लखनऊ का संगीत और साहित्य : इतिहास के आईने में
सारांश
लखनऊ हमेशा से अदीबों, फ़नकारों, कलमकारों और संगीतकारों की खेती करता रहा है, जिन्होनें ज़माने को इल्म, अदब और मौसिक़ी (संगीत) की दौलत से नवाज़ा. लखनऊ सिर्फ ठुमरी, टप्पा, तबले और कत्थक का ही सिर्फ घराना नही है बल्कि उर्दू शायरी का भी कामयाब घराना हुआ. दिल्ली के उजड़ने के बाद यहाँ आकर बसे फ़नकारों, कलमकारों और संगीतकारों को ऐसी उर्वरक ज़मीन मिली, जिस पर उन्होंने अपने हुनर को खूब तराशा और अपनी कलात्मक उपलब्धियों से संगीत और साहित्य के ख़ज़ानों को मालामाल किया. प्रस्तुत लेख लखनऊ की संगीत की विरासत को इतिहास के झरोखे से देखने का प्रयास है.
अवधी संस्कृति के प्रसिद्ध इतिहासकार पद्मश्री डॉ. योगेश प्रवीण कहते है कि – “सुमित्रानंदन लक्षमण के नाम पर बसाया गया लक्ष्मणपुर नगर अनेक राजवंशों की छत्रछाया में लखनावती से होता हुआ शेखों और नवाबों के समय तक अपने वर्तमान नाम लखनऊ तक पहुँचा है.” (प्रवीण, 2002). लखनऊ का इतिहास अपनी सांस्कृतिक एवं साहित्यिक उपलब्धियों के कारण दुनिया भर में जाना – माना जाता है. ऐसा कहा जाता है कि तहज़ीब का सबसे खिला हुआ रंग लखनऊ के पास है, जिसमें शोखी के साथ शालीनता भी है, तो नज़ाकत और नफासत के साथ ज़िंदगी जीने की खूबसूरत नसीहत भी.
सन 1775 में जब नवाब आसफुद्दौला ने लखनऊ को अवध की राजधानी बनाया तब से लखनऊ हिंदुस्तानी संगीत का केंद्र बन गया. नवाब आसफुद्दौला से लेकर अवध के अंतिम नवाब वाजिद अली शाह के समय तक लखनऊ में संगीत का सूर्य चमकता रहा. इस दौरान संगीत की अनेक नई नई विधाएँ प्रकाश में आई. हिंदू -मुस्लिम संस्कृतियों के सम्मिश्रण से लखनवी संस्कृति का उदय हुआ. इसी लखनवी नज़ाकत और नफ़ासत का रंग यहाँ के संगीत के रंग में घुल मिल गया. यहाँ के रूमानियत भरे माहौल में शृंगार प्रधान ठुमरी ने आंखें खोली तो साथ ही दादरा, ग़ज़ल, मर्सिया, सोज़खानी और कत्थक के घुंघरुओं के साथ तबले की थाप भी रसिकों और संगीत प्रेमियों के दिल में जगह बनाने में कामयाब हुई. संगीत की उन विधाओं के उस्तादों और कला मर्मज्ञों ने जो संगीत सृजित किया वह आज हमारे लिए अनुकरणीय है और हमारी स्वर्णिम विरासत है. यह वर्तमान के संगीत के वृक्ष की मजबूत जड़े हैं जो हमारे संगीत को स्थायित्व प्रदान करती है और हमें एक मजबूत परंपरा के धागे से बांध कर रखती है.
