जाना भाषाविज्ञान के पितामह का
विगत कुछ घटनाओं के अनुभव से फेसबुकिया सूचनाओं की विश्वसनीयता पर संकट इस तरह से गहराया है कि विश्वास नहीं हो रहा था, कि द्विवेदी सर के देहावसान की सूचना सही है। हालाँकि यह सूचना प्रो॰ देवीशंकर द्विवेदी के शिष्य प्रो॰ राजनाथ भट्ट ने उनके पुत्र विवेक के हवाले से साझा किया था, इसलिए सामान्यत तौर पर असंदेह का कोई कारण नहीं था, लेकिन 20 दिन पहले मेरी उनसे जिस मुद्रा में बात हुई थी, उसमें इस सूचना पर विश्वास कर लेने का सहज ही मन नहीं किया था। रात भर मन उद्वेलित था कि यह सूचना गलत निकले। इसी उम्मीद से आज (10/04/2016) सुबह फोन मिलाया और हमेशा की तरह कालर ट्यून के रूप में ‘मंगल भवन, अमंगल हारी….’ की ध्वनि यह बताना चाह रही थी कि अभी भी सब मंगल ही होगा, लेकिन जैसे ही फोन पर उनके पत्नी की आवाज पहली बार सुनाई दी, तो स्पष्ट हो गया कि ‘अमंगलहारी’ सिर्फ एक विकल्पहीन विश्वास का नाम है। बहरहाल इस सबके बाद एक बार पलट कर फेसबुक को धन्यवाद करने का मन किया कि यह सूचना मिल गई, क्योंकि जिस अतिशय एकांत को द्विवेदी सर ने अपने लिए चुना था, उसमें उनसे जुड़ी इस अंतिम सूचना के सार्वजनिक होने की उम्मीद कम ही थी।
प्रो॰ देवीशंकर द्विवेदी का जन्म सन् 1937 में उत्तर-प्रदेश के उन्नाव जिले के गाँव ‘कोरारीकलाँ’ के एक अति सामान्य परिवार में हुआ था। वे बचपन से ही एक प्रतिभाशाली छात्र थे और प्राय: परीक्षाएँ उन्होंने नई उच्चता के साथ पास की थी। संभवत: उद्भट प्रतिभा और सरलता से बने उनके व्यक्तित्व का ही आकर्षण था कि न सिर्फ उनके शिक्षक, बल्कि सहपाठी भी उनको बहुत प्यार करते थे। इनमें से कई सहपाठियों ने बड़ी ही विनम्रता एवं उदारता से उनके साथ के अनुभवों को “भाषा भी : साहित्य भी” शीर्षक से प्रकाशित उनके अभिनंदन ग्रंथ में लिखा भी है।
कम उम्र से ही प्रो॰ द्विवेदी ने तत्कालीन प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में ‘सुहास’ एवं ‘अंगराज’ नाम से बहुविधायी लेखन शुरू कर दिया था, हालाँकि उनके औपचारिक अध्ययन का क्षेत्र भाषाविज्ञान ही रहा। प्रो॰ देवीशंकर द्विवेदी का समग्र लेखन वस्तुत: उनके मौलिक चिंतन एवं स्पष्ट दृष्टि का प्रत्यक्ष प्रमाण है। प्रो॰ द्विवेदी का पूरा अकादमिक जीवन भाषाविज्ञान के उत्थान एवं विस्तार के लिए दृढ़ संकल्पित था। सागर, आगरा, जेएनयू एवं कुरुक्षेत्र जैसे विश्वविद्यालयों में से कुछ भाषाविज्ञान विभाग की स्थापना से लेकर सबके व्यापकता की अपेक्षा के साथ कार्यरत रहे। एक शिक्षक के रूप में वे देश-विदेश के अनेक विश्वविद्यालयों में पढ़ा चुके थे। अपने शोध के दौरान उन्होंने बैंसवाड़ी, अवधी, कोरकू एवं हिंदी आदि के लिए काम किया। एक वक्ता के रूप में अपने सटीक वक्तव्य एवं मौलिक उद्बोधन के कारण गंभीर वक्ता के रूप में भी वे बहुत समादृत थे। प्रो॰ द्विवेदी अपने जीवन में सरल एवं मृदुभाषी व्यवहार से साथ समयनिष्ठा के लिए बहुप्रशंसित थे। अपने सार्वजनिक जीवन में वे पदलिप्सा से दूर ही रहे।
यद्यपि भाषाविज्ञान में उन्होंने एक लंबा अकादमिक जीवन बिताया था, लेकिन संभवत: समय साथ बढ़ते बाजारीकरण से खिन्न धीरे-धीरे इससे लगभग स्वयं को अलगा चुके थे। इसलिए एक समय के बाद एकांत को ही अपना नियत मानकर खुश थे और इसी तरह बकौल उनकी पत्नी श्रीमती कुसुम द्विवेदी ‘सब कुछ ठीक ही था, लेकिन एक बार ऐसे गिरे कि लगा, सोने जा रहे हैं, लेकिन वे हमेशा के लिए सो गए।’ इस प्रकार विगत 8 अप्रैल, 2016 को देश के अकादमिक जगत ने एक लब्धप्रतिष्ठित विद्वान खो दिया, उनके शिष्यों ने एक अनुकरणीय गुरु, भाषाविज्ञान ने अपना पितामह और मैंने अपना ऐसा शिक्षक जिसने अंगुली पकड़कर लिखना सिखाया है। वे मेरे जीवन में एक मात्र ऐसे आदमी थे, जिनको फोन पर हर बार ‘हैलो’ से अधिक परिचय देने की आवश्यकता नहीं पड़ती थी। लगभग 80 सालों के जीवन के अधिकांश समय में वे मुखर थे, अब अनन्त मौन के बाद भी उनकी मुखरता को महसूस किया जा सकता है, उनके लेखन से, उनके वक्तव्यों से और उनके सानिध्य की स्मृतियों से। वर्धा में दिए एक भाषण में उन्होंने कहा भी था कि “भाषा ही भावों को छिपाती भी है।” अब एक मौन!