीन साल पहले ही हो गया था, लेकिन फिर भी सब कुछ इतना जल्दी हो जाएगा इसकी उम्मीद नहीं थी। जीवन एवं मृत्यु के इस तीन साल के संघर्ष में अंतत: हार हमेशा की तरह जीवन की ही हुई। कहा जाता है कि मृत्यु सबसे बड़ा सत्य है, लेकिन सत्य जब सदमे की तरह आए तो वह कितना निर्दयी एवं कठोर होगा, इसको नापने का कोई पैमाना नहीं हो सकता। इसलिए यह हार एक ऐसी हार है, जिसके आगे पूरे जीवन की जीत छोटी पड़ेगी। महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा में प्रौद्योगिकी अध्ययन केंद्र के 44 वर्षीय निदेशक एवं भाषा-प्रौद्योगिकी का देश में आधारशिला रखने वालों में प्रमुख प्रो॰ महेंद्र कुमार पाण्डेय पिछले तीन साल से कैंसर जैसी खतरनाक बीमारी से एक वीर लड़ाका की तरह लड़ रहे। वे कहते भी थे कि “जब तक बॉडी सपोट करेगी तब तक तो लड़ेंगे।” और अंतत: शरीर ने सात अप्रैल की तड़के 2 बजे साथ छोड़ दिया। इस प्रकार एक ऐसे युग-पुरुष का अवसान हुआ जो भाषा-प्रौद्योगिकी जैसे नवोदित अनुशासन में किए गए अपने योगदान के लिए सदैव याद किया जाता रहेगा ।
ऐसे समय में जब भाषाविज्ञान के शोध का आकर्षण भाषा-प्रौद्योगिकी के माध्यम से प्राय: मशीनी अनुवाद तक केन्द्रित हो गया है और वैश्विक स्तर पर इस पर शोध अभी हो ही रहा है, तब प्रो॰ महेंद्र कुमार पाण्डेय के लिए मशीनी अनुवाद बच्चों के खिलौने की तरह लगता था। अभी इस गंभीर बीमारी के दौरान भी एक छोटी-सी हिंदी-असमिया मशीनी अनुवाद की प्रणाली का विकास उन्होंने सिर्फ इसलिए किया था कि उनके निर्देशन में शोधरत एक छात्र को हिंदी एवं असमिया के मशीनी अनुवाद की प्रक्रिया में आने वाली समस्याओं से परिचित करवा सकें। उनके 14-15 साल के शोध की उम्र की शुरुआत ही एक क्रांतिकारी पहल थी जब 1992 में हैदराबाद विश्वविद्यालय से प्रो॰ उदय नारायण सिंह के निर्देशन में हिंदी में इलेक्ट्रानिक थिसारस पर पी-एच॰डी॰ की शुरुआत हुई थी। ध्यान रहे यह एक ऐसा समय था जब कंप्यूटर भारतीय जनमानस में धीरे-धीरे लोकप्रिय हो रहा था लेकिन किसी मानविकी के छात्र के लिए तो अबूझ पहेली की ही तरह था। किसी भाषाविज्ञान के छात्र द्वारा कंप्यूटर-केन्द्रित शोध का यह जज्बा अभूतपूर्व था। यह भाषा एवं तकनीक के संगम की प्रमुख पहल थी। इसके बाद प्रथम सेवा के रूप में उनका सी-डैक, पुणे पहुँचना भी एक अभूतपूर्व परिघटना थी, क्योंकि सी-डैक को तब तक परम कंप्यूटर के विकास के लिए ही जाना जाता था और वहाँ एक से बढ़कर एक कंप्यूटरविज्ञानी ही कार्यरत थे। ऐसे परिवेश में जहाँ मानविकी के विषयों को प्राय: द्वितीयक एवं उपेक्षित समझा जाता है वहाँ एक भाषाविज्ञानी का पहुँचना एक कम्प्यूटरविज्ञान के मध्य भाषाविज्ञान के महत्त्व का नए शिरे से स्थापना की ठोस बुनियाद थी। इससे न सिर्फ भाषाविज्ञान के महत्त्व को नए संदर्भों में पुनर्स्थापित करने में सहायता मिली, बल्कि भाषाविज्ञानियों में नए आत्मविश्वास का संचार हुआ। इन्हीं प्रयत्नों का प्रतिफल है कि आज भाषाविज्ञान सी-डैक की अनिवार्यता है और भाषा-कम्प्यूटिंग के क्षेत्र में किए गए कार्य उसकी उपलब्धि। इन सबका श्रेय निश्चित रूप से प्रो॰ महेंद्र कुमार पाण्डेय को ही जाता है। इसके बाद कभी वे पीछे मुड़कर नहीं देखे। अपने परिपक्व शोध-दृष्टि एवं गहन विश्लेषणीय क्षमता के कारण ही वे आज मशीनी अनुवाद के क्षेत्र में एक प्रमुख स्तम्भ थे।