ठुमरी शृंगार रस प्रधान अभिनयात्मक संगीत है और इसमें कोमलता, भावकुता से भरी कैशकी वृत्ति का प्रयोग किया जाता है. ठुमरी संगीत का वह जेवर है, जिसमें शास्त्रीयता का सोना है, तो लोकमानस की भावनाओं के सच्चे मोती भी गूँथे हैं. (वर्मा, 2012). मुरकियों की सहायता से ठुमरी के भाव तत्त्व का सौंदर्य गढ़ा गया और इसके व्यक्तित्व के अनुरूप ही इसके साहित्य की भी रचना हुई. गौरतलब है कि ठुमरी की भाषा ना उर्दू थी ना फ़ारसी बल्कि यह ब्रजभाषा, लखनऊ क्षेत्र की अपनी भाषा और पूरबी भाषा का अद्भुत सम्मिश्रण थी. लखनवी तहजीब के आँगन में जब ठुमरी जवान हो रही थी तो वहाँ की नज़ाकत और नफ़ासत भी ठुमरी में मूर्तिमान होती जा रही थी. संयोग और वियोग रस से सराबोर आकर्षक धुनों से सजी सैकड़ों ठुमरियां हमें विरासत से मिली है, जिसमें रचनाकारों का शिल्प सामर्थ्य और भाषा सौंदर्य दृष्टिगत होता है. वाजिद अली शाह जो खुद अख़्तर पिया के नाम से ठुमरी की रचना करते थे, इसके उदार संरक्षक थे. उनकी रचित ठुमरी ‘बाबुल मोरा नैहर छूटो जाए’ संगीत जगत को विरासत में मिली अमूल्य निधि है जो आज भी लोकप्रिय है. कत्थक नृत्य में भी भाव प्रदर्शन के लिए ठुमरी का सहारा लिया गया. लखनऊ के रचनाकारों ने ऐसी सैकड़ों ठुमरियां उपलब्ध है जिनका नृत्य से गहरा संबंध है. शुरुआती दौर में ठुमरी मूलतः राधा कृष्ण के कथानक से जुड़ी होती थी लेकिन बाद की रचनाओं में भौतिक और आध्यात्मिक शृंगार रस भी अभिव्यक्त हुआ. शृंगार रस की अभिव्यक्ति के बाद ही ठुमरी रचनाओं का सर्वस्व हो गया. राधा-कृष्ण के भक्ति पूर्ण गायन से हटकर ठुमरी आध्यात्मिक प्रेम के समानांतर मानवीय प्रेम पर उतर आई. सभी प्रतिबंध और मर्यादाएं टूट गई. अपनी पूरी उत्तेजकता के साथ नारी सुलभता सरसता इसमें घर कर गई. गायक की कल्पनाशीलता के लिए इस तरह ठुमरी में नई उड़ानों को अवसर मिला (मिश्रा, 1984).
कैसी ये भलाई रे कन्हाई, पनिया भरत मोरी गगरी गिराई करके लराई.
‘सनद’ कहे, ऐसो ढीठ भयो कन्हाई, का करूं माई, नहीं मानत कन्हाई, करत लराई. (सिंह, 1978: 24)
वर्ष 1856 में जब नवाब वाजिद अली शाह को अंग्रेजों ने बंदी बना लिया और क़ैद कर कलकत्ते के मटियाबुर्ज ले जा रहे थे तो उनके पीछे गायकों की टोली उनके द्वारा रचित ठुमरी गाते हुए उन्हें विदा कर रही थी (नागर, 2009).
बाबुल मोरा नैहर छूटो जाय
चार कहार मिल डोलिया उठाय
अपना बिगना छूटो जाय
लखनऊ के गुलाम नबी चोरी उर्फ शोरी मियां की खूबसूरत ईज़ाद थी – टप्पा गायन शैली. वे प्रसिद्ध ख्याल गायक गुलाम रसूल के बेटे थे. उन्होंने अपने पिता से ख्याल गायन की तालीम ली थी. कालांतर में पंजाब में रहने के कारण रेगिस्तानी ऊंट सवारों के तेज लय वाले लोक गीतों से प्रेरणा ले करके उन्होंने सुगम शास्त्रीय टप्पे की ईज़ाद की. जो ठुमरी की भांति खमाज, काफ़ी, भैरवी, झिंझोटी, पीलू आदि रागों में बंधे थे. यह पंजाबी भाषा में थे. इसमें जटिल खटके, जमजमा, छोटी चंचलता तानों का सुंदर प्रयोग होता है. बोल शृंगार रस पूर्ण होते हैं. छज्जू खां, मम्मू खां, मुराद अली, बड़े और छोटे मुन्ने खां, सादिक अली खां और खुर्शीद खां अपने समय के प्रसिद्ध टप्पा गायक थे. (मिश्रा, 1984).
बे तैंडे बेखड़ दाबो मैंडे सांइयां मैनू चाब घनेरा
कहा करूं कित जाऊं सखि री, अब तो इश्क ने घेरा
याद लगी तैंडी मियाँ तूं भी करद याद के नाहीं
दरद क्या हुई यारातें जोर दस्त गरेबाँ ही, (मिश्रा, 2011: 62)
कत्थक अवध की रासधारी मंडलियों की परंपराओं से विकसित हुआ. कत्थक लखनऊ से निकला और सारी दुनिया में फैल गया. आज दुनिया भर के कत्थक नर्तकओं के लिए लखनऊ कत्थक के किसी तीर्थ से कम नहीं है. बिंदादीन महाराज, कालका प्रसाद, शंभू महाराज, अच्छन महाराज, लच्छू महाराज और बिरजू महाराज लखनऊ घराने की कत्थक परंपरा के वह सभी कत्थक कलाकार हैं जिन्होंने न केवल कत्थक नृत्य को अपनी साधना एवं गूढ़ चिंतन से समृद्ध किया बल्कि आने वाली पीढ़ी को कत्थक की स्वर्णिम विरासत से भी नवाज़ा. उनके द्वारा रचित सैकड़ों ठुमरियां, तोड़े, गतें, परने आदि आज की युवा कत्थक पीढ़ी के लिए साधना के शिखर बने हुए हैं. (प्रवीण, 2002). नृत्य नाटिकाओं को भी जाने आलम के समय में काफी प्रोत्साहन मिला. इसका मुख्य कारण यह भी था कि जाने आलम अभिनय के शौकीन थे और स्वयं अभिनय करते थे. वाजिद अली शाह का ‘राधा कन्हैया रहस’ और ‘जोगिया जश्न’ आज भी याद किए जाते हैं.
सितार पर बजाए जाने वाली ‘रज़ाखानी गत’ आज लोकप्रियता के शिखर को छू रही है. हर सितार वादक रज़ाखानी गत (द्रुत गत) का वादन जरूर करता है. इस गत की ईज़ाद भी लखनऊ की ज़मीन पर उस्ताद गुलाम रज़ा खान द्वारा हुई थी. कत्थक , ठुमरी, टप्पा और ग़ज़ल के साथ-साथ लखनऊ तबले का भी एक प्रमुख घराना रहा है. लखनऊ में जिस समय कत्थक फल फूल रहा था और ठुमरी जवान हो रही थी उसी समय तबला भी अपने हुनर को तराश रहा था. एक ओर तबले की थाप ने जहां कत्थक के गुरुओं के साथ मिलकर उसकी खूबसूरती बढ़ाई वही उसके लग्गी-लड़ी के काम ने ठुमरी को और अधिक रंजक बना दिया. उस्ताद आबिद हुसैन, उस्ताद वाजिद हुसैन, आफ़ाक़ हुसैन आदि दिग्गज कलाकारों ने लखनऊ की तबला वादन कला को समृद्ध किया और तबला वादन के क्षितिज को विस्तार दिया.
लखनऊ उर्दू कविता की रचना भूमि रही है. इस क्षेत्र में लखनऊ की खास देन है बेहतरीन ग़ज़लें और मरसिए. उर्दू काव्य की एक धारा ग़ज़ल बनकर मोहब्बत करने वालों के दिलों में बही, जिसके माने ही हुस्न और इश्क की बातचीत है, तो दूसरी काव्य धारा इमाम हुसैन और उनके परिवार की शहादत गाथाएं बनकर मरसिए के रूप में गाई गई (मिश्रा, 1984). 10वीं मुहर्रम यानि आशूरा के दिन ही हजरत इमाम हुसैन की कर्बला में शहादत हुई थी. इमाम हुसैन के साथ उनके 72 साथियों को भी शहीद कर दिया गया था. मुहर्रम के दौरान मुस्लिम नौहा और मर्सिया पढ़ते हैं जिनमें इमाम हुसैन की शहादत और कर्बला के वाकये (घटना) का बयान होता है. नौहा और मर्सिया शिया समुदाय के लोग मातम के साथ पढ़ते हैं.