आज भाषा-प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में कार्यरत देश के विभिन्न शोध-समूहों में ‘मंत्र’ का नाम सर्वाधिक सफल मशीनी अनुवाद प्रणालियों में गणना होती है। वह इसलिए कि यह प्रणाली प्रयोगशाला से निकलकर व्यवहार-क्षेत्र में कार्यशील है। देश के संसद के उच्च सदन ‘राज्यसभा’ में होने वाली संसदीय कार्रवाइयों का अनुवाद इस प्रणाली के माध्यम से ही होता है। ध्यान रहे कि इस प्रणाली के विकास से लेकर विश्व भर में अनेक स्थानों पर परीक्षण तक का नेतृत्व भाषाविद प्रो॰ महेंद्र कुमार पाण्डेय ने ही किया था। यही कारण है कि देश के वरीष्ठ भाषाविद प्रो॰ उदय नारायण सिंह उनको देश का एक मात्र ऐसा भाषाविद मानते थे, जो ‘भाषाविज्ञान एवं कंप्यूटरविज्ञान दोनों पर समान अधिकार रखता हो ।’ आज जब हिंदी अकादमिक जगत में मौलिक शोध का रोना प्राय: रोया जाता है, तब वे अनुक्रमिक व्याकरण के रूप में ऐसे व्याकरणिक सिद्धान्त का विकास किया था जो पूरी तरह से मौलिक था साथ ही इतना सटीक कि उस पर वर्तमान में मशीनी अनुवाद कार्य कर रहा है। भाषा जैसी सर्जनात्मक विधा को महज कुछ नियमों में बाँध देना ठीक वैसा ही है जैसे बहती नदी को रिमोट से संचालित करना। लेकिन आश्चर्य होता है कि अनुक्रमिक व्याकरण के रूप में यह कार्य हुआ है और इसको करने वाले उत्साही समूह का नेतृत्व भाषाविज्ञानी भी प्रो॰ महेंद्र कुमार पाण्डेय ही थे।
उनके सरल व्यक्तित्व एवं सहज व्यवहार के कारण कभी उनकी विशिष्टता का बोध नहीं होता था, स्वयं इतना सतर्क रहते थे कि संबंधों में उनकी अकादमिक उच्चता कभी अतिरिक्त बोझ न बने । इसीलिए तमाम डाँट-फटकार के बावजूद छात्रों के मध्य सर्वाधिक लोकप्रिय शिक्षक थे और भविष्य की स्मृतियों में भी अपने मित्रवत व्यवहार के लिए याद किए जाएंगे। कार्य के प्रति समर्पण उनका विशेष गुण था। बीमारी की दशा में भी दिन-रात की सीमा से ऊपर उठकर कार्य करने की उनकी आदत किसी नए शोधार्थी के लिए भी हमेशा प्रेरणास्रोत रहेगी।
यद्यपि जीवन-मरण समाज की अनिवार्य प्रक्रिया है, हर व्यक्ति जो पैदा हुआ है उसका मरना भी निश्चित है, लेकिन मृत्यु के बाद किसी व्यक्ति से जुड़ी यादें समाज की स्मृतियों में किस रूप में है, यही उसका असली मूल्यांकन होता है। भाषा-कम्प्यूटिंग का कोई संदर्भ आयेगा तो प्रो॰ महेंद्र कुमार पाण्डेय जरूर याद आएंगे, यदि इसे हिंदी की सीमा में देखा जाएगा तो एक ऐसे मील की पत्थर की तरह दिखेंगे जो सिर्फ सामने दिखेगा और यदि इस सबको अकादमिक जगत में स्थापित करने का कोई प्रसंग आएगा तो ऐसे कुशल वकील की तरह याद आएंगे जो न्यायालय में अपनी हर केस जीतता हो। उनके इस संक्षिप्त जीवन की उपलब्धियाँ इतना सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है कि भाषाविज्ञान ने अपना महान व्याख्याकार खोया है, हिंदी-जगत ने एक कर्तव्यनिष्ठ विद्वान खोया है और आगामी पीढ़ी ने अपना पथ-प्रदर्शक। अंत में उनके परिवार के प्रति सहानुभूति एवं इस अप्रत्याशित कष्ट से मजबूत होकर निकलने की कामना के साथ विनम्र श्रद्धांजलि एवं एक लंबा मौन जो उनके यश को स्वर दे ।