आज शब्बीर पे क्या आलम ए तन्हाई है
जुल्म की चांद पे जहरा की घटा छाई है
उस तरफ लश्करे आदाम ए सफआराई है
यां न बेटा न भतीजा न कोई भाई है
बरछियां खाते चले जाते हैं तलवारों में
मार लो प्यासे को है शोर सितमगारों में[1]
गाजीउद्दीन हैदर के शासन काल तक मर्सिये संगीत के सुरों में डूब चुके थे. इस काल में ऐसे -ऐसे सोज़ पढ़ने वाले घायल पैदा हुए कि बड़े – बड़े कलाकार उन्हें सुनकर कान पकड़ लेते थे. मिर्जा रजब अली बेग ने अपनी पुस्तक ‘फ़सान ए अजायब’ में फ़रमाया है कि – “मर्सिया पढ़ने वाले जनाब मीर अली साहब ने मर्सिया पढ़ने की उस नवीन शैली का आविष्कार किया कि उन्हें आकाश ने भी उस्ताद कहा” (बाजपेई, 2008).
ग़ज़ल का शाब्दिक अर्थ ही है – माशूक़ से बातचीत. डा. योगेश प्रवीन के अनुसार – “ग़ज़ल लफ़्जों के आइने में एक हसीन ख़्वाब की परछाई है, कभी गुलाबी यादों में डूबी तनहाई है, तो कभी मुहब्बत की शहनाई है.” ऐसा माना जाता हैं कि दो मिसरों में जीवन के किसी भी सत्य को गहराई तक आभास करा देने की क्षमता ग़ज़ल में जितनी है, उतनी किसी अन्य काव्य विधा में नही. लखनऊ उर्दू शायरी का वो घराना हुआ जिसने उर्दू ग़ज़ल को उसके शबाब तक पहुँचाया. लखनवी शायरी की जान थी लखनऊ की उम्दा ज़बान, लफ़्ज़ों की लोच लचक और मुहावरों की मोहिनी. मीर, सौदा, इंशा, शेख इमाम बख़्श ‘नासिख़’, ख़्वाज़ा हैदर अली ‘आतिश’, पंडित दया शंकर ‘नसीम’ ने लखनऊ की शायरी के हुस्न को संवारा.
बकौल डॉ. योगेश प्रवीण – “मीर की ग़ज़ल, सौदा के कसीदे, नसीम की मसनवी और अनीस के मर्सिये, ये वो खूबसूरत बूटे थे जो इस गुलज़ार ए लखनऊ में महके थे.” (प्रवीण, 2008).
आदम को खुदा मत कह, आदम खुदा नही,
लेकिन खुदा के नूर से आदम जुड़ा नही (दया शंकर ‘नसीम‘)
*****
चुपके चुपके रात दिन आसूं बहाना याद है,
हमको अब तक आशिक़ी का वो ज़माना याद है (हसरत मोहानी)
*****
किसने भीगे हुए बालों से ये झटका पानी,
झूम के छाई काली घटा, टूटर कर बरसा पानी (आरज़ू लखनवी)
एक कहावत बड़ी मशहूर है कि, “जब दिल्ली उजड़ी तब लखनऊ आबाद हुआ”. उधर दिल्ली में मुग़ल सल्तनत अंतिम आख़िरी साँसें ले रहा था और इधर नवाब आसुफुद्दौला ने फैज़ाबाद की जगह जब से लखनऊ को अवध की राजधानी बना रहे थे. अवध की राजधानी बनाने के बाद लखनऊ एक सांस्कृतिक केंद्र के रूप में उभरा. तमाम कलाकारों, फनकारों और शायरों ने दिल्ली छोड़कर लखनऊ का दामन थाम लिया. नवाब वाज़िद अली शाह के समय तक संगीत अपनी पराकाष्ठा तक पहुँच चुका था. नवाबी दौर में सुन्दरी, उजागर, मुन्नी बेग़म, मोती, सोना, पियाजू, महबूबन और हुसैनी डोमनी नाम की एक से बढ़ कर एक प्रसिद्द गाने वालियां हुई. लखनऊ के चौक में डोमिनियाँ, कंचनिया, डेरेदार तवायफें, पतुरिया आदि सभी स्तर की पेशेवर नाचने वालियां रहा करती थी. ये गाने वालियां प्रणय गीत, ग़ज़ल के अलावा ठुमरी, दादरा, कजरी, होरी, चैती, नकटा, सेहरा, ब्याह, बन्ना-बन्नी गाने में सिद्ध होती थी. इनके गीतों की अदायगी का अंदाज़ कुछ ऐसा होता था कि देखने वाले मन्त्र मुग्ध हो जाते थे. (प्रवीण: 2002). लखनऊ का एक प्रसिद्द सेहरा है –
मुबारक तुमको फूलों का बनाकर लाए है सेहरा
हम अपने दिल के टुकड़ों का सजाकर लाए है सेहरा
नज़र ग़ैरों से बढ़कर प्यार में अपनों की लगती है
तो हम अपनी भी नज़रों से बचाकर लाए है सेहरा
ये पंक्तियाँ गाते समय दामन से अपने चेहरे को इस अदा से ढांकती थी कि देखने वाले निछावर देने को मजबूर हो जाते थे.
उधर वो उनके सर से बंध के लग जाएगा सीने से
इधर हम अपने सीने से लगा कर लाए है सेहरा
लखनऊ का ज़िक्र हो, ठुमरी – दादरा का ज़िक्र हो और बेग़म अख़्तर की बात न हो तो बात पूरी नही होती. बेग़म अख़्तर ने अपनी रूहानी आवाज़ से ग़ज़ल, ठुमरी और दादरा को उसके उरूज़ तक पहुँचा दिया था. ग़ज़ल के हर नाज़ुक अंग को आवाज का सही रंग देना उनकी अपनी ईज़ाद थी. उनका गया एक प्रसिद्द दादरा है –
हमरी अटरिया पे आओ तो सजनवा
ताका – झांकी तनिक होए जाए
बेग़म अख़्तर का क़द कितना बड़ा और उनकी शख़्सियत कितनी आसमानी थी इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि संगीतकार मदन मोहन ने लखनऊ आकाशवाणी पर ग़ज़ल को बरतने का तरीका उनसे सीखा था. उन दिनों तलत महमूद, मुजदीद नियाज़ी और हरीश भरद्वाज भी होते थे. पाकिस्तानी गायक मेहंदी हसन साहब ने खुद मंज़ूर किया कि ग़ज़ल गाने की सहलियत उन्होंने बेग़म अख्तर से ही पाई.
जिगर मुरादाबादी के कलाम उनकी ख़ास पसंद हुआ करते थे –
इस दिल के धड़कने का कुछ है सबब आख़िर
या दर्द ने करवट ली या तुमने इधर देखा
लखनऊ का फिल्मों के साथ बड़ा गहरा नाता रहा है. अवधी लोक गीतों और उनकी रसवंती धुनों के संसार ने बम्बइया फिल्मों को खूब सजाया और संवारा. अवध की लोक धुनों ने जहाँ एक ओर फिल्म संगीत को रसवंती और दिल को छू लेने वाली धुनों से सजाया वही दूसरी ओर लखनऊ की साफ़ सुथरी ज़बान फिल्मों में संवाद का बेहतरीन माध्यम भी बनी. बकौल डॉ. योगेश प्रवीण – “नर्गिस की फिल्म ‘मदर इण्डिया’ के गीत घूँघट नही खोलूँगी सैंयां तोरे आगे…या गाड़ी वाले गाड़ी धीरे हांक रे…दिलीप कुमार बैजंती माला की फिल्म ‘गंगा जमुना’ के गाने; दगाबाज तेरी बतिया ना मानू रे…, दो हंसों का जोड़ा…,नैन लड़ जईहै तो मनवा में…ढूंढों -ढूंढों रे साजना…ये सभी अवध की ही मिट्टी की ही खुशबू है. आज से 60 -70 साल पहले रतजगों की रात या नकटौरे की रात जो गाने घरों की दादी, नानी, बुआ गया करती थी, वो सब फिल्मों के नजराने बनते चले गए, जैसे- फिल्म ‘चांदनी चौक’ का गीत जादू बुरा बंगाल का, पूरब न जइयों बालमा…, फिल्म ‘काला पानी’ का गीत नज़र लागी राजा तोरे बंगले पर…फिल्म ‘पाकीजा’ का जिसने अशर्फी गज दीन्हा दुपट्टा मेरा…वगैरह वगैरह.” अवध का एक पारंपरिक और प्रचलित ‘नकटा’; इक्के वाले रे इक्के का पर्दा खोल दे….जिसको लखनऊ में नटी और बेडिने खूब गाती थी, इसकी धुन का इस्तेमाल संगीतकार मदन मोहन ने 1966 में आई फिल्म “मेरा साया” में किया और यह धुन आम-अवाम के दिल दिमाग पर ऐसी छाई कि आज भी लोग उसकी गिरफ्त से आज़ाद नही हो पाए है. इस गाने के बोल थे; झुमका गिरा रे बरेली के बाज़ार में…..और कलम थी गीतकार रजा मेहंदी अली खान की. (योगेश प्रवीण: 2018)
वो प्रचलित नकटा इस प्रकार है –
इक्के वाले रे इक्के का पर्दा खोल दे
सास मेरे बस में ननद मेरे बस में
अल्ला जाने रे बलम नही बस में !! इक्के वाले रे….
झुमका मेरे बस में और झूमर मेरे बस में
अल्ला जाने रे दुपट्टा नहीं बस में !! इक्के वाले रे….
ज़ाहिर है कि लखनऊ में नवाबी संरक्षण में संगीत बहुत फला – फूला. नवाब आसफुद्दौला से लेकर जाने आलम तक लखनऊ संगीत और शायरी का मरकज़ रहा, जिसने दुनिया भर से संगीत प्रेमियों को आकर्षित किया. इसी दौर में ही नई – नई संगीत शैलियों का विकास हुआ, जो आज भारतीय संगीत को धरोहरें है. ये धरोहरें हमारी सांगीतिक और साहित्यिक विरासत तो है ही साथ ही आगे विकास करने की प्रेरणा भी निरंतर देती रहती है.
अपने होने का सुबूत और निशां छोड़ गये
हुनरमंद लोग विरासत में क्या-क्या छोड़ गये
सुर-ताल-घुंघरूओं से महफ़िल सजती रहे
विरासत के साथ विकास की राह छोड़ गये
सन्दर्भ:
- Nagar, Vidhi. Kathak Nritya ka Lucknow Gharana. Lucknow: Hindi Vangmay Nidhi. 2009
- Praveen, Yogesh. “Begum Akhtar: Yadon ke Aaine me”. Sangeet Galaxy. 1(1), 2012, p.2
- Praveen, Yogesh. Aapka Lucknow. Lucknow: Lucknow Mahotsav Patrika Samiti. 2002
- Praveen, Yogesh. Lucknow ki Shayri – Jahan ki Juban Par. Lucknow: Hindi Vangmay Nidhi. 2008
- Bajpei, Ram Kishor. Lucknow ke Sangeetkar. Lucknow: Hindi Vangmay Nidhi. 2008
- Mishra, Vijay Shankar. Manke: Bhav, Sur, Lay ke. New Delhi: Prakashan Vibhag, Soochna Aur Prasaran Mantralaya. Bharat Sarkar. 2011.
- Mishra, Sushila. Lucknow ki Sangeet Parampra. Lucknow: Uttar Pradesh Sangeet Natak Akadami. 1984
- Verma, Amit Kumar. Antarman ka Sangeet. New Delhi: Kanishka Publishers. 2012
- Verma, Amit Kumar. Man Ke Meet – Awadhi Lok Geet. NotNul Publications. 2020.
- Singh, Sumitra Aanadpal. “Thumari Aur Swargeeya Bhatkhande”. Lakhsmi Narayan Garg (Sankalak), Nibandh Sangeet. Uttar Pradesh: Sangeet Karyalaya, Hathras. 1978
[1]https://www.patrika.com/varanasi-news/muharram-2021-what-is-marsiya-know-10-popular-marsiya-nauha-7019055/